‘हां वृद्ध भारतवर्श ही संसार का सिरमौर है
ऐसा पुरातन देश भी क्या विश्व में कोई और है’
भारत की सांस्कृतिक परम्परा अद्वितीय है (Intangible Cultural Heritage of India)। ”धर्म”, ”कर्म” और ”जाति” सामाजिक स्तरीकरण के सोपानीय रुप भारतीय संस्कृति के मुख्य तत्व हैं, ”जाति व्यवस्था का पूर्ण विकास उत्तरवैदिक काल (Later Vedic Age) में हुआ और बाद में इसे मनुस्मृति के माध्यम से मानक रुप प्राप्त हुआ।” इन तत्वों के संरुपण और इनकी प्रासंगिकता पर आम सहमति के कारण भारतीय समाज में सन्तुलन और स्थायित्व की डोर हमेषा सुदृढ़ बनी रही। यही कारण है कि 2000 से अधिक वर्शों के काल में, जब भारतीय संस्कृति अनेक बाह्य और आन्तरिक दबावों से रुबरु होती रही, भारतीय संस्कृति में अधिक व्यवधान नही पैदा हुए। कुछ संषोधनों को छोड़कर मूल रुप में भारतीय समाज के सांस्कृतिक मूल्य और मानक आज भी वही बने हुए है। ”धर्म”, ”कर्म” और ‘’जाति’’ से जुडे हुए मूल्य सामाजिक और सांस्कृतिक क्रियाओं का इतने वर्शों से मार्गदर्षन करते रहे है, इसी आधार पर प्रो. आर.सी. मजूमदार का यह मत है कि इतने लम्बे समयकाल में ”परिवर्तन सांस्कृतिक व्यवस्था के अन्तर्गत हुआ न कि सांस्कृतिक व्यवस्था का।”
हमारी सम्पूर्ण वैदिक साहित्य संस्कृति की अमूल्य निधि है। संस्कृति एक अमूर्त (Abstract) संकल्पना है। इनमें व्यक्ति समाज व राष्ट्र को परिकृष्त करने की अनेक विधा मौजूद हैं, जिनसे अभिप्रेरित होकर हम व्यक्तिवादी नहीं हो सकते, अपितु अपने सम्पूर्ण पर्यावरण के प्रति चेतनशील बनते है, जीवन को लयात्मक दृष्टि से चैतन्य भी बनाते है। तथागत और महावीर जैसे तपस्वियों ने अपने ज्ञान में हमें देवत्व की ओर ही उन्मुख कर दिया। आज हमें जिस पर्यावरणीय संकट का भय है उससे बचने के उपाय इन द्वय युग द्रष्टाओं द्वारा ढाई हजार वर्ष पूर्व ही सुझाए गए। विश्व विजेता सिकन्दर ने भी हमारी सांस्कृतिक समृद्धि का सम्मान किया। अशोक महान् और कनिष्क ने राष्ट्र ही नहीं, अपितु परराष्ट्र में भी भारतीय संस्कृति के चिराग को प्रज्वलित कराकर एक दृष्टि, एक समझ और अनुकरणीय पथ दिया, तदुपरान्त सम्पूर्ण विश्व ने हमारी संस्कृति की समृद्धि और सहजता को स्वीकारा। फाह्यान, ह्वेनसांग और इत्सिंग जैसे चीनी यात्री इसी साक्ष्य के इतिहास हैं।
मध्यकाल में राजा महाराजाओं के लिए सांस्कृतिक विकास प्रतिष्ठा का विषय रहा है। दूसरी ओर भारतीय समाज का यह गुण रहा है कि यह बाह्य परिवेश से प्राप्त सभी सांस्कृतिक धाराओं को अपने में समाहत करके अपने ही रुप रंग में ढाली है। यहां यूरोपीय लोग इसके अपवाद अवश्य रहे हैं। ब्रितानी काल में हम राजनीतिक स्तर पर छिन्न-भिन्न अवश्य रहे, परन्तु हमारी संस्कृति नहीं बदली, हमारे आचार-संहिता से सहिष्णुता और मानवता नहीं नष्ट हुई।
सदियों पहले जब कोलम्बस और वास्कोडिगामा समुद्र नापने में सफल हुए, उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव की खोज कर ली गई, उसके पहले ही सोने की चिड़िया कहलाने वाले भारत के विद्वानों ने दक्षिण-पूर्वी एशिया, चीन, मध्य एशिया और अरब देशों में अपने ज्ञान का प्रकाश फैला दिया था, साथ ही यह संभावना भी व्यक्त कर दी थी कि पृथ्वी गोल है। विश्व का कोई भी देश, संस्कृति व समान किसी देश की संस्कृति, समाज को तभी कुछ दे सकता है जब वह बौद्धिक रुप से, सांस्कृतिक पक्ष से और नैतिक तौर पर अन्यों से सबल हो। यही कारण है कि पुर्नजागरण काल के बाद यूरोप ने पूरे विश्व को वैज्ञानिक प्रधानता के कारण भौतिक संसाधनों की श्रृंखला उपलब्ध कराई। निश्चित तौर पर भारत सदियों से बौद्धिकता का परचम फहराता रहा है, इसीलिए भारत ने धर्म, अर्थव्यवस्था, समाज, राजनीतिक व्यवस्था, विज्ञान आदि में विश्व को बहुत कुछ दिया है।
भारतवर्ष एक ऐसा देश है जहां सभ्यता ने सर्वप्रथम जन्म लिया। लोकतन्त्र की जन्म स्थली वैशाली भारत में ही है। वेद, वेदांत, योग, ध्यान, आयुर्वेद, खगोलीय गणना, ज्योतिष का जन्म स्थान भी भारत ही है। भारत में सिर्फ विविध धर्म व संस्कृतियों का ही समागम नहीं है। बल्कि यहां अनेक ऐसे रत्नों ने जन्म लिया, जिन्होंने विश्व के कई क्षेत्रों में अपनी सुविधाएं प्रदान की। भारतीय संस्कृति ने अपनी शुद्ध-प्रबुद्ध चेतना से सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय जैसे सूत्र वाक्य आप्लावित किए है।
विश्व के दर्शन ने भारत से मध्यम मार्ग का रास्ता सीखा, जिसका परिणाम है कि आज कोई भी देश अतिवादी दृष्टिकोण नहीं अपनाता। वह जीवन के सार मध्यम मार्ग पर ही बल देता है। भारतीय दर्शन से सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य का पालन पूरे विश्व ने जाना तथा दिग्नांग के तर्कवाद को विश्व ने किसी निर्णय तक पहुंचने के लिए अपनाया सार्थक माना। विश्व शान्ति के लिए ‘पंचशील सिद्धान्त’ भारत की देन है जो आज सर्वाधिक प्रासंगिक हैं संयुक्त राष्ट्र संघ का द्विराष्ट्र सिद्धान्त पर कोई सन्धि पंचशील के सिद्धान्त के आधार पर ही होती है।
बीते युग में विश्व ने भारत से धर्म के क्षेत्र में सर्वाधिक ज्ञान प्राप्त किया। छठीं शताब्दी ईसा पूर्व में स्थापित बौद्ध धर्म ने हीनयान तथा महायान मतों के रुप में दक्षिण-पूर्वी एशिया, चीन, मध्य एशिया, अफगानिस्तान, तिब्बत, कोरिया, जापान व श्रीलंका को प्रभावित किया। डॉ0 राधाकमल मुकर्जी ने सर्वप्रथम अपनी पुस्तक ”दी फण्डामेन्टल यूनिटी ऑफ इण्डिया“ में ”वृहत्तर भारत“ शब्द का प्रयोग किया। इससे तात्पर्य दक्षिण-पूर्व के उपनिवेशों यथा जावा, मलाया, सुमात्रा, वर्मा, लंका, बोर्नियो, कम्बोडिया, चम्पा, बाली आदि से था। जहां भारत ने अपने उपनिवेश स्थापित किए थे एवं भारतीय संस्कृति (Indian Culture) का साम्राज्य स्थापित किया था। उसे स्थूल रुप से वृहत्तर भारत या भारत का सांस्कृतिक साम्राज्य भी कह सकते है। साथ ही सुमात्रा, जावा, बाली में वैदिक धर्म का प्रभाव आज भी देखने को मिलता है। बल्कि राष्ट्र की भौगोलिक सीमा से परे भारतीय संस्कृति ने ”वसुधैव-कुटुम्बकम्“ का संदेश दिया है।
यही कारण है कि मलेशिया, थाइलैण्ड, कंबोडिया जैसे देशों पर भारतीय संस्कृति (Indian Culture) का प्रभाव है। वहां रामकथा ने मानव मन पर गहरी छाप छोड़ी है। जापान में भवन निर्माण हेतु भूमि खनन से पहले ‘शिन्तो धर्म’ की एक रस्म अदा की जाती है जो हमारे ही भूमि पूजन जैसी है। इंडोनेशिया की वायुसेना कंपनी का नाम ‘गरुड़’ है। वहां प्रचलित राजभाषा ‘बहाशा’ कहलाती है, जिसमें संस्कृत के शब्द समाहित है। वहां रक्षा मंत्रालय ‘युद्ध ग्रह’ कहलाता है, उसके भव्य प्रवेश द्वार पर लिखा है-‘चतु धर्म, एका कर्म’।’ उसी सड़क के किनारे पर खेल-मंत्रालय है, जिसका नाम ‘क्रीडा भक्ति’ है। इतना ही नहीं इंडोनेशिया के बड़े नोटों पर गणेश जी का चित्र छपता है जो भारतीय संस्कृति की छाप है।
भारतवर्ष ने सर्वप्रथम ‘संख्या पद्धति’ को जन्म दिया। बाद में भारतीय अंकों का स्थान रोमन अंकों ने ले लिया।
शून्य तथा दशमलव पद्धति का सर्वप्रथम ज्ञान भारतीयों ने ही विश्व में फैलाया। शून्य का आविष्कारक आर्यभट्ट थे। आर्यभट्ट ने ग्रहों नक्षत्रों की स्थिति की गणना की थी। सूर्यग्रहण तथा चंद्रग्रहण का पता लगाया था। अनुमानों के आधार पर उन्होंने पृथ्वी की परिधि को मापा था, जो आज भी सही मानी जाती है। उन्होंने ही सर्वप्रथम यह रहस्योद्घाटन किया था कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाती है और सूर्य स्थिर है। पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा करने में लगा समय ज्ञात करने वाले वैज्ञानिक का जन्म भारत में ही हुआ था, जिनका नाम ‘भास्काचार्य’ था। पृथ्वी को सूर्य की परिक्रमा करने में समय लगता था-365.25856484 दिन।
'π' का मान ज्ञात करने वाले बौद्धायन थे और उन्होंने ‘पाइथोगोरस प्रमेय’ भी प्रतिपादित की। गणित के क्षेत्र में भारत के प्रयास विशेष रुप से उल्लेखनीय रहे हैं। अंकगणित, त्रिकोणमितीय आदि का जन्मदाता भारतवर्ष ही है। अमेरिका के रत्न संस्थान, 1896 के अनुसार भारत विश्व का एकमात्र हीरो का स्त्रोत था।
भारतीय संगीत का प्रारम्भ वैदिक काल से भी पूर्व का है। पंडित शारंगदेव कृत ”संगीत रत्नाकर“ ग्रन्थ में भारतीय संगीत की परिभाषा ”गीतम, वादयम् तथा नृत्यं त्रयम संगीत मुच्यते“ कहा गया है। गायन, वाद्य वादन एवम् नृत्य; तीनों कलाओं का समावेश संगीत शब्द में माना गया है।
भारतीय चित्रकला की सबसे शुरुआती कृतियाँ पूर्व ऐतिहासिक काल में शैलचित्रों के रुप में थी। भीमबेटका जैसी जगहों पर पाये गये पेट्रोग्लिफ जिनमें से कुछ प्रस्तर युग में बने थे।
यू.एस.ए. की संस्था ने यह सिद्ध किया कि विश्व को ‘बेहतर संचार’ सुविधा प्रदान करने वाला मारकोनी नहीं बल्कि, भारत के प्रोफेसर जे.सी. बोस थे।
सर्वप्रथम बांध का निर्माण भी भारतवर्ष के सौराष्ट्र प्रान्त में हुआ। विश्व का सर्वाधिक बौद्धिक खेल शतरंज भारत की ही देन है।
विश्व के सबसे बड़े और सबसे पहले विश्वविद्यालय की स्थापना सर्वप्रथम भातवर्ष में हुई। जो तक्षशिला विश्वविद्यालय के नाम से विख्यात हुआ, यहां विश्व के 10,500 से भी अधिक विद्यार्थी 60 से भी अधिक विषयों की शिक्षा प्राप्त करने के लिए आते थे। चौथीं सदी ईसा पूर्व में नालन्दा विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। फाह्मान, ह्वेनसांग तथा इत्सिंग जैसे चीनी यात्रियों ने बौद्ध धर्म का अध्ययन करने के लिए भारत की यात्रा की तथा यहां के विश्वविद्यालयों में अध्ययन किया और साहित्यिक सामग्री ले गये।
चिकित्सा के क्षेत्र में सर्वप्रथम 2500 वर्ष पूर्व आयुर्वेद का जन्म भारतवर्ष में हुआ। आयुर्वेद के जन्मदाता चरक थे। सर्जरी के आविष्कार सुश्रुत थे जो भारतभूमि के ही पुत्ररत्न थे। योग का प्रभाव भी विश्व में बढ़ा है। भारत के प्रभाव के कारण ही आज अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाया जाता है। महर्षि महेश योगी अमेरिका में सफल हैं लेकिन भारत में नहीं। केट विसंलेट जैसी सुप्रसिद्ध अभिनेत्री को ध्यान तथा योग के लिए भारत उपयुक्त स्थान लगता है। उनका मानना है कि योग स्वास्थ्य तथा सौन्दर्य के लिए भारत की अमूल्य देन है।
संस्कृत भाषा का जन्म सर्वप्रथम भारतवर्ष में हुआ जो कि सभी यूरोपियन भाषाओं की जननी कही जाती है। विश्व की एक विख्यात पत्रिका फोर्ब्स के अनुसार ‘कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर’ के लिए सबसे उपयुक्त भाषा संस्कृत है।
‘समुद्री यात्रा’ की कला का जन्म भी 6000 वर्ष पूर्व सिन्ध-नदी में हुआ। यह शब्द संस्कृत के ‘नवगतिह’ शब्द से लिया गया है शब्द नेवी भी संस्कृत शब्द 'Nou' से लिया गया है।
5000 वर्ष पूर्व जब अन्य सभ्यतायें केवल जंगलों तक सीमित थी जब भारत में हड़प्पा सभ्यता का जन्म हुआ।
यदि हम इतिहास के पन्नों को पलट कर देखे तो ज्ञात होता है कि प्राचीन काल से ही भारत एक वैभवशाली देश रहा है इसकी समृद्धता तथा विशिष्ट संस्कृति सदैव से विश्व के विभिन्न देशों के आकर्षण का केन्द्र रही है। भारतवर्ष की सभ्यता एवं संस्कृति ने विश्व को इतना अधिक प्रभावित किया है कि अनेक देशों के लोग अपने देश को छोड़ भारतीय नागरिकता प्राप्त करने के लिए लालायित रहते है।
भारतवर्ष के तमाम वैज्ञानिकों, प्रतिभाशाली छात्रों व चिकित्सकों को विदेश के लोगों ने अपनी समस्याओं को सुलझाने के लिए आमंत्रित किया है। आज भारत के तमाम प्रतिभाशाली डॉक्टर, इंजीनियर्स, वैज्ञानिक विश्व के कई देशों में प्रतिस्थापित है।
भारतीय त्योहारों एवं उत्सवों का विश्व में इतना ज्यादा महत्व है कि दुनिया के कई देशों में होली व दीपावली जैसे त्योहार मनाये जाते हैं, ब्रिटेन की संसद व अमेरिका के राश्ट्रपति भवन में भी दीपावली के दिन दिये जलाये गये।
भारतीय परिधान आज विश्व के तमाम देशों में अपनी पहचान बना चुके हैं। भारतीय साड़ी, लहंगा चुन्नी, सूट आदि वस्त्रों की विदेशों में बहुत मांग है। अतः भारत से ये वस्त्र बड़ी मात्रा में विदेशों को निर्यात किये जाते है।
भारतीय वैज्ञानिकों ने नासा व अन्य अंतरिक्ष केन्द्रों में तमाम सारे अंतरिक्ष यानों को आकाश में सफलता पूर्वक स्थापित करने में सफलता प्राप्त की है।
विश्व राजनीतिक व्यवस्था को भारत की देन गुटनिरपेक्षता आंदोलन, अंतर्राष्ट्रीयतावाद, गणतंत्रवाद, धर्मनिरपेक्षता और पंचशील का सिद्धान्त है। जब पूरा विश्व प्रथम विश्व युद्ध के थपेड़े खा रहा था उसके पहले ही रवीन्द्र नाथ टैगोर ने ‘अंतर्राष्ट्रीयतावाद’ का सिद्धान्त दिया था। उनका यह सिद्धान्त कालान्तर में राष्ट्र संघ तथा संयुक्त राष्ट्र संघ में परिणत हो गया।
विश्व को भारत की देन के रुप में गुट निरपेक्ष आंदोलन को देखा जाता है। भारतीय प्रधानमन्त्री नेहरु, मिस्त्र के प्रमुख नासिर और यूगोस्लाविया के प्रधान टीटों के प्रयासों का नतीजा गुट निरपेक्ष आंदोलन है जो शीतयुद्ध काल में विश्व शान्ति तथा संतुलन बनाए रखने में महान कारक रहा।
आर्थिक क्षेत्र में भारत प्रारम्भ में सूती वस्त्र व मसालों की पूरे विश्व को आपूर्ति करता था। लेकिन आज भारत चाय, आभूषण, इंजीनियरिंग सामान एवं साफ्टवेयर निर्यात के क्षेत्र में अग्रणी है। भारत के तमाम खाद्य अनाजों की भी विश्व में बड़ी मांग रहती है अतः यहां से गेहूँ, चावल, बाजरा, चाय आदि का निर्यात विश्व के तमाम देशों को किया जाता है। सस्ता श्रम उपलब्ध कराकर भारत आउटसोर्सिंग का बिन्दु बना हुआ है। पूर्णतः पूंजीवादी या समाजवादी अर्थव्यवस्था के स्थान पर मध्यम मार्ग अपनाते हुए एक संतुलित ‘मिश्रित अर्थव्यवस्था’ की परिकल्पना भारत ने ही प्रस्तुत की।
प्राचीन काल से ही भारत की विश्व को आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक संस्थाओं और नैतिक संस्कारों की स्थापना के रुप में देन रही है, लेकिन ब्रिटिश उपनिवेश बन जाने के बाद भारत की स्वतन्त्र अभिव्यक्ति, स्वतन्त्र उत्पादन क्षमता धीरे-धीरे लुप्त हो गयी और विश्व को ज्ञान देने वाला राष्ट्र पश्चिमी सभ्यता का वाहक देश बन गया। सूचना प्रौद्योगिकी के जालों में बिंधकर मानव एक साझी-सांस्कृतिक विरासत का भागीदार बन रहा है जिसे वैश्वीकरण के सामाजिक प्रभाव का फल भी माना जा सकता है। विकास गतिशीलता है और गतिशीलता सदैव परिवर्तन की वाहक रही है। परन्तु जड़ों से कटा हुआ परिवर्तन विकास का नहीं वरन् विध्वंस का वाहक होता है।
हमारी भारतीय संस्कृति (Indian Culture) विश्व के तमाम देशों में अपनी एक अलग पहचान बनाये हुए है। यह सिर्फ सभ्यता व संस्कृति में ही अग्रणण्य नहीं है बल्कि तमाम क्षेत्रों में अपनी अलग पहचान बनाये हुए है। जिसमे मनुश्य के चरित्र निर्माण से लेकर उसके जीवन के समस्त रचनात्मक पहलुओं पर न केवल गम्भीरता के साथ विचार किया गया अपितु आदर्षों एवं सुकृत्यों द्वारा उन्हें मूर्त रुप में परिर्णित भी किया गया।
हम पुनः शक्तिशाली बन रहे हैं और भाषाई, सांस्कृतिक, तकनीकी, औद्योगिक आधार पर विश्व का नेतृत्व करने के लिए तैयार हैं।
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