विश्व के महानतम क्रांतिकारियों के सिरमौर विनायक दामोदर सावरकर के बारे में देश की नई पीढ़ी नहीं जानती, इसलिए उनके यशोमयी जीवन पर भी प्रकाश डालना जरूरी है। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के अग्रिम पंक्ति के सेनानी और प्रखर राष्ट्रवादी नेता विनायक दामोदर सावरकर न केवल स्वाधीनता संग्राम के तेजस्वी सेनानी थे अपितु महान क्रांतिकारी, चिंतक, सिद्धहस्त लेखक, ओजस्वी वक्ता, कवि और दूरदर्शी राजनेता भी थे। वह एक ऐसे इतिहासकार थे जिन्होंने हिंदू राष्ट्र की विजय के इतिहास को प्रामाणिक ढंग से लिपिबद्ध किया। भारत की स्वतंत्रता के लिए किये गये संघर्षों में उनका नाम बेहद महत्वपूर्ण रहा हैं। युवावस्था में वे नई पीढ़ी के नेताओं बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय से काफी प्रभावित थे। वे इन लोगों से प्रेरित होकर अंग्रेजों के खिलाफ चलाये जा रहे स्वदेशी आंदोलन में खूब बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। उनके दर्शन में उपयोगितावाद, तर्कवाद, सकारात्मकवाद, मानववाद, सार्वभौमिकतावाद, व्यावहारिता एवं यथार्थ के तत्व थे।
वीर सावरकर उग्र राष्ट्रवादी तथा वीर क्रांतिकारी थे। बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक दशक में उन्होंने साहसिक राजनीतिक कार्यों द्वारा अमर ख्याति प्राप्त कर ली। उनका जन्म 28 मई 1883 में नासिक जिला के भंगूर नामक गांव में हुआ था। किशोर काल में उन्होंने पुणे में भाषण देते हुए नारा दिया- स्वतंत्रता साध्य और सशस्त्र क्रांति साधन है। उन्होंने विदेशी माल जलाने का अभियान चलाया। इस पर उन्हें कालेज से निष्कासित कर दिया गया। इसके बाद वह बम्बई चले गए। इसी दौरान उन्हें यह जानकारी मिली कि एक राष्ट्रभक्त श्यामजी कृष्ण वर्मा लंदन में भारत की आजादी का अभियान चला रहे हैं, वह भारत के राष्ट्र- भक्त युवकों को ब्रिटेन में अध्ययन प्राप्त करने के लिए छात्रवृत्ति भी देते है। लोकमान्य तिलक की सिफारिश पर वह छात्रवृत्ति पाकर लंदन चले गए। वहां पर श्यामजी कृष्ण वर्मा द्वारा संचालित इंडिया हाऊस क्रांतिकारी तैयार करने का केंद्र बना था वहीं सावरकर भी ठहरे।
वीर सावरकर का क्रांतिकारी दर्शन बड़ा ही सारगर्भित था। उनका मत कई मुद्दों पर भारतीय संस्कृति, वेदों या भगवद्गीता से प्रभावित प्रतीत होता है। वह समाज में व्याप्त शोषण एवं अंग्रेजों की दासता के खिलाफ निरंतर आवाज बुलंद करते रहे। वह रूसी क्रांतिकारियों से ज्यादा प्रभावित थें। उनका मानना था कि हमें शांति स्थापना नहीं करनी चाहिए बल्कि अन्याय को समाप्त करके न्याय की स्थापना करनी है। अंग्रेजों के सामने झुकने की अपेक्षा वे उनके प्रतिकार करने के सदैव समर्थक रहे। अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों एवं भारत माता को स्वतंत्रता दिलाने हेतु उन्होंने बी.ए. उत्तीर्ण करने के बाद ‘अभिनव-भारत‘ नामक संगठन का गठन किया। इस संस्था का उद्देश्य युवकों को सशस्त्र क्रांति हेतु तैयार करना जिसका कार्य उन्होंने बखूबी निभाया। उन्होंने अनेक स्थानों पर जाकर युवकों को प्रेरित किया तथा उनको संगठित भी किया। जब एडवर्ड सप्तम के अभिषेक के उपलक्ष्य में अनेक स्थानों पर उत्सव मनाया जा रहा था तो इस अवसर पर विभिन्न जगहों पर उन्होंने इसके विरोध में पोस्टर लगाकर जनता को जागृत करने का प्रयास किया। उन्होंने पोस्टरों पर लिखा था ‘‘भारतीयों तुम लोग एक ऐसे राजा का अभिषेक उत्सव मना रहे हो जिसने तुम्हारी भूमि को दास बनाया हुआ है। यह उत्सव दासता का उत्सव हैं।‘‘
जब कांग्रेस के अधिवेशन में ब्रिटिश राष्ट्रीय गीत ‘गॉड सेव द किंग‘ गाया जाता था उस वक्त सावरकर ब्रिटिश सरकार का तख्ता पलटने के लिए सशस्त्र क्रांति की तैयारी में जुटे हुए थे। जब शीर्ष कांग्रेसी नेता ब्रिटिश सरकार को सहयोग देकर केसर हिंद का पदक प्राप्त करने में गौरव महसूस कर रहे थे तब सावरकर लंदन में देश की आजादी के लिए प्राण हथेली पर रख कर क्रांतिकारियों को देश पर मर-मिटने के लिए तैयार कर रहे थे।
एक क्रांतिकारी के साथ-साथ सावरकर एक शिक्षाविद्, इतिहासकार, पत्रकार तथा समाज सुधारक भी थे। वह एकमात्र ऐसे क्रांतिकारी थें, जिन्होंने उच्चकोटि के काव्य, नाटक, उपन्यास, कहानी, निबंध आदि के अलावा इतिहास और राजनीति पर पांडित्यपूर्ण ग्रंथों की रचना की। उन्होंने भारतीय समाज में व्याप्त अशिक्षा को दूर करने हेतु लगातार प्रयास किया। अपने कारावास के समय में उन्होंने जेल में बंद कैंदियों को प्रौढ़ शिक्षा दी। सावरकर उन लेखकों में से थे, जिन्होंने सबसे पहले इस मत का प्रतिपादन किया था कि 1857 का तथाकथित सिपाही विद्रोह वास्तव में ‘भारतीय स्वतंत्रता का प्रथम संग्राम‘ था। उन्होंने ‘द इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस‘ लिखकर 1857 के भारतीय विद्रोह पर विदेशी इतिहासकारों के मतों का खंडन किया।
उनके मन में उस संघर्ष के योद्धाओं के लिए अतिशय श्रद्धा और प्रशंसा की भावना थी। सावरकर निरपेक्ष अहिंसा के पथ के कटु आलोचक थे और उसे भिखारियों का पंथा मानते थे। सावरकर ने शस्त्र बल के विषय में इस देश को बताया कि जब शास्त्रधर्म का पालन इस देश में होता रहा है तब तक किसी भी विदेशी आक्रांता का साहस इस देश की सीमाओं का अतिक्रमण करने का नहीं हुआ। उन्होंने कहा कि हमें हमारी स्वतंत्रता के हरण पर विचार किया जाना अपेक्षित है और यदि हम इसका उत्तर तलाशने का प्रयास करते हैं तो हमें पता चलता है कि शस्त्र बल के प्रति कही हमारी शिथिलता ही हमारे परतंत्रता का कारण है जिसका निवारण किया जाना जरूरी है।
वीर सावरकर न केवल भारतीयों बल्कि तत्कालीन भारतीय सैनिकों में भी क्रांति के प्रचार के वाहक बने। उन्होंने भारतीय सेना में सिख, जाट तथा डोगरा सैनिकों के घरों के पते ज्ञात कर उनको क्रांति के लिए प्रेरित करने हेतु कई बार पत्र लिखे। तथा उनको क्रांति एवं देशभक्ति के लिए निरंतर प्रेरित करते रहे। आजादी के पूर्व एवं आजादी के उपरांत तक वे निरंतर देश की एकता एवं अखण्डता के लिए कार्य करते रहे। उन्होंने अपने ढंग से तत्कालीन नेतृत्व को सजग किया। उन्होंने कहा कि हमें आधुनिक विदेशी ताकतों से लड़ने के लिए बुद्ध के मार्ग त्यागकर देश में क्रंाति लानी होगी और शस्त्रों से हमला करना होगा।
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने आजाद हिंद फौज के सृजन के अवसर पर फौजियों को संबोधित करते हुए कहा था कि वह जब बम्बई में सावरकर से मिले थे तो उन्होंने उन्हें यह राय दी थी कि अंग्रेजों की जेल में सड़-सड़ कर मरने की बजाय होगा कि देश से फरार होकर विदेश जाया जाए और वहां पर भारत से अंग्रेजों को मार भगाने के लिए सेना भर्ती की जाए। उन्हीं के निर्देश पर आजाद हिंद फौज बनाई गई है। शहीद भगत सिंह ने अदालत में स्वीकार किया था कि देशभक्ति और वतन पर बलिदान करने की प्रेरणा उन्हें सावरकर से ही मिली थी।
वीर सावरकर ने हिन्दू राष्ट्र की सांस्कृतिक तथा अवयवी एकता को स्वीकार किया। वे हिन्दू पुनरुत्थान के आदर्श पुरूष थे और हिन्दुत्व की सांस्कृतिक श्रेष्ठता में विश्वास करते थे। उन्होंने हिन्दू समाज के नैतिक तथा सामाजिक पुनरूत्थान पर बल दिया। सावरकर का ‘हिन्दुत्व‘ 1923 में प्रकाशित हुआ था। यह आधुनिक हिन्दू राजनीतिक विचारधारा की प्रसिद्ध पुस्तक हैं। सावरकर को हिन्दू एकता में पूर्ण विश्वास था। उनका कहना था कि हिन्दुत्व तथा राष्ट्रवाद के बीच परस्पर विरोध नहीं हैं। सावरकर का हिन्दुत्व कोई संकीर्ण पंथ नहीं था। वह बुद्धिवादी तथा वैज्ञानिक था। वह मानवतावाद तथा सार्वभौमवाद के भी विरुद्ध नहीं था। यद्यपि उनके हृदय में देश के लिए अगाध प्रेम था, फिर भी वे जीवन को हिन्दू दृष्टिकोण से ही देखते रहे। सावरकर ने हिन्दुत्व तथा हिन्दूवाद में जो भेद किया है, वह राजनीतिक सिद्धांत की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। हिन्दूवाद का संबंध मुख्यतः धर्म तथा धर्मविद्या से हैं। हिन्दुत्व एक राजनीतिक धारणा है और उसके अंतर्गत सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक सभी पहलू आ जाते हैं। सावरकर ने जिस हिंदुत्व की व्याख्या की है, वह केवल अवयवी सामाजिक-राजनीतिक एकता की धारणा नहीं हैं। बल्कि उसमें राष्ट्रवाद के मुख्य तत्त्व भी सम्मिलित हैं। वह एक कार्यक्रम भी है, जिसमें हिन्दुओं को एक-दूसरे से पृथक् करने वाली सभी दीवारों को ध्वस्त करने का उद्देश्य निहित हैं।
सावरकर हिंदू समाज की समरसता के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने पंढरपुर के विख्यात बिढोबा मंदिर के द्वार 1922 ई0 में ही हरिजनों के लिए खुलवा दिए थे। रत्रागिरि में उन्होंने पतित पावन मंदिर स्थापित किया, जिसका पुजारी एक हरिजन को बनाया जिसकी चरण वंदना ब्राह्मण करते थे। यह परम्परा आज भी जारी है। वह महान बुद्धिवादी थे। उन्होंने गौ को माता मानने से साफ इन्कार कर दिया। वह फलित ज्योतिष, व्रत-उपवास, कर्मकांडी पाखंड, जन्मना वर्ण व्यवस्था, अस्पृश्यता, स्त्री-पुरुष समानता आदि प्रश्नों पर ऐसे बेबाक और क्रांतिकारी विचार व्यक्त किए हैं जोकि किसी पुरातनवादी हिंदू के गले से नहीं उतर सकते। उन्होंने यह वसीयत की थी कि उनका अंतिम संस्कार बिजली के शव दहन गृह में किया जाए और इससे पूर्व या पश्चात् कोई भी धार्मिक अनुष्ठान या हिंदू संस्कार न किया जाए। वह श्राद्ध के भी सख्त विरोधी थे। जो लोग उन्हें बदनाम कर रहे हैं उन्होंने सावरकर साहित्य का अध्ययन मनन नहीं किया हैं।
सावरकर में भारतीयों को जगाने की अद्भुत शक्ति थी उन्होंने अपनी हर बात देशवासियों के सामने बड़े तार्किक एवं प्रामाणिक ढंग से रखी। उनका मकसद था कि जनता के अंदर व्याप्त भय को दूर किये बिना उन्हें प्रभावित एवं अपने पक्ष में नहीं कर सकते। उन्होंने छोटी-से-छोटी बातों को अच्छे ढंग से प्रस्तुत किया। उनका मकसद भारतीयों की दासता को बेड़ी से जगाकर स्वतंत्रता की अलख जगाना था। भारतीय समाज में व्याप्त बुराइयों को वह भारतीयों की अवनति का कारण मानते थे। अस्पृश्यता की भावना को लेकर उन्होंने कहा था ‘‘अस्पृश्यता हमारे समाज और देश के लिए मस्तिष्क पर कलंक के समान हैं। हमारे ही हिंदू समाज के धर्म के राष्ट्र के करोड़ों हिंदू, बंधु, बांधव इससे अभिशप्त हैं। हम अपने ही वक्त के बंधुओं को अस्पृश्य मानते हैं और उन्हें उतना ही अपने निकट नहीं आने देते। यह विचार हमारे समाज की हड्डियों में प्रवेश कर हमें चूस रहा है।‘‘
उन्होंने 1906 से 1910 तक इंग्लैंड में अध्ययन किया और साथ ही वे क्रांतिकारी कार्यकलाप में भी संलग्न रहे। इंग्लैंड में सावरकर की श्रीमति भीकाजी कामा, लाला हरदयाल, मदनलाल धीगंड़ा जैसे क्रांतिकारियों से भेट हुईं। 1910 में लंदन में सरकार विरोधी गतिविधिया तथा नासिक में हुए ‘जैक्सन हत्याकांड‘ के आरोप में उन्हें पचास वर्ष के कारावास का दंड देकर अंडमान जेल भेज दिया गया था, जहां उन्होंने अनेक वर्ष बिताये। भारत लाने के दौरान वे फ्रांस के निकट समुद्र में कूद कर सिपाहियों की गोलियों की बौछार के बीच तैरकर फ्रांस जा पहुंचे । अंग्रेजों ने अंतरराष्ट्रीय कानून के खिलाफ धोखें से फ्रांस से उन्हें गिरफ्तार किया। 1923 में उन्हें अंडमान से लाकर रत्नागिरि की जेल में बंद कर दिया गया। 10 मई, 1937 को उन्हें कारागार से मुक्त कर दिया गया। वे तिलक के लोकतांत्रिक स्वराज दल में सम्मिलित हो गये और बाद में हिन्दू महासभा की सदस्यता अंगीकार कर ली।
भारत के लिए पूर्ण स्वराज की मांग सर्वप्रथम वीर सावरकर ने ही की थी। पचास साल की कैद पाने वाले वह पहले और अकेले क्रांतिकारी थे। वह ऐसे पहले भारतीय बैरिस्टर थे, जिन्हें शिक्षा पूरी कर लेने और परीक्षा पास कर लेने के बावजूद उनके क्रांतिकारी विचारों के कारण डिग्री देने से इन्कार कर दिया गया था। वह ऐसे पहले लेखक थे, जिनकी पुस्तक पर देश के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम पर उसके प्रकाशन से पूर्व ही पाबंदी लगा दी गई थी। वह विश्व के पहले कैदी थे, जिन्होंने काला पानी की सैल्युलर जेल की काल कोठरी में जेल की दीवारों में 5000 पंक्तियां कविताओं की लिखीं और याद भी रखी। कालापानी जेल में अंग्रेजों ने किसी को पांच वर्ष से ज्यादा नहीं रखा, लेकिन सावरकर को दस वर्ष रखा, आठ साल तक परिवारजनों से नहीं मिलने दिया, इसी जेल में उनके भाई गणेश भी बंद थे, पर दोनों को एक दूसरे का पता न था। वह पहले कैदी थे, जिनकी रिहाई के लिए हेग की अंतर्राष्ट्रीय अदालत में मुकद्दमा चला। 1921 के बाद उन्हें 1926 तक रत्नागिरी जेल में और 1937 तक नजरबंदी में यानी सर्वाधिक 27 वर्ष जेल या नजरबंदी में रहने वाला सावरकर जैसा क्रांतिकारी क्या विश्व में दूसरा हुआ है?
उनके साथ अंडमान की जेल में हुआ जुल्म विश्व के अमानवीय जुल्मों में शुमार हैं। उन्हें जिस कोठरी में रखा, उसी में शौच भी करना होता था। खाने को उबले चावल का चूरा और घास व कीड़ों से युक्त सब्जी होती थी। सावरकर का मनोबल न टूटने पर उन्हें छह माह तन्हाई में, सात दिन बेड़ियों में हाथ छत से बांधकर खड़ा रखा और दस दिन त्रिभुज के आकार के लट्ठों में पैर फैलाकर बांधकर रखा। उनसे बैल की तरह जुआ खींचकर प्रतिदिन तीस किलो तिल का तेल निकलवाया जाता। माह में अमूमन तीन कैदियों को सावरकर की नजरों के सामने फांसी देते थे। इन हालातों में अनेक कैंदियों ने आत्महत्या कर ली, मर गए या पागल हो गए। वीर सावरकर को अंग्रेज तोड़ नहीं पाए।
सावरकर के विरोधी उन्हें साम्प्रदायिकता और गांधी जी का हत्यारा बताते हैं हालांकि सच्चाई यह है कि वह क्योंकि गांधी जी की विचारधारा के विरोधी थे, इसलिए उन्हें पुलिस ने गांधी हत्याकांड में फंसा दिया था मगर अदालत ने उन्हें निर्दोंष ठहराते हुए साफ बरी कर दिया। यह जरूर है कि महात्मा गांधी द्वारा चलाए गए खिलाफत आंदोलन का उन्होंने विरोध किया था क्योंकि वह इसे मुस्लिम तुष्टीकरण मानते थे। वह देश के विभाजन की मांग करने वाली मुस्लिम लीग के जरूर खिलाफ थे। सम्पूर्ण सावरकर वाड़गमय में ढूंढने से भी कहीं कोई पंक्ति ऐसी नहीं मिलती, जिसमें मुसलमानों के उत्पीड़न, प्रताड़ि़त करने का उल्लेख हो। जहां तक साम्प्रदायिकता का प्रश्न है सावरकर पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने कहा था कि सिंधु से लेकर सागर तक के भू-भाग, भारत में रहने वाला हर व्यक्ति जोकि इस देश को पितृ-भू और पुण्य-भू मानता है, वह हिंदू हैं।
राजगोपालाचारी ने टिप्पणी की थी कि सावरकर राष्ट्रीय नायक और साहस, शौर्य और देशभक्ति के प्रतीक थे। सुभाषचंद्र बोस चाहते थे कि 1937 में जेल से मुक्त होने पर वह कांग्रेस में आ जाए। स्वयं इंदिरा गांधी ने वीर सावरकर राष्ट्रीय स्मारक समिति के सचिव को पत्र लिखकर टिप्पणी की थी ‘‘ब्रिटिश सरकार के खिलाफ दुस्साहसी विद्रोह के कारण वीर सावरकर का स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अपना एक महत्त्वपूर्ण स्थान हैं। मैं भारत के इस विलंक्षण सपूत की जन्म शताब्दी के जन्म समारोह की सफलता की कामना करती हूँ।‘‘ जनरल करियप्पा ने चीन के हाथों पराजय के बाद कहा था कि अगर भारत ने सावरकर की सुनी होती और सैनिकीकरण की नीति अपनाई होती तो आज पराजय का बुरा दिन नहीं देखा होता। एस. ए डांगे जब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के अध्यक्ष थे तब उन्होंने कहा था कि सावरकर उपनिवेशवाद विरोधी महान क्रांतिकारी थे। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि ऐसे महान स्वतंत्रता सेनानी के प्रति कृतज्ञ होने के बजाय कुछ लोग कृतघ्नता भरी टिप्पणियां करते रहते हैं।
सावरकर आजादी के उपरांत तक देश की अखण्डता एवं संप्रभुता पर अपने विचार देते रहे। चीन एवं पाकिस्तान तथा अमेरिकी गुटों से घिरे हुए भारत को उन्होंने तभी परमाणु शक्ति संपन्न बनने का विचार दिया था। इस मामले पर उनका तत्कालीन सरकार से काफी विरोध भी रहा उनका मानना था कि ऐसे वक्त में जब सारे विश्व में शस्त्रीकरण एवं परमाणु संपन्न बनने की होड़ है तो हम पीछे नहीं रह सकते। उन्होंने कहा था कि ‘‘भारत के शासनाधिकारियों को यह अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए कि आज के युग में जिसकी सैन्य शक्ति है उसका राज सुरक्षित है‘‘ का सिद्धांत व्यावहारिक है और यह बाते आज के समय में पूर्णतया सच साबित होती नजर आ रही हैं।
दुख की बात तो यह है कि ब्रिटिश सरकार जब तक सत्ता में रहीं वह सावरकर को प्रताड़ित करती रहीं, आजादी के बाद दिल्ली के तख्त पर, जो भारतीय विराजमान हुए उन्होंने भी अपनी लीडरी चमकाने के लिए इस महान स्वतंत्रता सेनानी की घोर उपेक्षा की। जो लोग सत्ता में आए उन्होंने देश की स्वतंत्रता का श्रेय महात्मा गांधी और उनके शागिर्दों को देने के लिए देश के स्वाधीनता इतिहास को विकृत करने में कोई कसर न छोड़ी। चाटुकारों द्वारा रचित इतिहास में विनायक दामोदर सावरकर के योगदान की अवहेलना की गई। सावरकर कोई मामूली हस्ती नहीं थे। वह इस देश के महानतम सपूतों में से एक थें जिन्होंने देश और विदेश में देश की स्वतंत्रता की अलख जगाई। उनसे प्रेरणा लेकर हजारों क्रांतिकारियों ने देश की आजादी के लिए सर्वस्व होम कर दिया। सशस्त्र क्रांति का सिंहनाद करने वाले इन महान बलिदानी को क्यों भारत रत्न नहीं दिया गया। क्या इनका जुर्म सिर्फ यहीं था कि यह महान स्वतंत्रता सेनानी गांधी के अहिंसक आंदोलन से सहमत नहीं थे। क्या इनके जन्म दिवस या बलिदान दिवस पर सरकार ने कभी अवकाश घोषित किया है?
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