कश्मीर (Kasmir) वाकई भारत का मुकुट है। प्राक-ऐतिहासिक समय में यह नाग जाति के लोगों का एक बड़ा केन्द्र था। इस बात का सबूत यहां पर अनंतनाग और शेषनाग जैसी जगहों का अब भी बना होना है, पुराणों में इसे कश्यप ऋषि द्वारा झील को सुखा कर बसाया बताया गया है। सम्राट अशोक के काल में भी कश्मीर भारत का एक अंग था। राजतरंगिणी, जो कल्हण द्वारा 12वीं शताब्दी ई0 में लिखी गयी तब तक यहाँ पूर्ण हिन्दू राज्य रहा था। चौदहवीं शताब्दी में यहाँ मुस्लिम शासन आरम्भ हुआ। 1846 ई0 में लाहौर संधि के बाद अंग्रेजों द्वारा महाराजा गुलाब सिंह को गद्दी दी गई जो कश्मीर के स्वतन्त्र शासक बने। महाराजा के बड़े पुत्र महाराजा हरि सिंह 1925 ई0 में गद्दी पर बैठे, जिन्होनें 1947 ई0 तक शासन किया। तब मुस्लिम जनसंख्या 77 प्रतिशत थी। आधुनिक इतिहास में आजादी के 18 दिन पूर्व गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन ने देशी रियासतों को आजाद करते हुए छूट दी थी कि 15 अगस्त के पहले वे भारत या पाकिस्तान में से किसी भी देश को चुन लें। सन् 1947 से पहले जम्मू कश्मीर रियासत भारतीय उपमहाद्वीप का एक वृहत्तर क्षेत्र हुआ करती थी। आज यह दो हिस्सों में विभाजित है, जिसे हम ‘जम्मू और कश्मीर’ कहते हैं, उसे ही पाकिस्तान ‘गुलाम कश्मीर’ कहता है और जिसे हम ‘पाकिस्तान अधिग्रहीत’ कश्मीर (POK) कहते है उसे पाकिस्तान ‘आजाद कश्मीर’ कहता है भारतीय जम्मू-कश्मीर के तीन डिवीजन हैं। छह जिलों को मिलाकर कश्मीर डिवीजन बना, जबकि लद्दाख डिवीजन में कुल दो जिले है। इसी प्रकार पाकिस्तानी कश्मीर में भी तीन डिवीजन हैं। मीरपुर डिवीजन में तीन और मुजफ्फराबाद डिवीजन में दो जिले हैं। उत्तर में स्थित गिलगिट भी पाक अधिकृत कश्मीर का ही एक हिस्सा है, लेकिन उसे पाकिस्तान ने अपनी केन्द्रीय सरकार के प्रशासनिक दायरे में रखा है। चीन अक्साई चिन क्षेत्र पर प्रशासन करता है।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय जम्मू-कश्मीर रियासत की बागडोर हिन्दू महाराजा हरी सिंह के हाथ में थी। यदि वह चाहते तो अन्य रियासतों की तरह उसी समय अपनी रियासत का भी भारत में विलय कर देते और इस प्रकार तमाम समस्याएं हल हो जाती, लेकिन उन्हें अपनी स्वतंत्रता पंसद थी, इसलिए वह जम्मू-कश्मीर को एक स्वतन्त्र-राष्ट्र-राज्य के रूप में रखने के अपने विचार पर अड़े रहे। विलय की बात उन्हें तब समझ में आयी, जब कश्मीर की घाटी उनके हाथ से निकलकर पाकिस्तान के कब्जे में पहुंचने की आशंका से घिर गयी। शेख अब्दुल्ला उस समय भारत में विलय के पक्षधर थे। शेख ने जिन्ना की बात नहीं सुनी और उन्होनें जिन्ना के मुस्लिम लीग का समर्थन करने वाली कश्मीर में सक्रिय पार्टी ‘मुस्लिम कांफ्रेंस’ के समानान्तर ‘नेशनल कांफ्रेंस’ पार्टी बना ली। तत्पश्चात् 26 अक्टूबर, 1947 को महाराजा हरि सिंह ने “इंस्टूमेंट ऑफ एक्सेशन’’ पर हस्ताक्षर कर दिए। कश्मीर विलय से नियंत्रण रेखा के सामने मोर्चाबंदी के साथ संघर्ष विराम हुआ।
आखिरकार कश्मीर का भारत में विलय हो गया। 1 जनवरी 1948 को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाने से इसका वहाँ अन्तर्राष्ट्रीयकरण हो गया महाराजा हरी सिंह ने 4 मार्च, 1948 को शेख अब्दुल्ला को जम्मू-कश्मीर का प्रधानमंत्री नियुक्त किया। 9 जून, 1949 को महाराजा ने अपने पुत्र कर्ण सिंह को अपने सारे अधिकार दे दिये। इस बीच चूंकि कश्मीर एक सामान्य राज्य नहीं रह गया था, इसलिए भारत सरकार द्वारा इस राज्य को भारतीय संविधान की धारा-370 के तहत विशेष दर्जा प्रदान किया गया।
इस राज्य का अपना संविधान भी बनना था। युवराज कर्ण सिंह ने 1 मई, 1951 को एक उद्घोषणा जारी कर संविधान निर्मात्री सभा की स्थापना की। इस उद्घोषणा के तहत 40 हजार की जनसंख्या का एक चुनावी जिला बना। हर जिले से संविधान सभा के लिए प्रतिनिधि चुने गये। अक्टूबर 1951 में चुनाव हुए। सभी 75 सीटें शेख अब्दुल्ला की नेशनल कांफ्रेंस ने जीत ली। दिल्ली समझौते के बाद कश्मीर में पैतृक राजतंत्र की समाप्ति हो गयी। 21 अगस्त, 1952 को एक औपचारिक प्रस्ताव के जरिये राज्याध्यक्ष को ‘सद्र-ए-रियासत’ की पदवी दी गयी। कर्ण सिंह पहले ‘सद्र-ए-रियासत’ बने। 9 अगस्त, 1953 को कर्ण सिंह ने शेख अब्दुल्ला को प्रधानमंत्री पद से बर्खास्त कर गिरफ्तार करवा लिया। शेख अब्दुल्ला के विरोधी और उन्हीं के मंत्रिमण्डलीय सहयोगी बख्शी गुलाम मोहम्मद को नया प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया।
1953 से 1968 के बीच शेख अब्दुल्ला अधिकांश समय जेल में ही रहे। उन्हें गिरफ्तार और रिहा करने का सिलसिला 15 वर्षो तक जारी रहा। 1971 में तो उन्हें जम्मू-कश्मीर से निष्कासित ही कर दिया गया था। शेख की अनुपस्थिति के चलते जम्मू-कश्मीर नेशनल कांफ्रेस की बागडोर बख्शी गुलाम मोहम्मद के पास रही। 17 नवम्बर, 1956 को जम्मू-कश्मीर का संविधान विधान सभा द्वारा स्वीकार कर लिया गया। यह 26 जनवरी 1957 को पूर्ण प्रभाव में आ गया। इस संविधान में जम्मू-कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग माना गया। यह 26 जनवरी 1957 को पूर्ण प्रभाव में आ गया। इसे नये संविधान के तहत 1957 में जम्मू-कश्मीर विधानसभा के लिए पहला चुनाव हुआ। इस चुनाव में बख्शी गुलाम मोहम्मद की नेशनल कांफ्रेंस की जीत हुई।
1962 के विधानसभा चुनावों में भी 1957 के नतीजो को ही दोहराया गया। इस चुनाव में भी जीत बख्शी गुलाम के नेशनल कांफ्रेंस की ही हुई। 1957-62 के बीच बख्शी गुलाम की छवि में काफी ह्यस आया। उनके एक सहयोगी गुलाम मोहम्मद सादिक ने विद्रोह कर 1957 में ही ‘डेमोक्रेटिक नेशनल कांफ्रेस’ नाम की एक नयी पार्टी बना ली। अततः बख्शी गुलाम को इस्तीफा देना पड़ा, लेकिन वह अपने कट्टर समर्थक ख्वाजा शमशुद्दीन को 14 अक्टूबर, 1963 को प्रधानमंत्री नियुक्त कराने में सफल रहे। 27 दिसम्बर, 1963 को हजरत मकबरे से पैगम्बर मोहम्मद के ‘मोये-ये-मुकद्दस’ (पवित्र बाल) के गायब हो जाने की घटना ने समूचे कश्मीर को उद्वेलित कर दिया। 4 जनवरी, 1964 को यह पवित्र बाल मकबरे में वापस रख दी गयी थी, लेकिन इसके चलते शमशुद्दीन को त्याग पत्र देना पड़ा। 29 फरवरी, 1964 को गुलाम मोहम्मद सादिक जम्मू-कश्मीर के प्रधानमंत्री बने। शेख अब्दुल्ला को रिहा कर दिया गया और वापस श्रीनगर आ गए घाटी में उनका महान स्वागत हुआ नेहरू के साथ मिलकर कश्मीर समस्या को सुलझाने के लिए पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान के पास भेजा तब अब्दुल्ला पाकिस्तान में थे, तब 27 मई 1964 को नेहरू की अचानक मृत्यु की खबर आई। शांति की मृत्यु नेहरू के साथ हुई।
30 मई, 1965 से जम्मू-कश्मीर के संविधान में एक संशोधन के जरिये ’प्रधानमंत्री’ और ‘सद्र-ए-रियासत’ की पदवी बदलकर क्रमशः ‘मुख्यमंत्री’ और ‘राज्यपाल’ कर दी गयी। 1967 में जम्मू-कश्मीर विधानसभा के चुनाव हुए। गुलाम मोहम्मद सादिक इस समय कांग्रेस में थे। जीत कांग्रेस की ही हुई और मो0 सादिक मुख्यमंत्री बने। मो0 सादिक 1971 तक जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री रहे। 2 दिसम्बर, 1971 को उनकी मृत्यु हो गयी और कांग्रेस ने मीर कासिम को नया मुख्यमंत्री बनाया।
1971 के भारत-पाक युद्ध में भारत की विजय और एक अलग राष्ट्र के तौर पर बांग्लादेश का निर्माण,तथा शिमला समझौता का औपचारिक प्रभाव कश्मीर पर भी पड़ा। शेख अब्दुल्ला थोड़े नरम हुए। भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को भी कश्मीर में शेख अब्दुल्ला जैसे प्रभावी नेता की जरूरत महसूस हुई। 24 फरवरी, 1974 को श्रीमती गांधी और शेख अब्दुल्ला के बीच ‘कश्मीर समझौता’ हुआ। मीर कासिम ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और 25 फरवरी, 1974 को शेख अब्दुल्ला कांग्रेस के समर्थन से जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री बने। लेकिन श्रीमती गांधी और शेख की दोस्ती ज्यादा दिन नहीं चली। श्रीमती गांधी उन्हें कांग्रेस में शामिल कराना चाहती थी, जिसे शेख ने अस्वीकार कर दिया। 13 अप्रैल, 1975 को नेशनल कांफ्रेंस को पुनर्जीवित करके शेख उसके अध्यक्ष बन गये।
30 जून, 1977 को सम्पन्न जम्मू कश्मीर के विधानसभा चुनावों को कई लिहाज से विशेष महत्व है। तकरीबन सभी राजनीतिक विश्लेषक इसे एक निष्पक्ष चुनाव मानते है। जम्मू-कश्मीर की 75 में से 48 सीटों पर जीत हासिल कर इस चुनाव में शेख अब्दुल्ला की नेशनल कांफ्रेस ने पूर्ण बहुमत प्राप्त कर लिया। 9 जुलाई, 1977 का शेख अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री बन गये। 8 सितम्बर, 1982 को शेख अब्दुल्ला का निधन हो गया। उनके बाद उनके पुत्र डॉ0 फारूख अब्दुल्ला मुख्यमंत्री बने।
1983 में पुनः जम्मू-कश्मीर विधानसभा के चुनाव हुए। फारूख ने घाटी की 42 में से 39 सीटों पर जीत दर्ज की, जबकि जम्मू क्षेत्र की 32 में से 25 सीटें कांग्रेस के खाते में गयी। डॉ0 फारूख अब्दुल्ला मुख्यमंत्री बने। लेकिन कांग्रेस से उनकी दूरी इस हद तक बढ़ गयी कि उन्होंने कांग्रेस विरोधी भारतीय विपक्ष के एक साझेदार के रूप में आगे बढ़ना उचित समझा। श्रीमती गांधी को फारूख का यह नया तेवर पसंद नहीं आया। उन्होंने नेशनल कांफ्रेस के 13 विधायकों को तोड़कर गुलाम मोहम्मद शाह (जो गुलशाह के नाम से चर्चित थे) को मुख्यमंत्री बनाने की सिफारिश की। राज्यपाल बी.के. नेहरू ने श्रीमती गांधी की इस सिफारिश को नामंजूर करते हुए फारूख को बर्खास्त करने से इंकार कर दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि बी0के0 नेहरू वापस बुला लिये गये और उनकी जगह 26 अप्रैल, 1984 को जगमोहन को कश्मीर का राज्यपाल नियुक्त किया गया। जगमोहन ने वही किया, जो श्रीमती गांधी ने कहा। फारूख बर्खास्त कर दिये गये और गुल शाह मुख्यमंत्री बने।
1984 में श्रीमती गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने। इसके बाद गुल शाह भी कम दिन के ही मेहमान रहे। राजीव गांधी के कहने पर जगमोहन ने 7 मार्च, 1986 को गुल शाह को बर्खास्त किया और राज्य में राज्यपाल शासन लागू कर दिया गया। राज्यपाल शासन तब खत्म हुआ, जब 7 नवम्बर, 1986 को फारूख अब्दुल्ला के मुख्यमंत्रित्व में नेशनल कांफ्रेस तथा कांग्रेस की संयुक्त सरकार बनी। 23 मार्च, 1987 को जम्मू-कश्मीर विधानसभा का चुनाव हुआ। इन चुनावों में मुख्य मुकाबला कांग्रेस-नेशनल कांफ्रेंस गठबंधन और जमात-ए-इस्लामी समेत 13 पार्टियों को मिलाकर बने मुस्लिम युनाइटेड फ्रंट (एम.यू.एफ.) के बीच था। इस फ्रंट का निर्माण इस्लाम और कांग्रेस विरोध के आधार पर हुआ था। एम.यू.एफ को 30 प्रतिशत मत मिले, लेकिन सीटें सिर्फ चार मिली। उसके अधिकांश प्रत्याशी मामूली मतों के अंतर से हारे थे। कुछ तो जीत भी गये थे, लेकिन निर्वाचन अधिकारी ने उन्हें पराजित घोषित कर दिया। बहरहाल, इन चुनावों के बाद डॉ0 फारूख मुख्यमंत्री बने और दूसरी ओर घाटी में आतंकवाद पनपना शुरू हुआ। वर्ष 1987 के बाद कश्मीर का रक्तरंजित इतिहास शुरू होता है, जो अब तक जारी रहा।
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