एक समाज और सांस्कृतिक इकाई के तौर पर भारत की सोच नई दिल्ली से चल रही आज की सरकार के भौगोलिक अधिकार क्षेत्र तक ही सीमित नहीं रही है। कहीं न कहीं हम यह मानकर चलते हैं कि यह पूरा उपमहाद्वीप सांस्कृतिक तौर पर एक ही है, जिसे इतिहास के घटनाक्रम ने कई देशों में बांट दिया है। यह कुछ नए प्रभावों को स्वीकार करती है और पुराने को त्याग देती है। कई परंपराएं, मान्यताएं और रीति-रिवाज सदियों पुराने हैं, लेकिन जरूरी नहीं है कि वे अपने मूल रूप में मनाए जाते हों। सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भारत समग्र संस्कृति का उदाहरण है। इस पूरे उपमहाद्वीप के सांस्कृतिक और सामाजिक आसमान पर जितने भी स्पंदन हैं, वे हमें अपनी ही धड़कन का हिस्सा लगें, यही हमेशा से हमारी भारतीयता रही है। हम कहीं न कहीं यह मानकर चलते है कि नई दिल्ली में जो सरकार बैठती है, वह सिर्फ इस देश के राजनीतिक भूगोल की ही रक्षा नहीं करती, बल्कि इस पूरे उपमहाद्वीप की सांस्कृतिक विरासत को भी संभालती है। यह उम्मीद आप थिंपू, काठमांडू ढाका से नहीं करते।
भूटान ही भारत का इकलौता और घोषित मित्र हैं। वह भारत के भौगोलिक दायरे के साथ ही सांस्कृतिक रूप से भी करीब है। भूटान ने अपने सांस्कृतिक मूल्यों के कारण आर्थिक विकास के स्थान पर सतत् विकास पर बल दिया है। किंतु इससे कुछ क्षेत्रों में भूटान तकनीकी रूप से पिछड़ गया है। भूटान को ऐसे क्षेत्रों में भारत से सहयोग की अपेक्षा है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि भूटान की अवस्थिति आपदा प्रवण क्षेत्र की है। ऐसे में भारत द्वारा उपग्रह तकनीक के माध्यम से भूटान की सहायता विभिन्न बचाव अभियानों, दूर संचार को बढ़ावा देने आदि में किया जा सकता है। आपदा के अतिरिक्त शिक्षा, प्रशिक्षण, टेलीमेडिसिन जैसे विषयों में भी उपग्रह तकनीक के माध्यम से भूटान को सहयोग प्रदान किया जा सकता है। भारत और भूटान के बीच यह निर्णय हुआ है कि इसरो भूटान में एक ग्राउंड स्टेशन का निर्माण करेगा। भारत ने इससे पहले भी भूटान को व्यक्तिगत स्तर पर सार्क सैटेलाइट का लाभ देने का प्रस्ताव किया था।
भारत ने भूटान के साथ अपने सबंधों को जल-विद्युत से आगे ले जानेे के लिए रसोई गैस से लेकर अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी तक कई क्षेत्रों में परियोजनाओं की रूपरेखा प्रस्तुत की। स्वच्छ ईधन की आपूर्ति में वृद्धि, नॉलेज नेटवर्क, रूपे कार्ड का शुभारंभ, विदेशी मुद्रा विनिमय की व्यवस्था और विज्ञान व शिक्षा के क्षेत्र में सहयोग बढ़ाना प्रमुख सहायताओं में से था, शिक्षा के क्षेत्र में भी भूटान भारत की क्षमता का लाभ उठा रहा है, भारतीय विश्वविद्यालयों में लगभग चार हजार भूटानी छात्र पढ़ाई कर रहे हैं, तो रॉयल यूनिवर्सिटी ऑफ भूटान का आईआईटी, कानपुर, दिल्ली और बॉम्बे से करार किया है। जिनका उद्देश्य संबंधों के दायरें को व्यापक बनाना है। हमारे प्रधानमंत्री ने भूटान को संचार, सार्वजनिक प्रसारण और आपदा प्रबंधन के लिए दक्षिण एशिया उपग्रह का उपयोग करने की अनुमति देने के लिए भारत की अंतरिक्ष एजेंसी द्वारा निर्मित सात करोड़ रूपये के ग्राउंड स्टेशन का भी उद्घाटन किया। जो इसरो द्वारा वित्तपोषित है और जिससे भूटान को टेली मेडिसिन, पत्राचार शिक्षा, मौसम, रिसोर्स मैपिंग और सुदूर इलाकों तक प्राकृतिक आपदा की चेतावनी पहुचानें में मदद मिलेगी। भारत सार्क मुद्रा विनिमय फ्रेमवर्क के तहत भूटान के लिए मुद्रा विनिमय सीमा बढ़ाने के प्रति सकारात्मक है।
केंद्रीय मंत्रिमंडल ने भूटान के साथ संयुक्त उपक्रम के आधार पर चार जलविद्युत परियोजनाओं (खोलोंग्चू, वांग्चू, बुनाखा और चमखरचू) के लिए अंतर सरकारी समझौते (IGA) पर हस्ताक्षर करने और 600 मेगावाट की खोलोंग्चू जलविद्युत परियोजना के लिए 15% के वित्तपोषण (DGPC की इक्किटी) की स्वीकृति प्रदान की है। 2020 तक दोनों देशों ने जल विद्युत उत्पादन हेतु 10,000 मेगावॉट का लक्ष्य निर्धारित किया है। भारत सरकार ने रूपये की तरलता की कमी से उबरने में सहायता करने के लिए भूटान सरकार को 1000 करोड़ रूपये की अतिरिक्त ऋण सुविधा प्रदान की थी। यह ऋण सुविधा प्रति वर्ष 5% की रियायती ब्याज दर पर प्रदान की गई है। यह 5 वर्षां के लिए मान्य है। 29 जुलाई 2017 से नया मुक्त व्यापार समझौता लागू कर दिया गया है। पूर्वी उप-क्षेत्र के चार दक्षिण एशियाई देशों - बांग्लादेश, भूटान, भारत तथा नेपाल (BBIN) द्वारा थिम्पूं में BBIN समझौते पर हस्ताक्षर किये गए। इसे उप क्षेत्रीय एकता के एक महत्वपूर्ण प्रतीक के रूप में देखा गया।
मौजूदा दौर में दोनों के मजबूत संबंधों की एक बड़ी वजह चीन भी है। दक्षिण एशिया में भूटान इकलौता देश है, जो चीन के झांसे में नही आया। सिर्फ यहीं नहीं कि भूटान के साथ राजनयिक रिश्ता कायम करने की चीन की कोशिश अतीत में विफल हो चुकी है, बल्कि दोकलम में सड़क बनाने की चीन की मंशा को नाकाम कर भारत भी प्रभावी ढंग से यह जता चुका है कि भूटान की रक्षा करने में वह पीछे नहीं हटेगा। ऐसे में भारत को और भी कड़ा रूख अपनाना चाहिए उसने चीन को अहसास करा दिया कि भारत अपने हितों की रक्षा करने में सक्षम है। हर मौके पर उसे यही तेवर दिखाने होंगे। भारत भूटान का सबसे बड़ा कारोबारी सहयोगी तो है ही, भूटान की सीमाओं की सुरक्षा का जिम्मा भी उसके पास है। इस पृष्ठभूमि में दोनों देशों के सम्बन्धों को बेहतर ढंग से समझा जा सकता है।
भारत देर से ही सही, पर कुशलता के साथ चीन से निपटने के लिए भूटान से बेहतर रिश्ता बनाने की कोशिश में जुटा है। इस छोटे हिमालयी देश को लुभाने के मामले में भारत उस चीन के साथ होड़ में है, जिसने भारी आर्थिक मदद के जरिये दक्षिण एशिया और उससे भी आगे के देशों को अपने पाले में खड़ा कर लिया है। भारत को चीन के रवैये के प्रति सचेत रहना होगा जो भूटान को अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास कर रहा है। चीन और अमेरिका के उच्च-स्तरीय भूटान दौरों से इसकी पुष्टि होती है। विविध विकल्पों के इस विश्व में यह भारत और भूटान के सर्वोत्तम हित में होगा कि वे एक-दूसरे की चिंताओं को सर्वोच्च प्राथमिकता से संबोधित करें। वर्तमान में भूटान में संसदीय लोकतंत्र स्थापित हो गया है तथा बहुदलीय चुनाव प्रणाली भी आरंभ हो गई है। इसलिये भूटान के राजनीतिक दल चीन के साथ भी संबंधों को मजबूत बनाने की पहल कर सकते हैं। भूटान भविष्य में नेपाल के रास्ते पर जा सकता है और बीजिंग तथा नई दिल्ली से समान दूरी बनाए रख सकता है।
चीन भारत पर शिकंजा कसने के लिए उसके आसपड़ोस में ‘मोतियों की माला‘ के रूप में सामरिक घेरेबंदी करने में जुटा है। इसी तरह वन बेल्ट, वन रोड यानी ओबोंर और मेरीटाइम सिल्क रूट भी चीन के बढ़ते रूतबे का प्रतीक है। बीजिंग दुनिया भर में बंदरगाहों और एयरफील्ड में अपनी पैठ बढ़ा रहा है। अपने सैन्य बलों के आधुनिकीकरण के साथ ही वह अपने व्यापारिक साझेदार देशों के राजनीति-सैन्य नेतृत्व को प्रभावित करने में भी जुटा है। .चीन की महत्वाकांक्षी परियोजना ‘बेल्ट एंड रोड‘ को लेकर भारत की चिंताओं को अब तक दूर नहीं किया गया है। इस परियोजना के तहत न सिर्फ भारतीय सीमा में दखलदाजी हुई है, बल्कि इन विकास परियोजनाओं का एक पक्ष सैन्य गतिविधियों से भी जुड़ा है, जिसके कारण यह मसला कहीं ज्यादा जटिल बन जाता है। नेपाल को चीन से दूर रखने के लिए भारत को सतर्कता और तेजी से काम करने की जरूरत होगी। पर यह आसान नहीं है, क्योंकि नेपाल ने बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव ( बीआरआई ) पर सक्रियतापूर्वक हस्ताक्षर किया है। यह परियोजना आर्थिक और सामरिक रूप से काठमांडू को बीजिंग के करीब लाने का प्रयास करती है।
भारत का उद्देश्य इस हिमालयी राष्ट्र में चीन द्वारा निर्मित प्रमुख अवरोधों का मुकाबला करने के लिए भारत-नेपाल संबंधों को मजबूत बनाना है। ऐसा नेपाल और चीन के बीच हिमालय से होकर रेल सम्पर्क स्थापित करने की हालिया योजनाओं की पृष्ठभूमि में देखा गया है। हिमालय से होकर गुजरने वाली एक ऊर्जा पाइपलाइन के जरिये भी नेपाल और चीन को जोड़ने की योजना थी। इन दोनों योजनाओं को 2015 के तनाव की पृष्ठभूमि में नेपाल द्वारा भारत पर अपनी निर्भरता का विकल्प खोजने के साधन के रूप में देखा गया था। नेपाल का सत्ता-तंत्र आज एक ऐसी स्थिति से जूझ रहा है, जिसमें वह एक गांठ मजबूत करता है, तब तक दूसरी गांठ खुल जा रही है। जाहिर है, जमीनी स्तर पर फैल रही हिंसा और शीर्ष स्तर की राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता उसे एक घृणित व खतरनाक मोड़ पर ले जाएगी। इसलिए नेपाल को आज दिशा बदलने और सिर्फ व सिर्फ मानवीय समाधान की जरूरत है।
भौगोलिक स्थिति के कारण नेपाल भारतीय बंदरगाहों पर ही निर्भर है। जहां नेपाल से कोलकाता की दूरी 933 किलोमीटर है वहीं सबसे करीबी चीनी बंदरगाह भी नेपाल से 3,300 किमी दूर है। हालांकि पारगमन अनुबंध के जरिये नेपाल भारत पर पूरी तरह से निर्भरता खत्म करने की मंशा नहीं पाले हुए है। इसके बजाय वह भारत की भौगोलिक लाभ वाली स्थिति को कमजोर करने के साथ ही पारगमन में उसके वर्चस्व को तोड़ना चाहता है। जिसमें चीन ने उसे चार सी-पोर्ट-शिएनचिन, शेनचन, लिएनयुनकांग, झानचियांग और तीन ड्राई पोर्ट ल्हानचोउ, ल्हासा और शिगात्से के इस्तेमाल की अनुमति दे दी थी। गिरोंग पोर्ट की सुविधा नेपाल पहले से उठा रहा है। नेपाल में चीनी रेल प्रोजेक्ट का सर्वे भी हो चुका है। वहीं चीन-क्विंगल-तिब्बत रेलमार्ग के जरिये हजारों चीनी पर्यटक नेपाल जा रहे हैं। चीन नेपाल में लगातार अपना दखल बढ़ाता जा रहा है। आर्थिक क्षेत्र में बड़ें पैमाने पर निवेश के बाद अब उसने भाषा को अपना कूटनीतिक हथियार बनाया है। नेपाल में बुनियादी ढांचा परियोजनाओं पर पानी की तरह पैसा बहा रहा है। अब चीन से व्यापार विस्तार का इंतजाम भी नेपाल सरकार ने कर लिया है। प्रतीकात्मक रूप से नेपाल भारत के करीब माना जाता है, लेकिन आज वहां मुखर रूप से चीन समर्थक सरकार सत्ता में है जो गाहे-बगाहे भारत को आंखे दिखाती रहती है। जबकि भारत ने बांग्लादेश, भूटान तथा नेपाल को जोड़ने वाली 558 किलोमीटर लम्बी सड़क के निर्माण तथा उसके उत्रयन के लिए 1.08 अरब डॉलर की राशि स्वीकृत की।
चीन, नेपाल के साथ भारत के रिश्तों और हितों को नुकसान पहुंचाना चाहता है। नेपाल-भारत के बीच रोटी-बेटी के रिश्तें हैं। भारत और नेपाल के बीच खुली सीमा है, वहां के लोग भारत में बिना वीजा के आकर आराम से काम कर सकते हैं। तो चीन इन रिश्तों को प्रभावित करके वहां अपना दूरगामी हित साधना चाहता है। दरअसल चीन जानता है कि भारत का झुकाव हाल के वर्षों में अमेरिका के प्रति बढ़ा हैं, जिससे चीन के हितों को नुकसान पहुंच सकता है, क्योंकि अमेरिका दक्षिण एशिया में चीन की विस्तारवादी नीतियों पर अंकुश लगाने के लिए भारत का सहारा लेना चाहता है। आखिरकार भारत और नेपाल दुनिया में सबसे लंबी खुली सीमाओं में से एक साझा करते हैं, जहां पासपोर्ट के बिना ही आवाजाही होती है। खुली सीमा से नेपाल भारतीय सुरक्षा के लिए अहम बन जाता है। नेपाल में चीन की लगातार बढ़ती पैठ और नेपाल के बीजिंग की ओर बढ़ते झुकाव के भारतीय सुरक्षा के लिए गंभीर निहितार्थ हैं।
भारत के साथ कारोबारी और सामाजिक-सांस्कृतिक रिश्तों को नई दिशा देना उसके अपने हित में है। भारत और चीन न केवल क्षेत्र और आबादी के लिहाज से बड़े देश है, बल्कि दोनों व्यापक विविधता और प्राचीन संस्कृति वाले देश भी है। वास्तव में अंतरराष्ट्रीय राजनीति किसी भी नेता के व्यक्तित्व से कहीं अधिक भूराजनैतिक एवं भूआर्थिक यथार्थ से संचालित होती है। हमें अभी से सजग हो जाना चाहिए और देखना चाहिए कि हमारे सांस्कृतिक, सामरिक, इन्फ्रास्ट्रक्चर संबंधी हितों को कहीं नुकसान तो नहीं पहुंच रहा है। भारत से चीन के संबंधों में प्रतिद्वंद्विता का स्वर प्रमुख रहेगा। खाद्य तथा ऊर्जा सुरक्षा में हमारे हितों का टकराव सीमा विवाद से अधिक जटिल बना रहेगा। जहां भारत के सामरिक-आर्थिक हितों के परिप्रेक्ष्य में चीन की चुनौती जटिल तथा संवेदनशील है, वहीं चीन की प्राथमिकता सूची में भारत का स्थान कहीं ऊपर नजर आता है। निरंतर सतर्कता ही हमारे लिए हितकारी होगी। भारत आज इतने आत्मविश्वास से भरा हुआ है। वह भविष्य की तमाम चुनौतियों से निपटने के लिए तैयार दिख रहा है। इस दरम्यान हमारी सामरिक क्षमता में लगातार वृद्धि हुई।
भारत को दूरदर्शी नीति बनाने की जरूरत है। एक ऐसी नीति, जो मित्र राष्ट्रों की बेहतरी सुनिश्चित करे ही, साथ-साथ एशिया में ताकत का संतुलन भी बनाकर रखे। एक समग्र विदेश नीति भारत को चीन के समकक्ष खड़ा कर सकती है। वैश्विक स्तर पर जब भी साझा हितों की बात आती है तो भारत और चीन एक हो जाते हैं। यह ठीक भी है, लेकिन इससे भारत को उस खतरे की अनदेखी नहीं करनी चाहिए। खास तौर पर दक्षिण एशिया में चीन का दखल बढ़ा है। चीन अपना वर्चस्व भारत सहित तमाम महत्वपूर्ण एशियाई देशों की कीमत पर बढ़ा रहा है। वहीं चीन ने अपनी वित्तीय ताकत का इस्तेमाल करते हुए इन देशों में बुनियादी ढांचे और तकनीकी नेटवर्क विकसित किया है। बहरहाल, भारतीय उपमहाद्वीप और इसके आसपास हुए ऐसे कई घटनाक्रम बताते हैं कि भारत और इसके नजदीकी देश आपस में किस कदर जुड़े हुए हैं। बेशक कई चुनौतियां भी हमारे सामने हैं, लेकिन नई दिल्ली क्षेत्रीय शंाति और स्थिरता की एक महत्वपूर्ण धुरी मानी जाती है। अच्छी बात यह है कि इस दरम्यान हम आर्थिक विकास की अपनी तेज गति बनाए रखने में कामयाब रहे।
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