ऐसे विचार जिनसे Mohandas बने Mahatma Gandhi

ऐसे विचार जिनसे Mohandas बने Mahatma Gandhi

30 Jul 2024 00:01 AM | Me Admin | 85

  इतिहास में साधारण से असाधारण हो जाने वाले व्यक्तित्वों की सूची बड़ी है, लेकिन साधारण से सर्वोत्तम साधारण होने का उदाहरण केवल Mahatma Gandhi है। Gandhi विश्व इतिहास की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति है। दुनिया आज भी इनके विचारों को आत्मसात करने में लगी है। Gandhi ji के विचार उनसे मिले संस्कारों की पूंजी से आज भी युवा पीढ़ी पोषित हो रही है। समाज की रगों में उनके विचारों की ऊर्जा बह रही है। जो हर परिवेश को पुष्पित पल्लवित कर रही है। Gandhi से सभी वैचारिक संस्कार तो लिए लेकिन जब-जब आंदोलन की बात आई उनके जैसे शांतिपूर्ण विरोध की नजीर कोई नहीं पेश कर सका। उनके मौन आंदोलन की लाठी कोई नही थाम सका। गांधी के खिलाफत...........आत्मशुद्धि.........असहयोग...........सविनय जैसे कई आंदोलन व उपवास इसके गवाह बनें। विश्व पटल पर यह हस्ती समभाव से एक वैश्विक कार्यकर्त्ता के रूप में जानी जाती है। एक ओर जहां बीसवीं सदी के सभी महान राजनैतिक धुरंधर विश्वपटल से गायब होते जा रहे हैं तो दूसरी ओर गांधीजी की राजनीतिक विरासत अक्षुण्ण बनी हुई है। गांधी एक सोच....... एक विचार....... एक समाज..........एक संस्कार......... एक धरोहर...... एक सच्ची आत्मा जिसका अनुसरण भारत ने हमेशा कियां।

Mahatma Gandhi : अहिंसा ( Non-Violence )

सत्य का मार्ग अहिंसा के माध्यम से ही संभव है। अहिंसा बहादुरों का गुण है। कायरता और अहिंसा पानी आग की तरह हैं जो एक साथ नहीं रह सकते। शांति से ज्यादा आक्रामक कुछ भी नहीं। हम सबके अंदर सही और गलत के बीच अंतर करने की क्षमता है और यही हम इंसानों को पशु से बेहतर बनाती है। 1915 में दक्षिण अफ्र्रीका से जब मोहन दास करमचंद गांधी भारत आए, तब असल में उन्होंने अहिंसा की अवधारणा को विकसित किया। उस वक्त भारत के उग्र सुधारवादी विचारधारा के राष्ट्रवादी लोग मानते थे कि ब्रितानी शासन को उखाड़ फेंकने का एकमात्र तरीका हिंसात्मक विरोध है। जबकि गांधी ने मत रखा कि ऐसी हिंसा तो ब्रितानी सरकार को अधिक क्रूरता से प्रतिक्रिया का अवसर ही देगी। इस तरह उन्होंने किसी पर शारीरिक या मानसिक हिंसा न करने के नैतिक सिद्धंात को राजनीतिक विचार बना दिया। एक ऐसे विश्व में, जहां आतंकवाद, कट्टरपंथ, उग्रवाद और विचारहीन नफरत देशों और समुदायों को विभाजित कर रही है, वहां शांति और अहिंसा के गांधी के स्पष्ट आहवान में मानवता को एकजुट करने की शक्ति है। अहिंसा उनका सर्वाधिक रचनात्मक और दीर्घकालिक प्रभाव छोड़ने वाला विचार था।

Mahatma Gandhi : स्वराज्य ( Swaraj )

गांधीजी का स्वराज्य एक अति व्यापक अवधारणा है इसका आदर्श रामराज्य तथा लक्ष्य सर्वोदय  है सत्य तथा अहिंसा इसकी प्राप्ति के साधन हैं एवं धर्म तथा नैतिकता इसकी बुनियाद है स्वराज्य की यह अवधारणा भले ही राज्य की पराधीनता से मुक्ति पाने से शुरू होती है किन्तु वास्तव में इसका साध्य आत्मा की स्वतंत्रता को प्राप्त करना है इसकी प्राप्ति के पश्चात् चारों तरफ अमन-चैन रहेगा सर्वत्र समानता, स्वतंत्रता एवं खुशहाली का माहौल होगा, जिसकी जड़ प्रतिस्पर्द्धा में नहीं सहयोग में है यहाँ प्रतिस्पर्द्धा होगी भी तो कर्त्तव्य पालन के लिए न कि निज अधिकारों के भोग के लिए और यहाँ सबका सम्मान होगा।

     गांधी ने कहा था कि जैसे मुझे खाने पीने का हक है, उसी तरह मुझे अपना काम अपने ढंग से करने का हक है। यही स्वराज्य  है। उन्होंने अपने इस कथन में अपना उद्देश्य चुनने और उसके लिए साधन जुटाने की स्वतंत्रता को स्वराज्य कहा है। गांधी ने स्वराज्य शब्द का प्रयोग अपना या अपनों का राज्य के अर्थ में भी किया है। उनका कहना था कि ‘स्वराज्य‘ रामराज्य होगा, जिसमें सब आजाद होंगें। इसमें साधन चुनने की आजादी की ओर संकेत है। उनका कहना था कि हम अपने ऊपर राज्य करें, यही स्वराज्य है और स्वराज्य हमारी हथेली में है। यानी लगातार कर्म करना स्वराज्य का मूलमंत्र है।

Mahatma Gandhi : सत्याग्रह ( Satyagraha )

‘‘जब तक शरीर अनुशासित न हो तब तक सत्याग्रही बनाना कठिन है उसके लिए शील का पालन करना, निर्धनता को स्वीकार करना, सत्य का पालन करना और निर्भयता को पैदा करना आवश्यक होता है।‘‘ ‘सत्याग्रही भय और दास बनने की मानसिकता से छुटकारा पा जाता है। सत्याग्रह असल में एक मनोभाव है, जो भी इस भाव को अपनाए, वह विजयी है और ईश्वर का हाथ उसके सिर पर है।‘ इस विचार ने हिन्दू और मुस्लिम समुदाय के उनके अनुयायियों के बीच सत्याग्रह पर विश्वास बढ़ाने का काम किया।

  सत्याग्रह अपनी विशेषताओं और नैतिक बाध्यताओं के कारण दुनिया भर में अलग-अलग रूपों में अपनाया गया है। इनमें दक्षिणी अमेरिका और पूर्वी यूरोप जैसे देश प्रमुख हैं। पर, विडंबना यह है कि अपनी सफलता के बावजूद गांधी की इस विचारधारा की मौजूदगी भारत में नाममात्र की ही है। मौजूदा परिप्रेक्ष्य में भारत में सत्याग्रह की बात कश्मीर पर चर्चा किए बिना अधूरी है। इस बात में कोई दोराय नहीं कि आने वाले वर्षो  में कश्मीर की स्थिति में उल्लेखनीय बदलाव आएगा। यह बात भले ही विचित्र सी प्रतीत हो, लेकिन गांधी मौजूदा स्थिति में भी सत्याग्रह की ही सिफारिश करते और प्रतिक्रिया देने के लिए केवल उसे ही नैतिक व कूटनीतिक जरिया बनाने की पैरवी करते। हिंसा और कलह से भरी इस दुनिया में आगे बढ़ने का सही रास्ता अकसर सत्याग्रह के माध्यम से बनता नजर आता है। पर, इस विचारधारा की सफलता के लिए मजबूत इच्छाशक्ति व चारित्रिक दृढ़ता वाले ऐसे पुरुष व महिलाओं  की आवश्यकता है, जो इसे आगे लेकर जा सकते हैं।

Mahatma Gandhi : राजनीति ( Politics )

गांधी जी ने राजनीति का आधार धर्म को स्वीकार किया था। उन्होनें मानवीय धर्म के अंगों में सत्य, अहिंसा और निर्भयता को प्राथमिकता दीं। राजनीति में भी उन्हांेने इसे शामिल किया। वह राजनीति का उद्देश्य स्वराज्य की स्थापना मानते थे। वह कूटनीति को राजनीतिक का अंग मानने से सहमत नहीं थे। साथ ही वह इससे भी सहमत नहीं थे कि  राजनीति में सच्चाई का कोई स्थान नहीं है। उनका मत था कि लड़ाई तो अकेले ही लड़़ी जानी चाहिए और आत्मबल के बिना कोई भी व्यक्ति अकेले लड़ाई नहीं लड़ सकता। सशक्त और स्वावलंबी बनाना उनकी राजनीति के प्रमुख लक्ष्य थे। उनकी मान्यता थी कि इन दोनों के दम पर ही स्वाधीनता हासिल की जा सकती है। अशक्त की उचित प्रार्थना भी अनसुनी रह जाती है। निर्बल का कोई सहायक नहीं होता है। अपने देशवासियों पर विश्वास कर और स्वयं सशक्त बन अपने देश को सबल व समर्थ बनाने का दृढ़संकल्प लेने से ही देश की स्वाधीनता की रक्षा संभव है। उनकी राजनीति का मूलभूत विचार सत्ता प्राप्ति न होकर मानव सेवा की भावना है।

   गांधी का मानना था कि विकेन्द्रीकरण के तहत ग्राम पंचायतों को अपने गांवों को प्रबंध और प्रशासन करने के सब अधिकार दे दिये जाये। इनके मामलों में राष्ट्रीय अथवा प्रांतीय सरकारों का हस्तक्षेप और नियंत्रण कम से कम हों। सभी गांव आर्थिक दृष्टि से स्वाबलंबी और राजनीतिक दृष्टि से स्वशासन का पूर्ण अधिकार रखने वाले हों। उनकी कल्पना में प्रत्येक गांव शासन, उत्पादन, वितरण सभी पर पूर्ण अधिकार रखता हो। गांवों के इस प्रकार अधिकार देकर गांधी राजनीतिक सत्ता का पूर्ण विकेंद्रीकरण करना चाहते है।

Mahatma Gandhi : अर्थशास्त्र ( Economics )

आधुनिक अर्थशास्त्र और अर्थशास्त्री परेशान हैं कि विकास के लिए पूंजी निहायत जरूरी है, लेकिन उसी पूंजी का जैसे ही संचय होता है, वह व्यवस्था को दीमक की तरह चाटने लगती है। पूंजी चाहिए, लेकिन उसका कंद्रीकरण नहीं चाहिए। जबकि गांधी के आर्थिक सिद्धांत निचले स्तर तक विकेंद्रीकृत निर्णयकारी व्यवस्था, ज्यादा से ज्यादा श्रमिकों को रोजगार देने वाली औद्योगिक ढांचे, छोटे और कुटीर उद्योगों पर कंद्रित थी। आज के समय में भी ज्यादा से ज्यादा रोजगार देने वाली औद्योगिक इकाइयों और उद्योगों पर जोर देने पर सरकार का जोर है, जो गांधी की आर्थिक अवधारणा की समसामयिकता को दर्शाता है। आज आर्थिक स्तर पर सुस्ती के बाद गांधी के सिद्धांत अब ज्यादा सार्थिक लगने लगे है। हालांकि यह भी स्पष्ट है कि गांधी पूंजीवाद के विरोधी नहीं थे। उनका पूंजीवाद संपत्ति की साझेदारी का समर्थक था और अकूत संपत्ति इकट्ठा करने के मॉडल की पैरोकारी नहीं करता था।

   गांधी जी एक वैकल्पिक मार्ग सुझाते हैं- सादगी भरे जीवन का। कहते हैं, ‘पृथ्वी पर हमारी जरूरतों को पूरा करने के लिए सब कुछ है किंतु हमारे लोभ की पूर्ति के लिए कुछ भी नहीं‘ तो उनका आशय ऐसी जीवन शैली से ही है जिसके केंद्र में बुनियादी जरूरतें हों न कि लोभी का असीम संसार। इस सूत्रवाक्य को और स्पष्ट करें तो कह सकते हैं कि गांधी ‘उपभोग आधारित‘ जीवन शैली का निषेध करते हैं तथा ‘उपयोग केंद्रित‘ जीवन शैली की वकालत करते हैं। उपभोग पर आधारित जीवन पद्धति धनवानों को प्राकृतिक संसाधनों के दुरुपयोग की अनैतिक छूट प्रदान करती है, सर्वाधिक दुष्प्रभाव गरीबों को झेलना पड़ता है। आज की तेज वैश्वीकृत व्यवस्था में गांधी के सिद्धांत भले ही वैश्विक बाजार से मेल न खाते हों, लेकिन मानव विकास के लिए दूर की सोचें तो गांधी के आदर्शो के बेहद सीमित विकल्प ही मौजूद हैं। गांधी मांग और आपूर्ति में संतुलन लाने के भी पक्षधर थे, इसलिए आज यदि देश के किसी भी हिस्से से किसी के भूख से मरने की खबर आती है, तो इसका यही मतलब है कि गांधी के रास्ते को ठीक से नहीं समझा गया है।

Mahatma Gandhi

Mahatma Gandhi : न्यासिता ( Trusteeship )

गांधीजी का मानना था कि जब तक समाज से आर्थिक विषमता समाप्त नहीं हो जाती तब तक समाज में तथा संसार में स्थायी शान्ति स्थापित नहीं हो सकती, वे देश  में धनी तथा गरीबों के बीच विद्यमान असमानता की गहरी खाई को पाने  के इच्छुक थे इसे पाटने के लिए गांधी ने ट्रस्टीशिप का विचार प्रस्तुत किया इस विचार के अनुसार धनी लोगों को अपने अतिरिक्त धन तथा आर्थिक सत्ता का स्वेच्छापूर्वक त्याग करके उसे समाज की भलाई के लिए उपयोग करना चाहिए पूँजीपतियों को इस सम्पत्ति के लिए अपने आपको समाज का ट्रस्टी समझना चाहिए तथा इनके हाथ में जो राष्ट्र के उत्पादन के साधन है उनका राष्ट्र हित में उचित उपयोग करें न्यास स्थापित करने के लिए धनिक वर्ग को अहिंसात्मक तरीके से ही प्रेरित करना चाहिए जिससे उसकी योग्यता एवं अनुभव का लाभ भी प्राप्त हो सके।

Mahatma Gandhi : सर्वोदय ( Sarvodaya )

गांधीजी ने रस्किन की किताब ‘अन टु दिस लास्ट‘  सन् 1904 में पढ़ी थी सार्वजनिक रूप से चार वर्षो तक उन्होंने इस बारे में कोई टिप्पणी नहीं की सन् 1908 में गांधी ने रस्किन की पुस्तक का गुजराती में भावानुवाद किया जो ‘इण्डियन ओपीनियन‘ में धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ उस जमाने में ‘‘अधिक-से-अधिक लोगों का अधिक-से-अधिक भला‘‘ (बुद्ध की उक्ति बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय का तात्विक सामानार्थी नहीं) की बात सर्वत्र चर्चा में थी, किन्तु गांधीजी ने उस अनूदित पुस्तक का नाम ‘सर्वोदय ‘ रख दिया इस नाम की स्पष्टता के बारे में गांधी ने अपनी राय भी व्यक्त की-‘‘पुस्तक लिखने का उद्देश्य सबकी भलाई, सबका कल्याण और सबका उत्थान, (मात्र अधिकांश का नहीं) है, इसलिए हमने इसे ‘सर्वोदय नाम दिया है‘‘ गांधी का मानना था कि राज्य को बहुमत का कल्याण अल्पमत की कीमत पर नहीं करना चाहिए ऐसे ही अल्पमत का कल्याण बहुमत की कीमत पर, भलाई उतनी ही अनैतिक होगी, जितनी बहुमत की अल्पमत की कीमत पर।

Mahatma Gandhi : लोकतन्त्र ( Democracy )

‘‘........मेरा विश्वास है कि विश्व के इतिहास में कभी भी हमारे स्वतन्त्रता के संघर्ष से अधिक लोकतन्त्री कोई संघर्ष नहीं हुआ है मैं जब जेल में था, तब मैंने कार्लाइल की ‘हिस्ट्री ऑफ फ्रेंच रिवोल्यूशन‘ पढ़ी थी और पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने मुझसे रूसी क्रान्ति के बारे में थोड़ा-बहुत बताया है, परन्तु मेरे विचार में क्योंकि इन संघर्षें में हिंसारूपी अस्त्रों का प्रयोग किया गया था, इसलिए उनके द्वारा लोकतन्त्रीय आदेशों की स्थापना नहीं हो पाई अहिंसा द्वारा प्रस्थापित जिस लोकतन्त्र की मैने कल्पना की है उस लोकतन्त्र में सबको समान स्वतन्त्रता मिलेगी, हर कोई अपना स्वामी स्वयं होगा, आज मैं ऐसे ही लोकतन्त्र की स्थापना के लिए संघर्ष करने को आपका आहृान कर रहा हूँ अगर एक बार यह बात आपके दिल में उतर जाए, तो आप सब हिन्दू-मुस्लिम भेदभाव भूल जाएगे और स्वयं को मात्र भारतीय समझेंगें, ऐसे भारतीय जो एक ही स्वतन्त्रता संग्राम में रत हैं‘‘

Mahatma Gandhi : ग्रामीण विकास ( Rural Development )

गांधी ने खादी को विकल्प के रूप में खड़ा किया। लिहाजा उन्होनें आत्मनिर्भरता को बढ़ावा के लिए कताई और बुनाई को एक विचारधारा तक बना दिया। दांडी यात्रा की सफलता के बाद यह विचार उनके मन में और पक्का हो गया कि भारत को असली आजादी तब ही मिलेगी, जब हर जरूरी चीज के निर्माण के लिए हर आम किसान स्वतंत्र होगा। इसी पहल में उन्होनें सूत कातने और खेती करने के लिए सबको प्रोत्साहित करना शुरू किया। उन्होंने चेताया कि अगर गांव की पांरपरिक व्यवस्था में बदलाव हुआ तो भारत का नाश हो जाएगा। बापू का समानता और समावेशी विकास का सिद्धांत विकास के आखिरी पायदान पर रह रहे लाखों लोगों के लिए समृद्धि के एक नए युग का सूत्रपात कर सकता है।

  वर्ष 1941 में बापू ने ‘रचनात्मक कार्यक्रम : उसका अर्थ एवं स्थान‘ नाम से एक लेख लिखा था, जिसमें उन्होंने 1945 में तब बदलाव भी किए थे जब स्वतंत्रता आंदोलन को लेकर एक नया उत्साह था। उसमें बापू ने विविध विषयों पर चर्चा की थी। इनमें ग्रामीण विकास, कृषि को संशक्त बनाने, साफ-सफाई को बढ़ावा देने, खादी को प्रोत्साहन देने, महिलाओं का सशक्तीकरण करने और आर्थिक समानता सहित अनेक विषय शामिल थे वर्तमान दौर में जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण की रक्षा का विषय चर्चा के केंद्र में है, जिसे गांधी के विचारों से सहारा मिल सकता है।

  पिछले चार वर्षो में ‘स्वच्छ भारत अभियान‘ के जरिए 130 करोड़ भारतीयों ने गांधी को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की है। हर भारतीय के कठोर परिश्रम के कारण यह अभियान आज एक ऐसे जीवंत जनांदोलन में बदल चुका है, जिसके परिणाम सराहनीय है। साढ़े आठ करोड़ से ज्यादा परिवारों के पास अब पहली बार शौचालय की सुविधा है। 40 करोड़ से ज्यादा भारतीयों को अब खुले में शौच के लिए नहीं जाना पड़ता। चार वर्षो के छोटे से कालखंड में स्वच्छता का दायरा 39% से बढ़कर 95% पर पहुंच गया है। 21 राज्य व संघशासित क्षेत्र और साढ़े चार लाख गांव अब खुले मे शौच से मुक्त है। गांधी अपना शौचालय स्वयं साफ करते थे और आसपास की स्वच्छता का खास ख्याल रखते थे। आज यह अभियान आत्म-सम्मान और बेहतर भविष्य से जुड़ा है।

Mahatma Gandhi : पत्रकारिता ( Journalism )

गांधी एक सफलतम पत्रकार थे। उन्होंने जितने भी अखबार चलाए, वे सब लाभ में चले जबकि उन्होंने कभी उसके लिए विज्ञापन नहीं लिया। उनके लेखों को सरकारें तक पढ़ती थीं। इसके बीज भी इंग्लैंड में पड़ें, जब वहां पढ़ाई के दौरान उन्होंने नियमित अखबार पढ़ना शुरू कर दिया। 21 की उम्र में शाकाहार के प्रचार में अंग्रेजी दैनिक में उन्होंने आठ लेख लिखे। दक्षिण अफ्रीका पहुंचने के तीसरे दिन ही वह अपने लेख के कारण चर्चा में आ गए थें, जिसमें उन्होंने अपने साथ अदालत में हुई बदसलूकी का वर्णन किया था। 35 की उम्र में उन्होंने इंडियन ओपीनियन का कार्यभार संभाला। इसके माध्यम से उन्होंने वहां सत्याग्रह को आम भारतीयों तक पहुंचाया। उनके अंग्रेजी और भारतीय भाषाओं में चलाए अखबारों का प्रसार 40 हजार कॉपियों तक पहुंचा। वह अक्सर यात्रा के दौरान लिखते थे, जब लिखते-लिखते सीधा हाथ थक जाता तो उल्टे हाथ से लिखने लगते। उन्होंने इंडियन ओपीनियन, हरिजन, हरिजन बंधु, हरिजन सेवक, नवजीवन, यंग इंडिया नामक अखबार निकाले। वह मानते थे कि पत्रकारिता जीविका का जरिया नहीं बल्कि समाजसेवा का माध्यम है इसलिए उन्होंने इसे अपनी जीविका नहीं बनाया। उनका संचार कौशल इतना प्रभावशाली था कि वह अपनी सोच के हिसाब से लोगों को मना लेते थे।

Mahatma Gandhi : स्वदेशी ( Indigenous )

‘‘स्वदेशी वह भावना है, जो हमें दूर के बजाय अपने आसपास के परिवेश के ही उपयोग और सेवा तक सीमित रखती है....... प्रायः कहा जाता है कि भारत आर्थिक क्षेत्र में स्वदेशी का अवलम्बन कर ही नहीं सकता, जो यह आपत्ति उठाते है, वे ‘स्वदेशी‘ को जीवन का नियम नहीं मानते उनके लेखे वह एक देशभक्ति पूर्ण प्रयत्न है और उसमें कुछ ज्यादा आत्मनिग्रह करना पड़े, तो उसे छोड़ा जा सकता है....... स्वदेशी‘ एक धार्मिक नियम है और इसका पालन करते हुए किसे क्या शारीरिक कष्ट होता है, इसका कोई विचार नहीं किया जा सकता इसके अन्तर्गत पिन या सुई से इसलिए वंचित रहना पड़े कि ये चीजें भारत में नहीं बनतीं, तो कोई परेशानी नहीं जान पड़ती स्वदेशी का व्रत लेने वाला ऐसी हजारों चीजों के बिना काम चलाना सीख लेगा, जो आज उसे आवश्यक लगती है।

Mahatma Gandhi : स्वास्थ्य एवं शाकाहार  ( Health and Vegetarianism ) 

गाँधी का प्रकृति पर इस कदर विश्वास हो गया कि उन्होनें प्रकृति के इलाज (नेचर क्योर) को जीने का सिद्धांत बना लिया। 76 साल की उम्र तक आते-आते गाँधी अपने आश्रम में डॉक्टर हो गए। वह वहां आने वाले मरीजों के इलाज के लिए भोजन की आदतों में सुधार, पानी के इलाज ( हाइड्रोपैथी ), उपवास, प्रार्थना और आराम के तरीकों का प्रयोग करते। खुद भी इन नियमों का पालन करते थे। गाँधी संयम की ताकत समझ चुके थे, जिसने उन्हें प्रकृति के और करीब ला दिया। उन्होंने गरीब भारतीयों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए दक्षिण अफ्रीका प्रवास के दौरान ही शाकाहार प्रचार की कोशिश शुरू कर दी।

   वर्ष 1888 में कानून की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड पहुंचे गांधी को हर वक्त अपने मां का वचन याद आता जिसमें उन्होंने मास मदिरा और परस्त्री से दूर रहने को कहा था। जैसे-तैसे वह ब्रेड खाकर दिन काट रहे थे। उन्होंने मुश्किलों के बावजूद मां के वचन का पालन किया और नैतिकता नहीं छोड़ी। हर दिन कुछ शाकाहारी ढूढंने के लिए वह मीलों पैदल चलते, जहां से उन्हें पैदल चलने की आदत हुई। एक दिन आखिर उन्हें सस्ता शाकाहारी रेस्टोंरेट मिल गया, जहां उनकी नजर अलमारी में रखी किताब ‘सॉल्ट्स प्ली फॅार वेजिटेरेनिज्म‘ पर पडी। किताब में उन्होंने पढ़ा कि इंसान की शक्ति का मतलब उससे छोटी चीजों को खाना नहीं बल्कि उनकी रक्षा करना है। अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा कि उस एक किताब ने उन्हें जीवन भर के लिए शाकाहारी बना दिया। जबकि बचपन में वह अपने मांसाहारी दोस्त से प्रभावित होकर सोचने लगे थे कि निडर बनने के लिए मांस खाना जरूरी है, तभी अंग्रेजेां को भगाया जा सकता है। उन्होंने इस पर कई लेख और ‘द मारॅल बेसिसस ऑफ वेजिटेरियनिज्म‘ और ‘डायट एंड डाइट रिफॅार्म‘ नामक दो किताबें लिखी। 

  गांधी जी सुबह और शाम गुनगुने पानी में नीबू के रस में शहद डालकर पीते थे। उनकी डाइट में अंकुरित गेहूं, गुड़ और घी रोज शामिल रहता था। उनका तर्क था कि व्यक्ति चाहे तो सही खानपान से बीमारियों से दूर रह सकता है। वे एक सामान्य व्यक्ति के लिए तीन बार भोजन को पर्याप्त मानते थे।

    भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद ( आइसीएमआर ) ने Mahatma Gandhi के स्वास्थ्य पर केद्रिंत इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल रिसर्च का एक संस्करण तैयार किया है। यह ‘गांधी एंड हेल्थ /150‘ नामक किताब है, जो गांधी के जन्म की 150 वीं सालगिरह को समर्पित है। इसके मुताबिक, बापू के स्वस्थ जीवन का पूरा श्रेय शाकाहारी भोजन और खुली हवा में व्यायाम को जाता है। इसके अतिरिक्त बगैर आग पर पकाए भोजन को सबसे ज्यादा अच्छा मानते थे। ‘यंग इंडिया‘ और ‘हरिजन‘ समाचार पत्रों में बापू ने अपनी डाइट पर किए गए प्रयोगों  पर काफी लिखा है।

   हम इतिहास के उस मोड़ पर खड़े हैं, जहां गांधी को अस्वीकार करना असंभव-सा और स्वीकार करना अत्यंत कठिन है। कारण यह है कि गांधी अपने प्रारंभिक जीवन से लेकर अंतिम सांस तक संघर्षों में जिए। उनका संघर्ष अपने आप से शुरू होता था और उसका विस्तार वैश्विक स्तर तक होता जा रहा था। उनकी पहली लड़ाई थी सत्य की, बुनियादी निष्ठा को अपने अंदर स्थापित करने की। गांधी कोई बचपन से ही अद्वितीय अवतार नहीं थे। वह भी मानवीय कमजोरियों के शिकार थे, लेकिन खूबी यह रही कि जब उन्हें अपनी कमजोरी महसूस हुई, तो उसे अपनी भूल के रूप में स्वीकार करने में उन्होनें क्षण भर भी संकोच नहीं किया और फिर उसे कभी दोहराया नहीं। उनके भीतर सत्य को लेकर जो आग्रह पैदा हुआ, वह बाद में उनके कार्यकलापों में भी दाखिल होता गया। गांधी की जो अहिंसा, स्वराज और सत्याग्रह की लड़ाई थी, वह नए जीवन-दर्शन की, एक नए विश्व रचना की लड़ाई की शुरुआत थी।

गांधी अपने जीवन काल में ही एक दार्शनिक बन गए थे और यहीं कारण है कि सदी के मशहूर वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने 2 अक्तूबर, 1944 को गांधी के जन्मदिन के मौके पर उन्हें भेजे संदेश में कहा था कि आने वाली पीढ़ियां शायद ही यकीन करें कि हाड़-मांस का बना कोई ऐसा व्यक्ति भी धरती पर चलता-फिरता था ! लेकिन आज हम देख रहे हैं कि गांधी का गांधीवाद परिवर्तित परिस्थिति के साथ नई ऊंचाइयों को हासिंल करता चला जा रहा है आने वाली पीढ़ियों ने गांधी के सत्य एवं अहिंसा को स्वीकार किया और आज गांधी के आलोचक नाममात्र के है अपने डेढ़ सौवें जयंती वर्ष में यही गांधी होने की प्रासंगिकता भी है।

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