योग (Yoga) का प्रादुर्भाव भारत में हजारों वर्ष पहले हुआ। यह हमारे ऋषि मुनियों की देन है। योग (Yoga) क्योंकि तर्क का विषय नहीं बल्कि साक्षात्कार का विषय है यह मन और शरीर के एकात्म का प्रतीक है। अतः इस की व्याख्या सरल नहीं है। फिर भी हमारे ऋषि मुनियों ने जो कुछ साक्षात्कार किया और अनुभव किया उसे सभी के लिए ग्राह्य और उपयोगी बनाने के लिए क्रमिक अभ्यास की विधियों सहित इस तार्किक और सुदृढ़ ढंग से प्रतिपादित किया। योग (Yoga) शब्द का संस्कृत में अर्थ है-जोड़ना। यह विश्व के सबसे पुराने शारीरिक व्यायामों में से एक है लगभग 5000 वर्षों से इसे एक शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक रुप से स्वस्थ जीवन जीने की एक कला के रुप में प्रयोग में लाया जा रहा है।
कृष्ण ने अर्जुन को ज्ञान योग, भक्ति योग, अर्थ योग एवं राज योग की शिक्षा दी। दर्शन की छः पद्धतियों में से योग एक है। ”महर्षि पतंजलि“ ने जिन 195 बिखरे सूत्रों को एकत्र करके अपने योग सूत्रों में योग के विभिन्न पहलुओं को क्रमबद्ध रुप से और परिष्कृत ढंग से इस प्रकार प्रतिपादित किया है कि योग और समाधि का कोई पक्ष अव्यक्त न रह जाय और साधकों के लिए सर्वत्र और सर्वविधि उपयोगी सिद्ध हो। उन्होंने मानव जीवन के सर्वांगीण विकास के लिए योग के आठ अंगों का प्रतिपादन किया जो ”अष्टांग योग“ के नाम से लोकप्र्रिय है। ये हैं-यम (आत्मसंयम), नियम, (आत्मशोधन के नियमों का पालन), आसन (शारीरिक मुद्रायें), प्राणायाम (श्वास-प्रश्वास का नियमन), प्रत्याहार (इन्द्रियों को उनके विषय से रोकना), धारणा (चिन्तन), ध्यान (तल्लीनता) और समाधि (पूर्ण आत्मतन्मयता)। इनमें से केवल दो-तीन अंगों पर ही जोर दिया है।
आसन, प्राणायाम एवं ध्यान ही आधुनिक योग गुरुओं की शिक्षाओं में नजर आते हैं। चाहे हम स्वामी विवेकानन्द की योग पद्धति देख लें, चाहे महर्षि अरविन्द की ‘इंटिग्रल योगा’ को लें। सभी ने उपरोक्त तीन अंगों पर ही जोर दिया है। वर्तमान में सर्वाधिक चर्चित पतंजलि योग पीठ के संस्थापक स्वामी रामदेव का ज्यादा जोर ‘आसन’ एवं ‘प्राणायाम’ पर रहता है तो ‘आर्ट ऑफ लिविंग’ के संस्थापक श्री-श्री रविशंकर का मुख्य बल ध्यान एवं प्राणायाम पर। उन्होंने जिस ‘सुदर्शन क्रिया’ के कारण दुनिया भर में ख्याति अर्जित की है वह वस्तुतः संगीत के साथ ध्यान एवं प्राणायाम का बेहतरीन तालमेल ही है। महेश योगी जी अमेरिका एवं यूरोप में काफी सफल योग गुरु रहे, उनका ट्रांसिडेंटल मेडिटेशन वास्तव में ध्यान का ही रुप था। आजकल अमेरिका में योगी विक्रम जिस ‘हॉट योगा’ का प्रचार-प्रसार कर रहें है, वह दरअसल गरम तापमान पर आसन करने की ही पद्धति है। शांभवी मुद्रा के लिए चर्चित व ईसा फाउंडेशन के सद्गुरु जग्गी वासुदेव का ध्यान भी ध्यान, आसन एवं प्राणायाम पर है। इनके अलावा ‘योगी कथामृत’ के लिए प्रसिद्ध योगानंन्द एवं महान् योग गुरु बी.के.एस. आयंगार आदि सभी ने अपने अनुयायियों की सहजता का ध्यान रखते हुए मुख्यतः इन्हीं तीन विधाओं को प्रमुखता दी है। इन सारे उदाहरणों से यह समझना आसान है कि आजकल हम जिसे योग के रुप में जानते है वह आसन, ध्यान व प्राणायाम का समुच्चय मात्र है। अष्टांग योग के शेष भागों-यम, नियम, प्रत्याहार, धारणा तथा समाधि, जो ज्यादा आध्यात्मिक एवं धार्मिक हो सकती थीं, वे आजकल ज्यादा प्रचलन में ही नहीं है।
ऐसा माना जाता है कि इनके प्रारम्भिक अभ्यास मात्र से शरीर को शुद्ध रक्त संचार द्वारा शारीरिक स्वास्थ्य तथा ज्ञानेन्द्रियों के संयम द्वारा मानसिक शान्ति और पवित्रता प्रदान करने की क्षमता है। योग का अभ्यास मुख्यतः नैतिक और आध्यात्मिक विकास के लिए है परन्तु जनसाधारण द्वारा विशेष रुप से मानसिक और शारीरिक विकारों/रोगों से बचने और व्यक्ति की रोग प्रतिरोधक क्षमता में सुधार लाने व तनावपूर्ण स्थितियों को दूर करने के लिए किया जाता है। सच तो यह है कि योग सिर्फ हिन्दू ही नहीं, बल्कि भारत में विकसित हुए सभी धर्मों में समान रुप से देखा जा सकता है। महावीर का ”कैवल्य ज्ञान“ और बुद्ध का ”बोधि ज्ञान“ भी ध्यान के चरम स्तर पर उपलब्ध हुए अनुभव मात्र है जबकि भारत से बाहर विकसित हुए धर्मों जैसे-इस्लाम, ईसाईयत और यहूदी धर्म में इसे खोजना मुश्किल है।
योग निःसन्देह हमारे देश की आध्यात्मिक संस्कृति है’, यह मानव के सृजनशीलता के पक्ष को उभारती है, उसके सकारात्मक तथा रचनात्मक पक्ष से नाता जोड़ती है। योग का सबसे अमूल्य योगदान यही है, हर मनुष्य के जीवन में अपनी सामर्थ्य, शक्ति और प्रतिभा के प्रति सजग बनना। जब हम आशंकाओं से घिरे रहते हैं और कमजोरियों से प्रभावित रहते हैं, तब योग हमें हमारी शक्ति का आभास दिलाता है। एक तरह से यह हमें हनुमान बनाता है, क्योंकि पहले वीर हनुमान को भी अपनी शक्ति का अनुमान नहीं था, तब जांबवंत ने उन्हें उनकी शक्ति का बोध दिलाया, तब हनुमान ने समुन्द्र पार किया था। हम भी हनुमान के समान सामर्थ्यवान हैं। किन्तु अपनी शक्ति और प्रतिभा को भूल जाते हैं, जिसका बोध हमें योग के माध्यम से होता है। योग द्वारा हम अपने जीवन को अनुशासित, मर्यादित एवं संयत बना सकते है। क्योंकि योग साधन नहीं है, बल्कि जीवन की एक अवस्था है, मन की, चेतन की, ऊर्जा की एक अवस्था है।
सूर्य नमस्कार शरीर के सम्पूर्ण तंत्रिका-ग्रन्थि और तंत्रिका-माँसपेशीय तंत्र को ऊर्जावान बनाता है। इसका नियमित अभ्यास पूरे शरीर में शुद्ध रक्त का संतुलित संचार और सभी प्रणालियों में पूर्ण समन्वय प्रदान करता है। इस प्रकार यह साधक को सम्पूर्ण मानसिक और शारीरिक पुष्टता प्रदान करता है। यानि यह मनुष्य की चंचल प्रवृत्ति के भटकाव को संयमित करने का साधन है, जबकि इस मामले में यह भटकाव का ही साधन बना दिया गया है। अगर हम सूर्य नमस्कार के वास्तविक अर्थ को समझेंगे तभी इस तरह के भटकाव से बच पाएंगे।
योग वास्तव में स्वास्थ्य के क्षेत्र में एक अत्यन्त उपयोगी निवारक उपाय साबित हो सकता है। आधुनिक जीवन शैली में शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक व्यक्तित्व विकास में योग का विशेष महत्व है। ये रक्तचाप, मधुमेह, कब्ज, जोड़ों का दर्द, स्पोंडिलोसिस, अनिद्रा, दमा, मानसिक व्याधि आदि रोगों को नियंत्रित करने में सहायक हैं। योग एक सम्पूर्ण व्यायाम है जो शरीर के सभी अंगों, साँसों से लेकर मन तक को मजबूत कर सकता है। इस कला को मानवीय कायाकल्प का एक मार्ग माना गया है। रॉबर्ट सी. पर्ल के अनुसार, ‘सर्वश्रेष्ठ और सबसे कुशल औषधालय हमारा अपना शरीर हैं।‘
प्राचीन काल में मनुष्य और प्रकृति के बीच संतुलन था। इसके अतिरिक्त धार्मिक एवं आध्यात्मिक कार्यों में भी मनुष्य तल्लीन रहता था। बुद्ध ने भी कहा है शरीर को स्वस्थ रखना हमारा कर्त्तव्य है, अन्यथा हम अपने मस्तिष्क को स्वस्थ और संतुलित नहीं रख पाएंगे। योग के द्वारा कई प्रकार के शारीरिक विकारों को दूर किया जा सकता है। योग की परम्परा हमारे देश में अत्यन्त प्राचीन काल से ही रही है। यह वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा सरलता से जीवन को नियमित व संतुलित बनाकर स्वस्थ तन और मन प्राप्त किया जा सकता है। यह चित्त को एकाग्र करने तथा शरीर को कठिन साधना के लिए तैयार करने के लिए योग की क्रियाऐं अत्यन्त सहायक हैं। नई पीढ़ी जिसकी भाषा में ”योग“ अब ”योगा“ हो गया है जो महज फिटनेस से जुड़ा आयाम है वह मानव मात्र की श्रेष्ठ जीवन शैली का हिस्सा होना चाहिए।
आज विश्व में योग का प्रचार हो रहा है, इसलिए क्योंकि यह सहज एवं व्यावहारिक चिकित्सा की पद्धति है, जिसमें हम मांसपेशीय, भावनात्मक तथा मानसिक तनाव, अनिद्रा, अंतःस्रावी असंतुलन, तंत्रिका तंत्र की विषमता आदि का अध्ययन कर योग द्वारा उसका समाधान करते हैं। योग दर्शन के अनुसार प्रत्येक प्राणी तीन गुणों से प्रभावित होता है- सत्वगुण, रजोगुण तथा तमोगुण। इसमें तमोगुण 50%, रजोगुण 35% तथा सत्वगुण 15% है। जीवन में जो भी नकारात्मक गुण या अभिव्यक्तियां हैं, वे सब तमोगुणी हैं। इसमें काम, क्रोध, हिंसा, अपराध, अराजकता, असंतोष, असत्य शामिल हैं, जो मनुष्य के पतन के कारण हैं।
आज योग के क्षेत्र में जो भी प्रगति हुई है, उसका श्रेय पाश्चात्य संस्कृति और सभ्यता को जाता है, क्योंकि पाश्चात्य शिक्षाविदों ने इसका वैज्ञानिक परीक्षण किया। इसकी व्यावहारिकता, वैज्ञानिकता और उपयोगिता को जानकर अपने सामाजिक तंत्रों में लागू किया। पाश्चात्य शिक्षाविदों ने इसे जेलों, बाल सुधार गृहों, स्कूलों तथा अन्य क्षेत्रों में लागू किया। उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में भी योग को स्वीकार कर लिया है। पाश्चात्य शिक्षाविदों ने इस बात का अनुभव किया कि वर्तमान शिक्षा पद्धति को हम वैज्ञानिक बना सकते हैं, किन्तु इससे एक मानव व्यक्तित्व का निर्माण नहीं कर सकते। योग का जो भी विरोध शुरु हुआ वह राजनैतिक नासमझी व अतिप्रतिक्रिया का हिस्सा भर है।
योग का किसी विशेष धर्म अथवा मान्यता से कोई सम्बन्ध नहीं है फिर भी 2008 में मलेशिया के एक इस्लामिक निकाय ने फतवा जारी कर योग के अभ्यास को रोकना चाहा जिसकी मलेशिया के मुसलमानों ने आलोचना की, 2009 में इंडोनेशिया में इस आधार पर योग पर प्रतिबन्ध लगाते हुए एक फतवा पारित किया कि इसमें हिन्दू तत्व शामिल है। बदले में, इन फतवों की भारत में देवबन्दी इस्लामिक मदरसा दारुल उलूम देवबंद ने आलोचना की है। फिर भी यौगिक क्रियाओं में कुछ उच्चारणों के अतिरिक्त ऐसा कुछ भी नहीं है जो किसी धार्मिक अवधारणा को खंडित करता हो।
संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी इस जरुरत को महसूस किया। पहली बार 11 दिसम्बर 2014 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने प्रत्येक वर्ष 21 जून को विश्व योग दिवस के रुप में मान्यता दी। 21 जून 2015 को प्रथम अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाया गया। इस अवसर पर 192 देशों और 47 मुस्लिम देशों में योग दिवस का आयोजन किया गया। दिल्ली में एक साथ 35185 लोगों ने योगाभ्यास किया। इसमें 84 देशों के प्रतिनिधि मौजूद थे। इस अवसर पर भारत ने दो विश्व रिकॉर्ड बनाकर ‘गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स’ में अपना नाम दर्ज करा लिया है। पहला रिकॉर्ड एक जगह पर सबसे अधिक लोगों के एक साथ योग करने का बना, तो दूसरा एक साथ सबसे अधिक देशों के लोगों के योग करने का। निश्चय ही योग के प्रति वैश्विक झुकाव की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम हैं। 1 दिसम्बर, 2016 को योग को अमूर्त सांस्कृतिक विरासत के रुप में यूनेस्को द्वारा सूचीबद्ध किया गया था।
योग की रोग निरोधक, स्वास्थ्य संवर्धक और रोग निवारक संभावनाओं के मूल्यांकन हेतु भारत तथा विदेशों में इसका योजनाबद्ध नियंत्रित अनुसंधान हो रहा है। भारत में कुछ प्रसिद्ध संस्थाओं जैसे शरीर क्रिया विज्ञान व सम्बन्धित विज्ञान रक्षा संस्थान (डिपास), अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स), राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य तथा तंत्रिका विज्ञान संस्थान (निम्हान्स), विवेकानन्द योग केन्द्र (वी.आई.के.) तथा कैवल्यधाम योग संस्थान, लोनावाला ने योग के प्रभावों के संबंध में जैविक, मनोवैज्ञानिक, शारीरिक चिकित्सा विषयों पर गहन अनुसंधान किया।
अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में हुए प्रारम्भिक अनुसंधान योग की शारीरिक क्षमताओं पर आधारित थे। जिन्होंने अपनी हृदय गति और चयापचय को स्वेच्छानुसार कम करके, भूमिगत कक्ष जिसमें हवा का आवागमन न हो, में ठहरने की क्षमताओं का विकास कर लिया था, ऐसे कुछ योगियों पर शरीर क्रिया संबंधी अध्ययन किया गया था। इन अध्ययनों से ऐसे संकेत मिले कि योग का लम्बी अवधि तक अभ्यास स्वायत्त तंत्रिका तंत्र पर स्वैच्छिक नियंत्रण को विकसित करता है।
किये गए अध्ययनों से पता चलता है कि छः महीने का निरन्तर यौगिक अभ्यास स्वैच्छिक स्नायु जाल की गतिविधियों को बढ़ाता है, स्वैच्छिक संतुलन को तनाव के दौरान स्थायित्व प्रदान करता है, अपेक्षित उच्च चयापचय की स्थिति उत्पन्न करता है, तापमान का नियमन करता है, शारीरिक लचक और शरीर की अधिकतम कार्य करने की क्षमता के स्तर को सुधारता है। अध्ययनों में यह भी देखा गया कि योगाभ्यास वातावरण के अनुसार स्वयं को बदलने और ज्ञान प्राप्त कराने वाली प्रणालियों जैसे एकाग्रता, स्मरण शक्ति, सीखने की क्षमता और सतर्कता को बढ़ाता है। आवश्यक उच्चरक्तचाप के नियन्त्रण एवं प्रबन्धन तथा शरीर क्रिया कार्यप्रणाली में कुछ चुनी हुई यौगिक क्रियाओं की उपचारात्मक क्षमता भी इन अध्ययनों में पाया गया है।
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