पूर्वोत्तर राज्य अपनी विविधता, बहुलतावाद और विविध पहचान के लिए जाने जाते हैं। दरअसल, वे धार्मिक प्रवृत्ति के लोग हैं, लेकिन धर्म से भी बढ़कर अपनी भाषा, संस्कृति और परंपरा का संरक्षण चाहते हैं। खासकर अपनी भाषायी पहचान बनाए रखने को लेकर खासे संवेदनशील हैं। उनके तमाम सामाजिक आंदोलन की रीढ़ भाषायी राष्ट्रवाद रहा हैं। उन्हें लगता हैं कि बाहर से लोग यहां आकर उन्हें हर मामले में अल्पसंख्यक कर देंगे। सब जानते हैं कि बांग्लादेश से समूचे पूर्वोत्तर भारत में बेतहाशा घुसपैठ होती रही हैं। असम पर तो इस लिहाज से सर्वाधिक असर पड़ा। असम में संघर्ष कभी धार्मिक नहीं रहा, वहां जातीय और भाषायी संघर्ष देखा गया।
नागरिकता संशोधन कानून (Citizenship Amendment Act, CAA) 2019 को पूर्वाेत्तर के कई राज्यों में भारी विरोध प्रदर्शन का सामना करना पडा़, यह स्थिति तब थी जब गृह मंत्री अमित शाह ने आश्वासन दिया था कि जनजातीय आबादी वाले क्षेत्रों को कानून के दायरे से बाहर रखा जाएगा। हालाँकि इस कानून में पूर्वाेत्तर के कुछ विशेष क्षेत्रों को छूट देने की बात कही गई हैं, परंतु प्रदर्शनकारियों की मांग हैं कि इस कानून को पूरी तरह से वापस लिया जाए।
आज का बांग्लादेश तथा पश्चिम बंगाल कहलाने वाला भारतीय प्रदेश एक थे और पूर्वोत्तर के सभी राज्य मणिपुर-त्रिपुरा की रियासतों को छोड़ असम का ही भाग थे। असम आजादी के बाद से ही पहले पूर्वी पाकिस्तान, फिर बांग्लादेश से होने वाली घुसपैठ का शिकार हैं। बांग्लादेश के करोड़ों लोग असम में बस चुके हैं। उनके चलते असम का सामाजिक और राजनीतिक माहौल बदल गया हैं। असमिया समुदाय की आशंकाए निर्मूल नहीं हैं कि उनकी सांस्कृतिक-भाषाई विविधता और पहचान खतरे में हैं और वह अपने ही राज्य में उत्पीड़ित, उपेक्षित अल्पसंख्यक बनते जा रहे हैं।
पूर्वोत्तर के अधिकांश लोगों को डर हैं कि यह कानून मुख्य रूप से बांग्लादेश से आने वाले अवैध बंगाली हिंदू प्रवासियों को लाभान्वित करेगा, जो कि बड़ी संख्या में इस क्षेत्र में बसे हुए हैं। यह एक सर्वविदित तथ्य हैं कि बड़ी संख्या में हिंदू और मुस्लिम भारत-बांग्लादेश की सीमा से होते हुए पूर्वाेत्तर में प्रवेश करते हैं। इसके अलावा पूर्वोत्तर के प्रदर्शनों का एक अन्य उद्देश्य इस क्षेत्र की संस्कृति को बचाए रखना भी हैं। पूर्वाेत्तर की अपनी भाषाओं पर मंडरा रहा विलुप्ति का खतरा किसी से छिपा नहीं हैं।
विवादित कानून को लेकर हो रहे प्रदर्शनों ने पूर्वाेत्तर के राज्यों मुख्यतः असम को खासा प्रभावित किया हैं, विरोध प्रदर्शनों के चलते मारे जाने वालों की संख्या 6 तक पहुँच गई हैं। प्रदर्शन को मद्देनजर रखते हुए असम और त्रिपुरा के लिये ट्रेन सेवाओं को बंद कर दिया गया था और गुवाहटी जाने वाली कई उड़ाने रद्द कर दी गई थी। इसके अलावा पूर्वोत्तर के कई क्षेत्रों में इंटरनेट सेवाएँ बंद कर दी गई। प्रदर्शन पर नियंत्रण पाने के लिये सरकार द्वारा भारी मात्रा में सेना और पुलिस बल का प्रयोग किया गया था।
पूर्वोत्तर राज्यों में हो रहे विरोध प्रदर्शन देश के अन्य हिस्सों मुख्यतः दिल्ली में हो रहे प्रदर्शनों से काफी अलग थे। जहाँ एक ओर दिल्ली में विरोध कर रहे प्रदर्शनकारियों का कहना था कि यह कानून एक धर्म विशेष के खिलाफ हैं और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता हैं। आलोचकों के अनुसार, भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में धर्म के आधार पर किसी से भेदभाव नहीं किया जा सकता।
विशेषज्ञों का मानना हैं कि यह कानून अवैध प्रवासियों को मुस्लिम और गैर-मुस्लिम में विभाजित कर कानून में धार्मिक भेदभाव को सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा हैं, जो कि लंबे समय से चली आ रही धर्मनिरपेक्ष संवैधानिक लोकनीति के विरुद्ध हैं। इस मुद्दे से इतर पूर्वोत्तर में विरोध कर रहे प्रदर्शनकारी इस कानून को अपने अस्तित्व पर खतरे के रूप में देख रहे थे। पूर्वोत्तर राज्यों के मूल निवासियां का मानना हैं कि इस कानून के माध्यम से सरकार ने उनके साथ विश्वासघात किया हैं।
नागरिकता संशोधन कानून (CAA) एक ऐसा कानून हैं जो पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आने वाले 6 समुदायों के अवैध शरणार्थियों को भारत की नागरिकता देने की बात करता हैं। इन 6 समुदायों (हिन्दू, बौद्ध, सिख, ईसाई, जैन तथा पारसी) के अलावा इन देशों से आने वाले मुसलमानों को यह नागरिकता नहीं दी जाएगी और यही भारत में इसके विरोध की जड़ हैं।
इस कानून में 31 दिसंबर, 2014 को या उससे पहले पाकिस्तान, बांग्लादेश एवं अफगानिस्तान में धार्मिक आधार पर उत्पीड़न के शिकार गैर मुस्लिम शरणार्थियों (जैसे हिंदू, जैन, बौद्ध, सिख, पारसी और ईसाई समुदाय के लोगों) को आसानी से भारत की नागरिकता दिए जाने का प्रावधान हैं क्यांकि इन तीन देशों के साथ हमारे ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और सामाजिक संबंध रहे हैं। नागरिक संशोधन विधेयक (CAA) 2019 के तहत सिटिजनशिप एक्ट 1955 में बदलाव का प्रस्ताव हैं। सिटिजनशिप एक्ट 1955 के मुताबिक, भारत मे 11 वर्ष रहने के बाद ही यहाँ की नागरिकता दिए जाने का प्रावधान हैं लेकिन इस संशोधन कानून में गैर मुस्लिम शरणार्थियों के लिए यह बाध्यता नहीं होगी। उनके लिए यह समय की अवधि घटकर 11 वर्ष से 6 वर्ष कर दी गई हैं
यदि वह व्यक्ति अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान से आया हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी या ईसाई हैं, जिन्हें केंद्र सरकार द्वारा छूट दी गई हैं अथवा पासपोर्ट (भारत में प्रवेश) अधिनियम 1920 के खंड-3, उपखंड-2 और प्रावधान सी से छूट प्राप्त हो अथवा जिनको विदेशी नागरिक अधिनियम, 1946 के प्रावधानों के प्रभाव से छूट प्राप्त हो, उन व्यक्तियों को इस कानून के अंतर्गत अवैध प्रवासी नहीं माना जाएगा।
सी.ए.ए में कहा गया हैं कि ‘‘इस खंड में कुछ भी असम, मेघालय, मिजोरम या त्रिपुरा के आदिवासी क्षेत्रों पर लागू नहीं होगा जैसा कि संविधान की छठी अनुसूची में शामिल हैं और इनर लाइन परमिट के अंतर्गत आने वाला क्षेत्र बंगाल ईस्टर्न फ्रंटियर रेगुलेशन, 1873 के तहत अधिसूचित हैं। इनर लाइन परमिट (ILP) प्रणाली अरूणाचल प्रदेश, नागालैंड और मिजोरम में प्रचलन में हैं। नागालैंड में, दीमापुर शहर अभी तक (ILP) के अंतर्गत नहीं आया हैं।
पूर्वोत्तर के संगठनों की चिंता को देखते हुए सरकार ने इसमें बदलाव भी किए हैं। अब उन राज्यों मेें जहाँ इनर लाइन परमिट (ILP)लागू हैं उन्हें नागरिकता संशोधन कानून से छूट दी गई हैं। यहीं नहीं नॉर्थ ईस्ट के चार राज्यों के छह अनुसूचित जनजातीय क्षेत्रों को भी इससे छूट हासिल होगी
असम को पूर्वाेत्तर में हो रहे विरोध प्रदर्शनों का केंद्र माना जा रहा था और असम में विवाद का मुख्य कारण वर्ष 1985 में हुआ असम समझौता हैं। दरअसल असम के प्रदर्शनकारी इस कानून को वर्ष 1985 के असम समझौते (Assam Accord) से पीछे हटने के एक कदम के रूप में देख रहे थे।
वर्ष 1971 में जब पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) के खिलाफ पाकिस्तानी सेना की हिंसक कार्रवाई शुरू हुई तो वहाँ के लगभग 10 लाख लोगों ने असम में शरण ली। हालाँकि बांग्लादेश बनने के बाद इनमें से अधिकांश वापस लौट गए, लेकिन फिर भी बड़ी संख्या में बांग्लादेशी असम में ही अवैध रूप से रहने लगे। वर्ष 1971 के बाद भी जब बांग्लादेशी अवैध रूप से असम आते रहे तो इस जनसंख्या परिवर्तन ने असम के मूल निवासियों में भाषायी, सांस्कृतिक और राजनीतिक असुरक्षा की भावना उत्पन्न कर दी तथा 1978 के आस-पास वहाँ एक आंदोलन शुरू हुआ।
असम में घुसपैठियों के खिलाफ वर्ष 1978 से चले लंबे आंदोलन और 1983 की भीषण हिंसा के बाद समझौते के लिये बातचीत की प्रक्रिया शुरू हुई। इसके परिणामस्वरूप 15 अगस्त, 1985 को केंद्र सरकार और आंदोलनकारियों के बीच समझौता हुआ जिसे असम समझौते के नाम से जाना जाता है। असम समझौते के मुताबिक 25 मार्च, 1971 के बाद असम में आए सभी बांग्लादेशी नागरिकों को यहाँ से जाना होगा, चाहे वे हिंदू हों या मुसलमान।
असम में इस अधिनियम को लेकर विरोध की एक बड़ी वजह यही हैं कि हालिया नागरिकता संशोधन कानून असम समझौते का उल्लंघन करता हैं, क्योंकि इसके तहत उन लोगों को भारतीय नागरिकता दी जाएगी जो 1971 से 2014 के बीच भारत आए थे।
मिजोरम जैसे अन्य पूर्वोत्तर राज्यों में इस भय से विरोध आरंभ हो गया था कि कानून से हजारों बौद्ध चकमा की भारतीय नागरिकता प्रदान किए जाने की मांग को बल मिलेगा। मेघालय के मुख्यमंत्री कोनार्ड संगमा ने कानून का मुखर विरोध करते हुए कहा कि चूंकि मेघालय एक छोटा राज्य हैं, इसलिए यह कानून पारित होने की सूरत में हजारों बांग्लादेशी हिंदूओं का रैला उमड़ आने से राज्य के मूल निवासी अल्पसंख्यक हो जांएगे। नागालैंड में भी नागालैंड ट्राइब्स काउंसिल और उसकी छात्र फेडरेशन ने कानून का विरोध किया था। वे इसे नागालैंड के स्थानीय लोगांे के लिए खतरा मानते हुए कहते हैं कि इसके पारित होने से नागालैंड अवैध विदेशियों के लिए डंपिंग ग्रांउड बन जाएगा। इसी प्रकार का भय त्रिपुरा में देखने को मिल रहा हैं। त्रिपुरा इंडिजेनस ट्राइबल पार्टीज फोरम ने विरोध प्रदर्शन किया। कोकबोरोक का उदाहरण देते हुए कहा कि कभी राज्य की जनसंख्या में कोकबोरोक 80 प्रतिशत तक होते थे, लेकिन आज घटकर मात्र 33 प्रतिशत रह गए हैं कुछ दिन पहले मणिपुर में कानून के विरोध में पूरी तरह बंद रखा गया। अरूणाचल प्रदेश में भी विरोध की ऐसी ही भावना हिलोरे मार रही हैं। वहां कानून का विरोध करने वाले कह रहें हैं कि कानून को इसके पूर्व स्वरूप में पारित किया जाता हैं, तो चकमा, तिब्बती और हाजोंग शरणार्थियों को भी वैसा ही दरजा दिया जाएगा।
पर इसने निश्चित तौर पर असम और त्रिपुरा के मूल स्थानीय लोगों को परेशान किया हैं, जिन्हें लगता है ंकि उनके साथ धोखा हुआ हैं, क्योंकि उन्हें डर हैं कि उन्हं बंगाली हिंदुओं को नागरिकता देने वाले सी.ए.ए का बोझ उठाना पड़ेगा। त्रिपुरा में बंगाली हिंदू बहुसंख्यक हैं और उनकी संख्या 70 फीसदी हैं, जबकि असम में बंगाली हिंदुओं की संख्या 13 फीसदी हैं। परन्तु गृह मंत्री अमित शाह ने इनर लाइन परमिट वाले और छठी अनुसूची की स्वायत्तता के प्रावधानों वाले राज्यों व क्षेत्रों को इससे बाहर रखने का फैसला करके पूरे पूर्वोत्तर में तबाही रोकने में कामयाब रहे।
नागरिकता संशोधन कानून के निरस्तीकरण की मांग के अलावा इस क्षेत्र में ‘इनर लाइन परमिट‘ (ILP) को पूरे पूर्वोत्तर में लागू करने की मांग भी काफी जोरांे पर हैं। वर्तमान में यह परमिट व्यवस्था अरूणाचल प्रदेश, मिज़ोरम और नागालैंड में लागू हैं। अरूणाचल प्रदेश, मिजोरम और नागालैंड के मूल निवासियों की पहचान को बनाए रखने के लिये यहाँ बाहरी व्यक्तियों का (ILP) के बिना प्रवेश निषिद्ध हैं।
यह एक आधिकारिक यात्रा दस्तावेज हैं जिसे भारत सरकार द्वारा किसी भारतीय नागरिक को संरक्षित क्षेत्र में सीमित समय के लिये आंतरिक यात्रा की मंजूरी देने हेतु जारी किया जाता हैं। इसे ऑनलाइन या ऑफलाइन रूप से आवेदन करने के बाद प्राप्त किया जा सकता हैं और जिसमें यात्रा की तारीखें और उन क्षेत्रों को निर्दिष्ट करना होता हैं जहाँ (ILP) धारक यात्रा करना चाहते हैं। आगंतुकों को इस संरक्षित क्षेत्र में संपत्ति खरीदने का अधिकार नहीं होता हैं।
इस दस्तावेज को ‘बंगाल ईस्टर्न फ्रंटियर रेगुलेशन‘ एक्ट, 1873 के तहत जारी किया जाता हैं। विदित हो कि अंग्रेजों द्वारा इनर लाइन परमिट की शुरूआत, उनके क्षेत्रों में अतिक्रमण से जनजातीय आबादी की रक्षा के लिए की गयी थी, लेकिन बाद में संघ के एक राज्य में प्रवेश करने के लिए वाणिज्यिक हितों को आगे बढाने के लिए भारतीय नागरिकों को वीजा देने की प्रणाली के लिए इस्तेमाल किया गया। सरल शब्दों में कहें तो ब्रिटिश सरकार ने इनर लाइन सिस्टम इसलिए लागू किया था कि नागालैंड और अन्य क्षेत्रों में प्राकृतिक औषधि और जड़ी-बूटियों का प्रचुर भंडार था जिसे ब्रिटिश सरकार इंग्लैंड भेजा करती थी। इन पर किसी और की नजरें नहीं पड़े तो उन्हें सबसे पहले नागालैंड में इसकी शुरूआत की थी। आजादी के बाद भी ऐसी व्यवस्था लागू हैं। अब इसके पीछे तर्क दिया जाता है कि इन राज्यों के मूल निवासियों की कला, संस्कृति रहन-सहन, बोलचाल औरों से काफी अलग हैं, ऐसी स्थिति में इनके संरक्षण के लिए इनर लाइन परमिट व्यवस्था को लागू करना बहुत जरूरी हैं ताकि बाहरी लोग इधर की संस्कृति को प्रभावित न कर सकें। 1950 में, भारत सरकार ने ‘ब्रिटिश विषयों‘ को ‘भारत के नागरिक‘ के साथ बदल दिया, ताकि उनके हितों की रक्षा के बारे में स्थानीय चिंताओं को दूर किया जा सके।
अनुच्छेद 244 (2) और 275 (1) में वर्णित संविधान की छठी अनुसूची असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम के प्रशासन में विशेष प्रावधानों से संबंधित हैं और इन राज्यों में स्वायत्त जिला परिषदों (ADCs) के लिए विशेष अधिकार प्रदान करती हैं। आदिवासी क्षेत्रों के विकास को सुनिश्चित करने और आदिवासी समुदायों द्वारा स्व-शासन को बढ़ावा देने के उद्देश्य से स्वायत्त जिला परिषद के पास विभिन्न विषयों पर उनके अधिकार क्षेत्र के तहत क्षेत्रों में कानून बनाने की शक्तियाँ हैं।
मणिपुर पर जेएनयू में स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज में सहायक प्रोफेसर एल. लाम. खान पियांग का कहना हैं कि त्रिपुरा की तरह मणिपुर एक रियासत थी। जब वे भारतीय संघ में शामिल हो गए (दोनों 1949 में, जहाँ दोनों 1972 में पूर्ण विकसित राज्य बन गए), वे छठी अनुसूची की योजना से बाहर थे। केवल 1985 से, त्रिपुरा के आदिवासी क्षेत्रों में छठी अनुसूची लागू की गई थी। तो केंद्र ने कहा था कि मणिपुर में भी इसे जल्द ही बढ़ाया जाएगा, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। हालांकि, मणिपुर में राज्य सरकार ने छठी अनुसूची के लिए तीन बार सिफारिश की थी लेकिन इन्होंने इसे ठीक से आगे नहीं बढ़ाया। पियांग ने कहा कि कंद्र ने राज्य का दर्जा देते हुए यह जाना कि आदिवासियों के लिए कुछ समस्याएँ आ सकती हैं और इसलिए अनुच्छेद 371 सी लागू किया गया।
मिजोरम किसी भी मामले में ILP शासन के अंतर्गत आता हैं। छठी अनुसूची के तहत संरक्षित क्षेत्रों वाले अन्य तीन राज्यों में, आदिवासी बहुल मेघालय में तीन एडीसी हैं जो शिलॉन्ग शहर के एक छोटे से हिस्से को छोड़कर व्यावहारिक रूप से पूरे राज्य को कवर करते हैं। असम में तीन एडीसी और त्रिपुरा एक हैं और सभी छठी अनुसूची शक्तियां के साथ हैं।
कुछ राज्य तो इनर लाइन परमिट से पूरी तरह सरंक्षित हैं पूर्वोत्तर के जो जनजातीय क्षेत्र हैं वे भी इस कानून से बाहर हैं ताकि उनकी मूल संस्कृति सुरक्षित रहे। पूर्वोत्तर के जो इलाके इस कानून के दायरे में हैं वे वहीं हैं जहां बाहरी लोग दशर्काें से रह रहे हैं और वहां के माहौल में घुलमिल गए हैं। कंद्र सरकार का मानना हैं कि इनमें से पात्र लोगों को नागरिकता देकर वहीं बसाना बेहतर होगा। ऐसे इलाकों से संबंधित राज्य सरकारे सैद्धांतिक तौर पर इससे सहमत हैं।
वर्ष 2011 की जनगणना के भाषायी आँकड़े असमिया और बंगाली भाषा के बीच के संघर्ष को स्पष्ट करते हैं। आँकड़े के अनुसार, वर्ष 1991 में इस क्षेत्र में असमिया भाषा बोलने वाले लोगों की कुल संख्या लगभग 58 प्रतिशत थी जो कि वर्ष 2011 में घटकर 48 प्रतिशत हो गई, वहीं क्षेत्र में बांग्ला भाषी उसी अवधि में 22 प्रतिशत से बढ़कर 30 प्रतिशत हो गए।
दरअसल भाषा के अस्तित्व की इस जंग का इतिहास काफी पुराना माना जाता हैं। वर्ष 1826 मं अग्रेंजों ने जब असम पर कब्जा किया तो वे अपने साथ लिपिक कार्य (Clerical Work) करने हेतु बांग्ला भाषी लोगों को लेकर आए। धीरे-धीरे जब बांग्ला भाषी लोगों की संख्या बढ़ने लगी तो उन्होंने अंग्रेजों को विश्वास दिलाया कि असमिया भाषा बांग्ला भाषा का ही एक विकृत रूप हैं, जिसके पश्चात् उन्होंने बांग्ला को असम की आधिकारिक भाषा निर्धारित कर दिया।
ईसाई मिशनरियों के हस्तक्षेप की बदौलत वर्ष 1873 में असमिया भाषा ने अपना सही स्थान प्राप्त किया, परंतु बांग्ला भाषा के प्रभुत्व को लेकर असम के लोगों की असुरक्षा की भावना आज भी उसी तरह बरकरार हैं जैसे 1873 से पूर्व थी। असम के लोगों को डर हैं कि यदि बांग्ला भाषी अवैध अप्रवासियों को नागरिकता दे दी जाएगी तो वे स्थानीय लोगों पर अपना वर्चस्व कायम कर लेंगे जैसा कि त्रिपुरा में हुआ जहाँ पूर्वी बंगाल के बंगाली-हिंदू अप्रवासी अब राजनीतिक सत्ता में हैं और वहाँ के आदिवासी हाशिये पर आ गए हैं।
असमिया भाषा के अलावा पूर्वोत्तर में बोली जाने वाली अन्य भाषाओं की स्थिति भी कुछ इसी प्रकार की हैं। यूनेस्को की विलुप्त भाषा संबंधी आँकड़ों पर गौर करें तो ज्ञात होता है कि पूर्वोत्तर में बोली जाने वाली 200 से अधिक भाषाएँ संवेदनशील श्रेणी में हैं।
इस देश के लोगों को सी.ए.ए से कोई खतरा नहीं है। यह कानून सिर्फ शरणार्थियों के लाभ के लिए लाया गया हैं और भारतीय नागरिकों को चिंता करने की जरूरत नहीं हैं। यह भारतीय मुसलमानों के खिलाफ नहीं हैं। भारतीय मुसलमानों को सी.ए.ए से चिंतित होने की जरूरत नहीं है। यह किसी की नागरिकता छीनने के लिए नहीं बल्कि नागरिकता देने के लिए हैं। यह कानून दूसरे देशों के नागरिकों के लिए हैं, जो भारत की नागरिकता चाहते हैं। सी.ए.ए धर्म के आधार पर लोगों में भेदभाव नहीं करता हैं। नागरिकता राष्ट्रीयता के आधार पर दी जाती हैं, न कि धर्म या जाति के आधार पर। असम, अरूणाचल जैसे प्रदेशों की समस्या अवैध घुसपैठिए हैं, न कि प्रताड़ित और लुटे-पिटे शरणार्थी हिंदू, बौद्ध और सिख।
स्रोत :- इस लेख में The Hindu, The Indian Express, Business Line, Amar Ujala And Dainik Jagran, आदि में प्रकाशित लेखों का भी विश्लेषण किया गया हैं। The Dristi, Dec. 2019
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