संस्कृति शब्द बहुआयामी तथा बहुस्तरीय अर्थ का द्योतक है, संस्कृति एक अमूर्त (Abstract) संकल्पना है। संस्कृति का अर्थ है, मस्तिष्क तथा व्यवहार का परिमार्जन। अर्थात् उत्तम या सुधरी हुई स्थिति से है। संस्कृति किसी समाज में पाये जाने वाले, उच्चतम् मूल्यों और आदर्शों की वह चेतना है जो सामाजिक प्रथाओं, रीति-रिवाजों, चित्तवृत्तियों, भावनाओं, मनोवृत्तियों, रहन-सहन और आचरण के साथ-साथ उनके द्वारा भौतिक पदार्थों को विशिष्ट स्वरूप दिये जाने में अभिव्यक्त होती है। यूनेस्को (UNESCO) की घोषणा में इसे कुछ और स्पष्ट करते हुए कहा गया है, कि नैतिक मूल्यों तथा मानवीय सम्बन्धों के सन्दर्भ में मानवीय व्यवहार संस्कृति है। रामायण तथा महाभारत जैसे ग्रन्थ महज धर्म के स्त्रोत साहित्य के रूप में नहीं देखे जा सकते, बल्कि वे तत्कालीन संस्कृति तथा सांस्कृतिक आदर्शों के महत्वपूर्ण दस्तावेज हैं। आचार्य नरेन्द्र देव की परिभाषा के अनुसार - ‘‘संस्कृति मानव चित्त की खेती है, इस मानव चित्त का निरन्तर संस्कार होता रहना चाहिए।‘’
इस देश की विविध संस्कृतियों ने आपसी विनिमय तथा सामजंस्य से भारतीय संस्कृति को समृद्ध किया है। रिचर्ड निक्सन ने एक बार अपने देश संयुक्त राज्य अमेरिका के विषय में कहा था - ‘‘हमारी एकता के कारण हम शक्तिशाली हैं, परन्तु अपनी विविधता के कारण हम और भी अधिक शक्तिशाली हैं।‘‘ यह बात संयुक्त राज्य अमेरिका से कहीं अधिक भारत के सन्दर्भ में सत्य है। संक्षेप में कह सकते हैं, कि सर्वस्व का सर्वस्व के लिए अवदान संस्कृति है। काल के पैमाने पर सांस्कृतिक मूल्यों का प्रभाव ही परम्परा है। इसकी उदारता तथा समन्वयवादी गुणों ने अन्य संस्कृतियों को समाहित तो किया है किन्तु अपने अस्तित्व के मूल को सुरक्षित भी रखा है। सिन्धु घाटी सभ्यता के काल से अब तक भारतीय संस्कृति ने उत्कर्ष और अपकर्ष अनेक दौर देखे हैं और सदियों से झंझावातों का दृढ़तापूर्वक सामना करते महान् अक्षय वटवृ़क्ष की भांति अपनी शाखाओं, प्रशाखाओं का निरन्तर विस्तार कर रही है। राष्ट्र की भौगोलिक सीमा से परे भारतीय संस्कृति ने ‘बसुधैव-कुटुम्बकम्‘ का सन्देश दिया है।
विश्व के अनेक देश जब अंधकारमय जीवन व्यतीत कर रहे थे। उस समय भारत एशिया के कई देशों में अपनी सभ्यता एवं संस्कृति को पल्लवित कर रहा था। डॉ0 आर0सी0 मजूमदार ने लिखा है - ‘‘भारत ने दक्षिण-पूर्व में स्थित एशिया के देशों को सभ्य बनाने में उतना ही महत्वपूर्ण योगदान दिया जितना कि प्राचीन यूनान ने समस्त यूरोप को सभ्य बनाने में दिया था।‘‘
यह माना जाता है, कि भारतीय संस्कृति यूनान, रोम, मिस्र, सुमेर और चीन की संस्कृतियों के समान ही प्राचीन है। कई भारतीय विद्ववान तो भारतीय संस्कृति को विश्व की सर्वाधिक प्राचीन संस्कृति मानते हैं। डॉ0 राधाकमल मुकर्जी ने सर्वप्रथम अपनी पुस्तक ‘दी फण्डामेन्टल यूनिटी ऑफ इण्डिया‘ में ‘वृहत्तर भारत‘ शब्द का प्रयोग किया। इससे तात्पर्य दक्षिण-पूर्व के उपनिवेशों यथा - जावा, मलाया, सुमात्रा, बर्मा, श्रीलंका, बोर्नियो, कम्बोडिया, चम्पा, बाली आदि से था। जहां भारत ने अपने उपनिवेश स्थापित किये थे एवं भारतीय संस्कृति का साम्राज्य स्थापित किया था उसे स्थूल रूप से ‘वृहत्तर भारत‘ भी कह सकते हैं।
विश्व इतिहास में भारत की सांस्कृतिक विजय से अधिक शान्तिपूर्ण स्थायी व्यापक और हितकर कोई अन्य विजय नहीं हुई। इसने एक ‘विलक्षण साम्राज्य‘ स्थापित किया, यह ऐसा साम्राज्य नहीं था जिसमें एक सार्वभौम सत्ता के अन्तर्गत साधारण राजनैतिक जीवन में सभी सम्भागी हो, वरन् स्वतन्त्र राष्ट्रों का ऐसा समान तन्त्र था जिसमें साधारण, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक जीवन में सभी सम्भागी थे। भारतीय ऋषियों, बौद्ध भिक्षुओं, व्यापारियों तथा राजाओं ने विदेशों में भारतीय संस्कृति के प्रसार में सहयोग किया। भारत ने 1991 में नई आर्थिक नीति के जरिये उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण को स्वीकार किया। भूमंडलीकरण ‘वैश्विक ग्राम‘ की संकल्पना के साथ आया, जबकि संस्कृति अपने क्षेत्र विशेष की पहचान और विशेषता को बचाये रखने का नाम है।
सामरिक महत्ता:- हिन्द महासागर के तट पर स्थित होने के कारण विश्व में भारत की स्थिति केन्द्रीय सामरिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। अपनी इसी स्थिति के कारण भारत कई एशियाई देशों के सम्पर्क में आया। अनेक एशियाई देश उस समय सभ्यता एवं संस्कृति के विकास की अवस्था में काफी पीछे थे। सुमात्रा, जावा, बोर्नियो, बाली, स्याम, हिन्द-चीन, बर्मा और मलाया द्वीप समूह आदि देश भारतीय संस्कृति के सम्पर्क में आकर सभ्य बनें।
दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों में भारतीय संस्कृति तथा धर्म का जितना प्रभाव पड़ा, शायद ही संसार के किसी अन्य देश पर पड़ा हो। भारतीय संस्कृति के ज्योतिपुंज बौद्ध धर्म-प्रचारक ब्राह्मण आचार्य तथा उपदेशक भी दूरस्थ देशों को भारतीय सौदागरों के साथ-साथ जाते थे। इनका परम लक्ष्य सत्य का अन्वेषण और उसका विश्व में प्रसार करना था। नालंदा, विक्रमशिला और ओदंतपुरी के शिक्षकों और छात्रों ने धर्म-प्रचार के कार्य को उत्साहपूर्वक अन्जाम दिया। इनमें आचार्य कुमारजीव, आचार्य कमलशील, ज्ञानभद्र आदि के नाम प्रसिद्ध हैं। इससे पहले भी ईसा पूर्व में एक ब्राह्मण कौंडिण्य ने दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों में हिन्दू संस्कृति के विस्तार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। बर्मा को छोड़कर अन्य दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों में भारतीय संस्कृति का प्रसार मुख्यतः ब्राह्मण धर्म के जरिये हुआ। आज भी इन देशों में मनोरंजन के साधन के रूप में छाया नाटक ‘वायंग‘ काफी प्रचलित व लोकप्रिय है, जिसमें रामायण तथा महाभारत की कहानियों का मंचन होता है।
व्यापार:- दक्षिण-पूर्व एशिया में सांस्कृतिक प्रसार का सारा श्रेय धर्म को नहीं जाता है। इन क्षेत्रों में पहले व्यापारी आये, फिर उनके साथ धर्म-प्रचारक और विजयाकांक्षी भी आते रहे। भारत का व्यापार के माध्यम से जो सम्पर्क बाह्य देशों से हुआ, उसे वह सांस्कृतिक विजय में तब्दील करने में सफल रहा। दक्षिण-पूर्व एशिया के इन क्षेत्रों में ‘सुवर्ण भूमि‘ और ‘सुवर्ण द्वीप‘ (बर्मा, स्याम, तोकिन, अनाम, कम्बोडिया, मलाया, जावा, सुमात्रा, बाली, बोर्नियो और तिमोर क्षेत्र से है) में भारतीय सोने की खोज में आते हैं। वहाँ की असभ्य तथा अनुन्नत जातियां भारतीय वणिकों के सम्पर्क में आयी और उन्होंने भारतीय संस्कृति के प्रथम पाठ उनसे सीखे। व्यापार के द्वारा वस्तु विनिमय तो हुआ ही, साथ ही साथ सांस्कृतिक तत्वों का भी आदान-प्रदान हुआ।
उपनिवेशों की स्थापना:- प्राचीन भारतीय राजवंशों के कतिपय राजाओं ने वृहत्तर भारत के निर्माण में यथोचित सहयोग किया। चोल, चेर, कलिंग, बंगाल, तथा पल्लव आदि राज्यों के शासकों की शक्तिशाली नौसेना ने समुद्र तटीय द्वीपों पर अधिकार कर लिया, फलस्वरूप सुदूर-पूर्व में बर्मा, लंका, जावा, सुमात्रा, कम्बोडिया, बाली, बोर्नियो, चम्पा एवं स्याम आदि देशों में भारतीय संस्कृति पल्लवित हुई।
1. श्रीलंका - किवदन्ती के अनुसार लंका का राजा रावण था, लेकिन ऐतिहासिक रूप से भारत-श्रीलंका का सम्बन्ध मौर्य काल में शुरू हुआ और वह आगे भी जारी रहा। यह यथार्थ में उपनिवेश बन गया था, जब बंगाल के राजकुमार ‘विजय‘ ने इसे विजित कर सिंहलवंश की नींव डाली थी। सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार हेतु अपने पुत्र महेन्द्रवर्मन तथा पुत्री संघमित्रा को श्रीलंका भेजा। उनके साथ कई विद्वान भी गये। उस समय श्रीलंका में देवानामपिय तिस्स का शासन था। भारत में जो लोग गये उन्होंने मौखिक रूप से ही बौद्ध धर्म का प्रचार किया। श्रीलंका में रचित ‘दीपवंश‘ और महावंश बौद्ध धर्म के विख्यात् स्त्रोत हैं। श्रीलंका की चित्रकला का सबसे सुन्दर निर्देशन ‘सिगिरिया‘ नामक गुफा बिहार में मिलता है। इसकी भित्तियों पर बनाये गये चित्रों का आकार-प्रकार भारत की अमरावती की कला शैली में है। नौवीं शताब्दी में चोल राजाओं ने उत्तरी श्रीलंका में हिन्दू धर्म, संस्कृति और तमिल भाषा का प्रचार किया जबकि दक्षिण में सिंहली भाषा और बौद्ध धर्म की प्रधानता बनी रही।
2. बर्मा (म्याँमार) - ईसवी सन् के प्रारम्भ से ही भारतीय संस्कृति और भारतीय लोग बर्मा पहुँचने लगे थे। बर्मा चीन जाने वाले रास्ते में पड़ता था। भारतीय शासकों ने प्राचीन काल में सर्वप्रथम यहाँ अपना उपनिवेश स्थापित किया। कालान्तर में पीगू, थाटन, श्रीक्षेत्र, अराकान आदि प्रदेशों में उपनिवेश स्थापित हुए। अमरावती और ताम्रलिप्ति से आने वाले लोगों ने दूसरी सदी के बाद बर्मा में बसना आरम्भ कर दिया। इनमें व्यापारी, ब्राह्मण, कलाकार, शिल्पी और अन्य लोग शामिल थे। भड़ौच, वाराणसी और भागलपुर के व्यापारी बर्मा के साथ व्यापार करते थे। अशोक के समय में बर्मा स्वर्ण भूमि के नाम से प्रसिद्ध था। अशोक ने सोन तथा उत्तरा नामक बौद्ध भिक्षुओं को धर्म प्रचार हेतु बर्मा भेजा। 450 ई0 में आचार्य बुद्धघोष ने वहाँ जा कर हीनयान मत की स्थापना की।
बर्मा में पगान 11वीं से 13वीं सदी तक बौद्ध-संस्कृति का महान केन्द्र बना रहा। यहाँ के एक प्रतापी राजा का नाम अनिरुद्ध था। उन्होंने ‘स्वेडगन पगोडा‘ तथा हजारों की संख्या में मन्दिर बनवाये। बर्मा में बौद्ध तथा हिन्दू धर्म का सर्वाधिक प्रसार ‘क्यानिजत्य‘ नामक शासक के समय में हुआ। उसने शासक बनने के बाद ‘श्रीत्रिभुवानादित्य‘ की उपाधि धारण की थी। उसने पैगन में ‘आनन्द मन्दिर‘ का निर्माण करवाया था। ऐसा प्रतीत होता है, कि इस मन्दिर का निर्माण भारतीय कलाकारों के द्वारा किया गया था। यह मन्दिर भारतीय भवन निर्माण कला का एक श्रेष्ठ नमूना है।
3. तिब्बत - तिब्बत के साथ भारत के बहुत पुराने सांस्कृतिक सम्बन्ध रहे हैं। माना जाता है, कि तिब्बत के राजा नरदेव ने अपने एक मन्त्री थोन्मी संभोट के साथ 16 श्रेष्ठ विद्वानों को मगध भेजा। इन विद्वानों ने भारतीय शिक्षकों से ज्ञान प्राप्त किया। थोन्मी संभोट ने भारतीय लिपि के आधार पर तिब्बत के लिए एक नई लिपि का आविष्कार किया। आज तक तिब्बत में इसी लिपि का प्रयोग किया जाता है। सातवीं सदी तक यह एक असभ्य देश था, जिसमें न कोई धर्म था न सभ्यता और न भाषा। इस देश को सुसभ्य बनाने का सत्कार्य भारतवासियों ने किया।
नालंदा विश्वविद्यालय के आचार्य कमलशील को तिब्बत के राजा ने आमन्त्रित किया था। ज्ञानभद्र, एक प्रकांड विद्वान थे। जो अपने दोनों बेटों के साथ धर्म-प्रचार के लिए तिब्बत गये। बिहार के ओदंतपुरी विश्वविद्यालय के समान तिब्बत में एक नये बौद्ध विहार की स्थापना की गयी थी। प्रसिद्ध शिक्षकों में से एक कुमारजीव भी 5वीं शताब्दी में सक्रिय थे। थोन्मी संभोट, ह्वेनसांग के नालंदा आगमन के समय, नालंदा विश्वविद्यालय का छात्र था। आचार्य अतीश दीपंकर श्रीज्ञान, विक्रमशिला विश्वविद्यालय के प्रधान थे। वे 11वीं शताब्दी में तिब्बत गये और वहाँ बौद्ध धर्म की सशक्त नींव डाली।
4. इंडोनेशिया - इंडोनेशिया गणराज्य में हजारों द्वीप शामिल हैं। इनमें बोर्नियो और सुमात्रा भौगालिक रूप से विशाल द्वीप हैं। लेकिन ऐतिहासिक-सांस्कृतिक रूप से भारत के लिए जावा, सुमात्रा और बाली की विशेष महत्ता है।
5. जावा (यवद्वीप) - सन् 132 ई0 में जावा का शासक देववर्मन था। जो कि एक भारतीय नाम है। यहाँ के शासक वर्मन कहलाते थे, जिसका अर्थ है - रक्षक। यहाँ ब्राह्मणों का प्रभुत्व है और यहाँ के महान राजा पूर्णमल और संजय हिन्दू धर्म मानते हैं। शिव, विष्णु और ब्रह्मा वहाँ के प्रिय देवता थे। चीनी यात्री फाहृयान भी यहाँ पर लगभग एक माह तक रहा था। उस समय बौद्ध धर्म यहाँ का मुख्य धर्म बन चुका था। आठवीं शताब्दी में एक आन्दोलन ने शैैलेन्द्र वंश के शासकों को शक्तिशाली बना दिया। जिनके काल में कला-कौशल में अपार उन्नति की, शैलेन्द्र शासक समरतुंग ने नवीं शताब्दी में बोरोबुदूर में एक विशाल बौद्ध-स्तूप का निर्माण कराया, जो समकालीन स्थापत्य कला का एक भव्य नमूना है। यहाँ जावा द्वीप में स्थित ‘प्रम्बनन‘ शिव मन्दिर है। यह मन्दिर नवीं शताब्दी में बनाया गया। इसके मध्य में सबसे बड़ा मन्दिर शिव मन्दिर है। इसके दोनों और ब्रह्मा और विष्णु के मन्दिर हैं। इस प्रांगण में छोटे-छोटे 240 मन्दिरों की पंक्तियाँ है। यह मन्दिर वास्तुशिल्प का अनुपम उदाहरण है।
जावा द्वीप पर अधिक संख्या में पांडुलिपियाँ मिली हैं। यह प्रायः ताड़पत्रों पर जावा की प्राचीन लिपि ‘कावि‘ में लिखी गयी हैं। इसका आधार ब्राह्मी लिपि है। इन ग्रंथों में संस्कृत श्लोक तथा ‘कावि‘ भाषा में अनेक टीकाएँ लिखी गयी हैं। शैव धर्म तथा दर्शन के ग्रन्थों में ‘भुवनकोश‘ सबसे बड़ा और सबसे पुराना ग्रन्थ है। शैलेन्द्र शासकों ने भारत में भी बौद्ध शिक्षा के केन्द्र नालंदा, विक्रमशिला आदि विश्वविद्यालयों को अनुदान दिया।
6. सुमात्रा (श्रीविजय) - भारतीय संस्कृति का सुमात्रा में प्रवेश भारतीय व्यापार के जरिए मौर्योत्तर काल में प्रथम शताब्दी ई0 में हुआ लेकिन प्रभावी सम्पर्क चौथी शताब्दी में गुप्तकाल में कायम हुआ। चौथी शताब्दी में ही इस क्षेत्र. में ‘पेलबंग‘ राज्य की स्थापना हुई। यह एक हिन्दू राज्य था। जिसे आगे चलकर ‘श्रीविजय‘ राज्य कहा गया। इसकी राजधानी ‘भोज‘ थी। सातवीं सदी में श्रीविजय वैभव के शिखर पर था। 671 ई0 में चीनी यात्री ‘इत्सिंग‘ श्रीभोज होते हुए भारत आया था। इत्सिंग का मानना है, कि श्रीविजय के शैलेन्द्र वंश के शासक मूलतः भारतीय थे और शैलेन्द्र वंश के शासकों का ही जावा, सुमात्रा, बाली, बोर्नियो, दक्षिणी बर्मा, मलय और कंबोज द्वीपों पर कब्जा था।
अरब यात्रियों ने अपने लेखों में उनके साम्राज्य की विशालता तथा वैभव का वर्णन किया है। ‘मसूदी‘ ने लिखा है कि - ‘‘यहाँ का सम्राट असीम साम्राज्य पर शासन करता है।‘‘ 11वीं शताब्दी में दक्षिण भारत के चोल शासक राजेन्द्र चोल ने शैलेन्द्र वंश के शासकों को बुरी तरह पराजित कर उनके अधिकांश प्रदेशों पर अधिकार कर लिया। शैलेन्द्र शासक महायान शाखा के बड़े संरक्षक थे और भारत के नालंदा विश्वविद्यालय से शिक्षा सम्बन्ध रखते थे।
7. बाली और बोर्नियो - जावा के पूर्व में बाली नामक छोटा सा द्वीप एकमात्र प्राचीन उपनिवेश है। जहाँ हिन्दू संस्कृति और हिन्दू सभ्यता विद्यमान है और दसवीं शताब्दी में ‘उग्रसेन‘ तथा ‘केसरी‘ आदि हिन्दू राजाओं ने शासन किया। यहाँ के शासकों का चीन के साथ राजनीतिक सम्पर्क था। बाली द्वीप से संस्कृत के 500 से अधिक सूक्त तथा श्लोक इकट्ठे किये गये हैं जो अनेक देवी-देवताओं की स्तुति मे गाये जाते थे, वर्तमान में वहाँ पूजा में संस्कृत मन्त्रों का पाठ किया जाता है। इण्डोनेशियाई अर्न्तराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव हर साल बाली में आयोजित किया जाता है। वास्तव में बाली ही एकमात्र प्रदेश है, जहाँ हिन्दू संस्कृति समृद्ध हुई और अभी भी अस्तित्व में है, जब कि बाकी द्वीपों के लोगों ने इस्लाम स्वीकार कर लिया है।
बोर्नियो जो पूर्वी द्वीप समूह में सबसे बड़ा है, वह चौथी शताब्दी में उपनिवेश बना था। पाँचवीं शताब्दी में हिन्दू शासक ‘मूलवर्मन‘ के शासन में इसने बहुत उन्नति की, मूलवर्मन ब्राह्मणों और गौ-धन का संरक्षक था। उसने ‘बहुसुवर्णकम‘ नामक यज्ञ किया था। इस द्वीप में काष्ठ निर्मित कलापूर्ण मन्दिर के अवशेष उपलब्ध हुए हैं जिनसे प्रतीत होता है, कि यहाँ के शासक वैदिक यज्ञों और विधि-विधान में आस्था रखते थे।
8. चम्पा (वियतनाम) - कंबोज के पड़ोस में प्राचीन काल में चम्पा क्षेत्र था, जो आज वियतनाम में है। जिसे अब ‘अनाम‘ कहते हैं। यह दूसरी शताब्दी में हिन्दूओं का उपनिवेश बना। भिन्न-भिन्न केन्द्रों में जैसे अमरावती, पाण्डुरंग, श्रीवजय और कन्थेरा में भिन्न-भिन्न हिन्दू वंशों ने उन्नति की। चम्पा क्षेत्र पर राजनीतिक रूप से सर्वप्रथम प्रभाव जमाने वाला भारतीय मूल का व्यक्ति ‘श्रीमार‘ था। इसने 192 ई0 में अपने प्रभाव को कायम किया। यह सम्पर्क 12वीं शताब्दी तक चला। इस बीच भारतीय मूल के 11 शासक वंशों ने चंपा क्षेत्र पर निर्विघ्न शासन किया।
चंपा में भारतीय संस्कृति के प्रसार का कार्य भारत के व्यापारियों और राजकुमारों को जाता है। उन्हांेने वहाँ के नगरों के नाम इन्द्रपुर, अमरावती, विजय, कौठार, पांडुरंग आदि रखे। वहाँ के ‘मिसाँग‘ और ‘डांग-डुआंग‘ नाम के दो नगर आज भी दर्शनीय मन्दिरों के लिए प्रसिद्ध हैं। यहाँ के हिन्दू निवासी हिन्दू देवी-देवताओं की उपासना करते थे। चंपा के लोगों को चम कहा जाता था। चम लोगों ने बड़ी संख्या में हिन्दू और बौद्ध मन्दिरों का निर्माण किया। वे शिव, गणेश, लक्ष्मी, पार्वती, सरस्वती, बुद्ध तथा लंकेश्वर आदि देवताओं की पूजा करते थे।
9. कम्बोडिया (फू-नान) - प्राचीन काल में यह फू-नान और कंबोज के सम्मिलित क्षेत्र के नाम से जाना जाता था। जिसे ‘कंपूचिया‘ भी कहा गया है। स्थानीय कथाओं के अनुसार वहाँ का प्रथम हिन्दू राजा ‘ह्योनटीन‘ (Huen-Tien) था। जो कौण्डिन्य के नाम से अधिक प्रसिद्ध था। इसके पश्चात् जिन लोगों ने फुनान राज्य को संभाला उनमें जयवर्मन, गुणवर्मन, रूद्रवर्मन आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। 7वीं शताब्दी तक फुनान राज्य का स्वतंत्र अस्तित्व रहा, लेकिन आगे कंबोज क्षेत्र के शासकों ने फुनान पर कब्जा जमा लिया। कंबोज के ‘स्वतन्त्र राज्य‘ की नींव श्रुतवर्मन के द्वारा रखी गयी थी। यहाँ भारतीय संस्कृति का सर्वाधिक प्रसार यशोवर्मन (889-998 ई0) ने किया। कंबोज क्षेत्र से प्राप्त 30 से अधिक अभिलेखों के विश्लेषण से स्पष्ट होता है, कि श्रुतवर्मन, श्रेष्ठवर्मन, भववर्मन, चित्रसेनवर्मन, ईशानवर्मन, जयवर्मन आदि शासकों ने छठी से 10वीं शताब्दी तक जिस कंबोज क्षेत्र पर शासन किया उनमें ज्यादातर शैव मतावलंबी थे। सूर्यवर्मन द्वितीय ने अंकोरवाट में विष्णु मन्दिर का निर्माण करवाया। यह मन्दिर संसार की वास्तुकला के इतिहास में सर्वोत्तम कृतियों में शामिल किया जाता है तथा भारतीय संस्कृति के प्रसार का एक सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है।
10. थाईलैण्ड - प्राचीन स्याम और लाओस को मिलाकर थाईलैंड बना है। सन् 1939 ई0 तक थाईलैंड को ‘स्याम‘ नाम से ही जाना जाता था। इस देश में भारतीय संस्कृति का प्रवेश ईसा की प्रथम शताब्दी में व्यापारियों द्वारा शुरू हुआ, जिसे धर्म-प्रचारकों व आचार्यों ने आगे बढ़ाया। वहाँ के राज्यों के नाम संस्कृत में रखे गये हैं, जैसे - सुखोथई, द्वारावती, श्रीविजय, अयुत्थाया आदि। थाईलैंड में नगरों के नाम भी भारतीयता के द्योतक हैं, जैसे - कंचनपुरी की तर्ज पर कांचनबुरी, राजपुरी के समान राजबुरी और लवपुरी के समान लवबुरी। यहाँ तक राजाराम, राजा-रानी, महाजया और चक्रवंश जैसी गलियों के नाम यहाँ रामायण की लोकप्रियता का साक्ष्य देते हैं। अयोध्या जिसे वहाँ ‘अयुत्थाया‘ कहते हैं। यहाँ बहुत बड़े-बड़े मन्दिर थे, पर आज वे सब खण्डरों के रूप में खड़े हैं। थाईलैंड की वर्तमान राजधानी बैंकॉक में आज भी 400 से अधिक मन्दिर हैं। यहाँ अमरावती शैली, गुप्तकालीन कला और पल्लव लिपि में अंकित बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों के अवशेष प्राप्त हुए हैं।
11. मलाया द्वीप समूह (मलेशिया):- सुदूर पूर्व के देशों में भारतीय संस्कृति का प्रवेश सर्वप्रथम मलाया में ही हुआ था। पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी एशिया जाने का सबसे छोटा और सुगम मार्ग मलक्का जलडमरूमध्य से होकर जाता है। भारत और मलाया के बीच व्यापारिक सम्बन्ध होने से यहाँ भारतीय नाप-तोल से सम्बन्धित शब्दों का भी प्रयोग होने लगा था। यहाँ पर पहले ब्राह्मण रहते थे, जिनके पूर्वज भारत से मलाया आये थे। तत्पश्चात् यहाँ बौद्ध धर्म का प्रचार हुआ। विभिन्न स्त्रोतों से पता चलता है, कि इन द्वीपों में से दो पर हिन्दू शासकों ने शासन किया था। मलाया के वैलेजली प्रान्त से मिले नाविक बुधगुप्त के लेख से प्रसिद्ध बौद्ध सूत्रों का उल्लेख है।
रामायण, जातक कथाओं, मिलिंदपन्हो, शिलप्पादिकारम् तथा रघुवंशम् नामक महाकाव्यों में मलेशिया का उल्लेख मिलता है। मलेशिया के केडाह प्रान्त से इस बात के प्रमाण मिले हैं, कि वहाँ शैव धर्म प्रचलित था। केडाह से बौद्ध ग्रंथों के कुछ ऐसे अंश मिले हैं, जो पुरानी तमिल से मिलती-जुलती किसी लिपि में लिखे गये हैं। मलेशियाई भाषा को शब्द देने का कार्य संस्कृत ने भी किया है। स्वर्ग, रस, गुण, दंड, मंत्री, दोहद, धीपति, लक्ष्य इत्यादि अनेक शब्द उनकी भाषा में पाये जाते हैं। हनुमान और गरुड़ अपनी अलौकिक शक्तियों के लिए मलेशिया में प्रसिद्ध हैं।
1. अंकोरवाट का मन्दिर - कंबोडिया स्थित इस भव्य विष्णु मन्दिर का निर्माण 12वीं शताब्दी में सूर्यवर्मन द्वितीय के शासनकाल में उसके मंत्री दिवाकर पण्डित के निर्देशन में हुआ। ऊँचे चबूतरे पर स्थित इस मन्दिर में तीन खण्ड हैं, जिनमें प्रत्येक में सुन्दर मूर्तियाँ हैं और प्रत्येक खंड से ऊपर के खंड तक पहुँचने के लिए सीढ़ियां हैं प्रत्येक खंड में आठ गुंबद हैं, जिनमें से प्रत्येक 180 फुट ऊँचा है। प्रत्येक स्तर पिछले की तुलना में अधिक है। द्रविड़ शैली में निर्मित यह मन्दिर संसार की वास्तुकला के इतिहास की सर्वोत्तम कृतियों में से एक है। इस मन्दिर की दीवारों पर रामायण और महाभारत के दृश्यों को दर्शाने वाली मूर्तियाँ ‘रैखिक व्यवस्था‘ में हैं। जैसे - सीता की अग्नि परीक्षा, शिव का कामदेव को भस्म करना, समुद्र मंथन आदि उत्कीर्ण हैं।
वास्तुकला के आश्चर्य, इस देवालय के चारों और एक गहरी खाई है, जिसकी लम्बाई ढाई मील और चौड़ाई 650 फुट है। खाई पर पश्चिम की और एक पत्थर का पुल है। मन्दिर कंबोडिया का एक शक्तिशाली प्रतीक है, और यह महान राष्ट्रीय गौरव का स्त्रोत है। भारत से सम्पर्क के बाद दक्षिण-पूर्व एशिया में कला, वास्तुकला तथा स्थापत्य कला का जो विकास हुआ उसका यह मन्दिर सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है।
2. बोरोबुदूर बौद्ध मन्दिर - जावा का सबसे उत्कृष्ट स्थापत्य बोरोबुदूर बौद्ध-मन्दिर है। इसकी वास्तु शैली पर भारतीय प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। यह स्तूप एक ऊँची पहाड़ी की चोटी पर स्थित है। बोरोबुदूर शब्द सर्वप्रथम सर थॉमस रैफल्स की पुस्तक जावा का इतिहास में मिलता है। इसका निर्माण आठवीं सदी (750-850 ई0) में शैलेन्द्र के संरक्षण में हुआ था। इसे संसार भर में सबसे बड़ा बौद्ध मन्दिर माना जाता है। इस भव्य मन्दिर में एक के ऊपर एक नौ मंजिले हैं। जो ऊपर जाते हुए एक-दूसरे से छोटी होती गयीं हैं, जो उत्तरोत्तर एक दूसरे से छोटे बनाये गये हैं। इसकी संरचना पिरामिडनुमा है। शीर्षस्थ खंड पर घंटे की आकृति का एक विशाल स्तूप बनाया गया है। ऊपर की तीन छतें स्तूपों से घिरी हैं। जिसमें बुद्ध की मूर्ति है। पूरे मन्दिर में ध्यानी-बुद्ध की 436 मूर्तियाँ हैं। मन्दिर के दरवाजों के अलंकरण सुन्दर और नियोजन कौशलपूर्ण हैं।
यह स्तूप जावा और उसके पड़ोस के द्वीपों पर शासन करने वाले भारत के राजाओं की वास्तुशिल्पीय परिकल्पना की भव्यता का उत्कृष्ट उदाहरण है। इनमें गौतम बुद्ध का जीवन, जातक, अवदान और सुधन कुमार की कहानियाँ हैं। इसके अस्तित्व का विश्व स्तर पर ज्ञान 1814 ई0 में सर थॉमस स्टैमफोर्ड रैफल्स द्वारा लाया गया है। 1991 में यूनेस्को ने इसे विश्व विरासत स्थल में सूचीबद्ध किया है।
3. लार-जोगरंग के मन्दिर - प्रम्बनन की घाटी (जावा) में स्थित लार-जोंगरंग के ब्राह्मण मन्दिर भव्यता में बोरोबुदूर के बाद द्वितीय स्थान पर माने जा सकते हैं। यहाँ आठ मन्दिर हैं। मुख्य मन्दिरों की पश्चिमी पंक्ति में जो तीन मन्दिर हैं उनमें मध्य स्थित ‘शिव मन्दिर‘ सबसे बड़ा और सुप्रसिद्ध मन्दिर है। इसके उत्तर में विष्णु मन्दिर और दक्षिण में ब्रह्मा मन्दिर है। शिव मन्दिर भव्यता से परिपूर्ण है। लार-जोगरंग की मूर्तिकला बोरोबुदूर की अपेक्षा अधिक नैसंर्गिक है और उसमें मानवीय आवेशों और गतियों की गहरी अनुभूति है। ये मूर्तियाँ अधिक गतिशील और नाटकीय जान पड़ती हैं, जबकि बोरोबुदूर की मूतिर्यों में जड़ता और शान्ति अधिक है। अन्य शब्दों में बोरोबुदूर और लार-जोगरंग क्रमशः जावा की भारतीय कला के क्लासिक और रोमांटिक स्वरूपों को व्यक्त करते हैं।
4. आनन्द मन्दिर - पैगान का आनन्द मन्दिर बर्मा (म्यांमार) का सर्वोत्तम बौद्ध मन्दिर माना जाता है, जो 1105 ई0 में पैगान राजवंश के राजा ‘कांजिट्ठा‘ ने अपने शासनकाल के दौरान बनवाया था। यह 564 फुट के चौकोर आँगन के बीच स्थित है। मुख्य मन्दिर लाल ईंटों से निर्मित है। इस मन्दिर में बुद्ध के जीवन की गाथा अंकित है और वास्तुकला की भारतीय शैली को अपनाया गया है। डयूरोसाइल के अनुसार - जिन वास्तुकारों ने आनन्द मन्दिर का निर्माण किया वे निःसन्देह भारतीय थे। आनन्द मन्दिर बर्मा की राजधानी रंगून में स्थित होने पर भी एक भारतीय मन्दिर है, प्रभावशाली मन्दिर को बर्मा के ‘बैस्टमिंस्टर एवे‘ का भी नाम दिया गया है।
इस प्रकार हम निष्कर्ष रूप से कह सकते हैं, कि केवल भारतीयों ने ही अपने पड़ोसियों के सांस्कृतिक विकास में योगदान किया। यह दोतरफा प्रक्रिया थी। भारतीयों ने भी अपने पड़ोसियों से भौतिक तत्वों को ग्रहण किया। यथा रेशम उपजाने का कौशल चीन से, यूनान और रोमन से सोने के सिक्के ढालना तथा इण्डोनेशिया से पान की बेल लगाना सीखा। अरबी भाषा में गणित को ‘हिदिसा‘ कहते हैं क्योंकि अरबों ने गणित सर्वप्रथम भारतीयों से ही सीखा था। खगोल विज्ञान, चिकित्सा व औषध विज्ञान के क्षेत्र में भारत ने अरब जगत को काफी समृद्ध बनाया। इसी प्रकार चीनियों ने बौद्ध चित्रकला भारत से सीखी, कपास उपजाने का कौशल भारत से चीन और मध्य एशिया गया। दुनिया में जहाँ कहीं भी भारतीय गये वहीं स्थायी रूप से बस गये और वहाँ उन्होंने स्थानीय मौलिक तत्वों के साथ अपनी संस्कृति का सम्मिश्रण कर एक नवीन संस्कृति का विकास किया।
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