‘‘मनुष्य निर्दयी होता है, परन्तु मानव दयालु होता है‘‘ विश्व कवि रवीन्द्र नाथ ठाकुर का यह कथन एक सारगर्भित विरोधाभास की अभिव्यक्ति करता है। मानव, मनुष्य होता है,परन्तु प्रत्येक मनुष्य, मानव नहीं होता। मानव एक विकसित पशु है जिसकी पाशविक वृत्तियाँ बलवती रहती है। पशुत्व की सीढ़ी पर चढ़कर ही जीव मनुष्य का अभिधान प्राप्त करता है और जब वह पाशविक वृत्तियों पर विजय प्राप्त कर लेता है अथवा जब उसकी पाशविकता कुंठित हो जाती है, तब वह पशुपति होकर शिवत्व को प्राप्त होता है। मनुष्य का शिव रूप ही वस्तुतः मानव है। मनुष्य जब शिव के समान विश्व के हलाहल का पान करके अमृत की वर्षा करने लगता है, तब वह मानव कहे जाने का अधिकारी बन जाता है। समस्त आदर्श एवं अवतारी पुरुष सच्चे मानव ही तो थे। डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने ठीक ही कहा है कि ‘‘मनुष्य का दानव होना उसकी हार है, महामानव होना चमत्कार है और मानव होना उसकी विजय है‘‘ मानवता की प्राप्ति मनुष्य जीवन की समस्त उपलब्धियों की चरम परिणति है जो केवल भगवत कृपा से ही प्राप्त होती है स्वार्थ-सिद्धि मे परम सामर्थ्य को प्राप्त करके मनुष्य के लिए देवता बन जाना आसान है परन्तु अपने जीवन को परमार्थमय बना देना यदि असम्भव नही है तो दुष्कर अवश्य है
‘’बस कि दुश्वार है हर काम का आसां होना।
आदमी को भी मुअस्सर नही इन्सां होना।।‘’
मीर साहब ने तो यहाँ तक कह दिया है कि आदमी के लिए फरिश्ता हो जाना आसान है, मगर ‘इन्सान‘ होना बहुत दुश्वार है।
मनुष्यता की पहचान वास्तव में सम्बन्ध-भावना है। प्रायः प्रत्येक जागरूक एवं प्रबुद्ध व्यक्ति जानता है कि विश्व के कण-कण में जीवन का स्पन्दन है और वह चेतना द्वारा अनुप्राणित है। परन्तु विश्व के प्रत्येक कण के साथ सम्बन्ध-निर्वाह की अनुभूति बिरलों को ही होती है। जिनका हृदय इतना विकसित एवं उदार होता है कि उसमें विश्व का प्रत्येक कण स्थान पा सकता है, वही मनुष्य विश्वात्मा के साथ एकात्म की अनुभूति प्राप्त करके मानव कहे जाने का अधिकारी होता है।
‘‘मानवता प्रकाश की वह नदी है, जो ससीम से असीम की ओर, शान्त से अनन्त की ओर बहती है‘‘ खलील जिब्रान के इस कथन का तात्पर्य वही समझ सकता है, जिसने विश्व के सुख दुख को अपना सुख-दुख बना लिया है। वैयक्तिक पीड़ा जब समष्टिगत वेदना की भाव-भूमि पर पहुँच जाती है, तब वह ‘मानवतावाद‘ का रूप धारण कर लेती है। यह वस्तुतः आत्मनिष्ठता का उन्नयन एवं उदात्तीकरण है पुराण प्रसिद्ध रंतदेव का यह कथन एक सच्चे मानव की विश्व-वेदना की अनुभूति का उच्चार है
‘’न त्वहं कामये राज्यं
न स्वर्ग न पुनर्भवम्
कामर्त्ताहिदुःख तप्तानाम्
प्राणिनामात्र नाशनम्।‘’
मानव की इसी वृत्ति को लक्ष्य करके गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है कि मानव-हृदय मक्खन से भी अधिक कोमल होता है, जो दूसरों की पीड़ा द्वारा द्रवित हो जाता है - ‘निज परिताप द्रवै नवनीता। परदुख द्रवै संत सुपुनीता।‘
भगवान विष्णु के अंतिम अवतार गौतम बुद्ध माने जाते है, जो विशुद्ध करूणा स्वरूप है और वह मनुष्य समाज को परदुःखकातरता का पाठ पढ़ाने आए थे। सुकरात, ईसा, मूसा, मंसूर, गांधी आदि विश्व व्यापी करूणा सागर की लहरों के रूप में हमें यदाकदा कृतार्थ करते रहते हैं और मनुष्य को मानव बनने की प्रेरणा प्रदान करते रहते है। जिसे सब आत्मीय नहीं लगते, जिसके निकट कोई पराया नहीं रह जाता हैं, वह कैसे कह सकता है कि मैं मानव हूँ?
प्राचीन काल का मानवतावाद संसार से विमुखता एवं प्रयोजन से विरक्ति लेकर चलने की प्रेरणा प्रदान करता है, जो वस्तुतः सन्यास की डोरी को पकड़कर चलता है, परन्तु आधुनिक कालीन मानवतावाद की वृत्ति निवृत्ति परक नहीं है, उसमें प्रवृत्ति का अविच्छिन्न सूत्र प्रच्छन्न रूप से व्याप्त रहता है, उसमें परलोक की अपेक्षा लोक कल्याण की भावना अधिक रहती है। मानव की परम्परा आदि मानव मनु से आरम्भ होकर अबाध रूप में आज तक प्रवहमान है। परंतु अधिकांश व्यक्ति लोक कल्याणकारी किसी विशिष्ट प्रयोजन की सिद्धि को लेकर चलने वाले मानवता के उपासक रहे हैं। परमार्थपरक प्रयोजन वस्तुतः प्रयोजन की कोटि से परे हो जाता है। अतः मानवता के क्षेत्र में प्राचीन और आधुनिक के मध्य अंतर स्थापित करने का प्रयत्न ‘बालप्रयास‘ ही कहा जाएगा।
भारतीय संस्कृति के प्रतीक आचार्य विनोबा भावे (Acharya Vinoba Bhave) का सम्पूर्ण जीवन त्याग, पारस्परिक प्रेम, सहानुभूति का जीवन दर्शन है। स्वाभाविक है कि उनका हिंसा, युद्ध, शस्त्रीकरण से विरोध हो, उन्होंने अपने आन्दोलन को अहिंसात्मक ढंग से चलाया, इसलिए वह शांति के पुजारी कहे जाते है। उनका कहना था कि - जब निरन्तर शस्त्रों का संग्रह होगा, नए-नए प्रकार के अस्त्र-शस्त्र बनेंगे, राष्ट्रों के मध्य तनाव बढ़ेंगे, एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाए जाएंगे, तब ऐसे वातावरण में विश्वशांति का स्वप्न किस प्रकार पूरा हो सकेगा। उनका कहना था कि विश्वशांति पर मानव समाज का उत्थान व कल्याण निर्भर है। इसलिए सब लोगों को मिलकर विश्वशांति हेतु कार्य करना चाहिए।
गांधीजी के अतिरिक्त विनोबा जी सन्त ज्ञानेश्वर तथा शंकर से भी ज्यादा प्रभावित हुए थे। उन्होंने कहा था - शंकर, ज्ञानेश्वर तथा गांधीजी ने मेरे जीवन पर बहुत गहरा प्रभाव डाला हैं.........मैं श्री शंकराचार्य का आभारी हूँ जिन्होंने मुझे बौद्धिक आधार तथा वेदान्त की पृष्ठभूमि प्रदान की है। मैं महान सन्त ज्ञानेश्वर का भी कृतज्ञ हूँ । उन्होंने जो महाकाव्य लिखा, वह बहुत ही उज्जवल है। इसी महाकाव्य ने मेरे मन में उत्साह तथा भावनाएं भरी है।
विनोबा जी आध्यात्मिक सन्त थे। ईश्वर में उनकी अटूट निष्ठा थी। वह ईश्वर को भौतिक जगत से भी अधिक महत्व देते थे। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘रेण्डम रिफ्लेक्सन‘ में लिखा हैं - मेरा ईश्वर में अडिग विश्वास है, परन्तु सामने रखे हुए लैम्प में नहीं क्योंकि हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ हमें जो अनुभूती कराती है, वह कई बार गलत भी हो सकती हैं, परन्तु ईश्वर की सत्ता का अनुभव करने वाली अनुभूति निर्भ्रन्त हैं।
विनोबा जी ईश्वर प्राप्ति के मार्ग को सुलभ मानते हुए बताते है - ईश्वर प्राप्ति का सरल उपाय यह है कि उसकी मनुष्य को इच्छा हो। इच्छा नही तो ईश्वर प्राप्ति सम्भव नहीं। इच्छा हैं, दरवाजा खुला है, तो ईश्वर स्वयं प्रवेश करेगा। ईश्वर ऐसे मनुष्यों को ढूँढता ही रहता है, जो उसकी इच्छा करते है किन्तु मनुष्य दरवाजा बन्द किए रहते है, ईश्वर को अन्दर आने ही नहीं देते। हमें ईश्वर को पाने की जितनी इच्छा है, उससे अधिक ईश्वर को हमारे अन्दर प्रवेश करने की इच्छा है, परन्तु हम हृदय बन्द रखते है तो वह कैसे प्रवेश करे? हृदय खोलने का उपाय है - सत्य, प्रेम और करुणा
विनोबा जी धार्मिक सहिष्णुता के आचरण पर अत्यधिक जोर देते रहे, इसलिए वह मन्दिर, मस्जिद तथा चर्च को समान प्यार करते थे। डॉ लक्ष्मण सिंह ने अपनी पुस्तक " आधुनिक भारतीय सामाजिक एवं राजनीतिक विचार ’’ में विनोबा जी को लेकर उनके विठोबा में मन्दिर प्रवेश के बारे में लिखा हैं। विनोबा जी ने कहा - ‘मेरा मस्जिदों, गुरुद्वारों और चर्चों में उन धर्मों के मानने वालों ने समान प्रेम से स्वागत किया है। अजमेर को ‘भारत का मक्का‘ समझा जाता हैं। मैं सन् 1948 में वहाँ गया और 10 लाख मुसलमानों की भीड़ के सामने गीता के श्लोकों का उच्चारण किया। तत्पश्चात् मैंने उनकी नमाज में भाग लिया। नमाज के पश्चात् उपस्थित लोगों ने अपनी परम्परानुसार मेरे हाथ का चुम्बन लिया‘।
मानव धर्म को सर्वश्रेष्ठ धर्म मानते हुए विनोबा जी ने लिखा है - ‘कोई भी धर्म मानव-धर्म के विरुद्ध नहीं है।‘ मानव धर्म का अर्थ हैं- सबके साथ भलाई से व्यवहार, सत्य, प्रेम और संयम। इतना तो हर धर्म में होना ही चाहिए। इसके अलावा और कुछ भी होना चाहिए। ‘आत्मा क्या हैं, ईश्वर से हमारा क्या सम्बन्ध है, क्या मरने के बाद पुनर्जन्म होता हैं, उपासना कैसे की जाए,‘ यह सभी धर्मो में अलग-अलग होती है।‘
विनोबा जी ने शासन तंत्र और शासक वर्ग दोनों के लिए जो मार्ग सुझाया है, वह है - ‘सत्ता के विकेन्द्रीकरण द्वारा ग्राम स्वराज की स्थापना‘। विकेन्द्रीकरण का यह अर्थ नहीं हैं कि हम गाँवों को विज्ञान और तकनीकी लाभों से वंचित रखे। उसका अर्थ इतना ही हैं कि गाँव एक ऐसी इकाई होगी, जहाँ सब उत्पादन होंगे। केन्द्रीय शासन के पास नैतिक सत्ता अधिक होगी और प्रत्यक्ष व्यवस्था की सत्ता गाँवों, यानी स्थानीय शासन के पास अधिक होगी। इस व्यवस्था में उत्पादन के साधनों पर कुछ इने-गिने लोगों का अधिकार न होने से न तो पूँजीवाद पनपने पाएगा, न तानाशाही ही उभरेगी। इससे लोगों की भौतिक उन्नति की उपेक्षा तो नहीं होगी, परन्तु भौतिक उन्नति के साथ आध्यात्मिक उन्नति भी जोड़ी जाएगी।
विकेन्द्रीकरण के साथ-साथ सभी स्तरों पर शासक और प्रशासक अपने व्यवहार में संयम बरतें और सत्ता को स्वार्थसिद्धि का नहीं, सेवा का साधन समझें। यथार्थ में लोकतंत्र की सफलता के लिए ऋषिकल्प नेताओं और शासकों की बहुत आवश्यकता है। एक बार गांधी जी से ‘मंत्रियों के सन्देश‘ के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने कहा था - ‘लैट देम होल्ड देयर चेयर्स बाई ऑल मीन्स, बट लैट देम होल्ड देम लाइटली एण्ड नॉट टाइटली।‘ अर्थात - शासकों को यह अच्छी तरह समझ लेना होगा कि कुर्सी सेवा का माध्यम है, उसके लिए उनके मन में कोई मोह नहीं होना चाहिए। या यों कहिए कि कुर्सी के मद में वे मतदाता और उसके हित को न भूलें।
विनोबा जी उस समय विख्यात हुए जब गांधीजी ने उन्हें व्यक्तिगत सत्याग्रह का प्रथम सत्याग्रही मनोनीत किया। विनोबा जी ने ‘सर्वोदय‘ आन्दोलन को जनहित में चलाया। सन 1951 में तेलंगाना क्षेत्र में कम्युनिस्टों द्वारा चलाए गए आन्दोलन के प्रत्युत्तर में इस क्षेत्र की पद यात्रा की तथा भूदान आन्दोलन का प्रारम्भ किया। सन 1960 में चम्बल-यमुना के डाकूग्रस्त क्षेत्र में डाकुओं का आत्मसमर्पण कराया। सन 1975 में गौवध के विरोध में आमरण अनशन किया तथा सरकार के आश्वासन पर ही व्रत तोड़ा। वह अपने जीवन के अन्तिम वर्षो मे ‘पवनार आश्रम‘ में रहने लगे थे तथा वहाँ से ‘मैत्री‘ पत्रिका निकालते थे। उसी आश्रम में 15 नवम्बर, 1982 को उनका निधन हुआ। सन 1958 में उन्हें मैग्सेसे पुरस्कार तथा सन 1983 में ‘भारत रत्न‘ से सम्मानित किया गया।
विनोबा जी यह मानते थे कि सभी शासन व्यवस्थाओं में जनतंत्र सर्वश्रेष्ठ है, फिर भी वह आज दोषयुक्त है वह संख्यावत और संकुचित स्वार्थो के आधार पर चलता है। सम्प्रदायवाद और जातिवाद जैसे विघातक तत्वों को पोषता है। आधुनिक लोकशाही का दूसरा खतरा है ‘सत्ता का केन्द्रीकरण‘ विनोबा जी ने एक बार कहा था कि ‘’जब हम स्वतंत्र हुए, तब सत्ता का पार्सल लन्दन से दिल्ली तो पहुँच गया, परन्तु दुर्भाग्य की बात है कि उसके बाद वह हमारे गाँवों तक पहुँचने के बजाय दिल्ली में ही अटक गया‘’।
आचार्य विनोबा जी के व्यक्तित्व का मूल्यांकन कर पाना आसान नहीं है क्योंकि विनोबा जी समाज के सामने इस रूप में अवतरित हुए जिसे किसी ने रामराज्य के सपनो को साकार करने का इच्छुक वशिष्ठ तुल्य महर्षि कहा, किसी ने विश्व को ममता-मानवता-मैत्री का सन्देश देने वाला विश्व शांतिदूत तो किसी ने भारतीय संस्कृति की साक्षात मूर्ति, किसी ने अराजकतावादी कहा तो किसी ने आध्यात्मिक विचारों का महान दार्शनिक बताया।
वस्तुतः विनोबा जी गांधीवादी विचारक थे। गांधी जी की सर्वोदयी सम्बन्धी विचारधारा को व्यवहारिक रूप देने के लिए उन्होने भूदान, ग्रामदान तथा सम्पत्तिदान का जो मार्ग अपनाया, वह उनकी मौलिक देन है।
डॉ एस. राधाकृष्णन ने उनके विषय मे लिखा था विनोबा भावे ने अपने आपको जनता का सेवक सिद्ध किया। उनका वर्तमान लक्ष्य आत्मा की गहराई को प्राप्त करना था। महात्मा गांधी की मृत्यु के बाद उन्होने उनके आदर्शो का प्रचार शुरू कर दिया था। भूदान आन्दोलन उस विश्वास का स्वाभाविक परिणाम था जो उन्होने अपने गुरू से प्राप्त किया था‘।
वस्तुतः आचार्य विनोबा जी महात्मा गांधी के सच्चे आध्यात्मिक उत्तराधिकारी थे। गांधीवाद का प्रचार व प्रसाद उनका अभीष्ट लक्ष्य था।
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