What is UCC? - Vidya Mandir IAS

What is UCC? - Vidya Mandir IAS

17 Jul 2024 22:18 PM | Me Admin | 99

एक देश एक कानून
(बार-बार निकलता बोतल से जिन्न)

    संविधान सभा की बैठक में समान नागरिक संहिता (UCC) पर की गई चर्चा के 74 साल बीत गए। आज हम आजादी के 75 साल पर अमृत महोत्सव मना रहे हैं। लेकिन यूसीसी (UCC) को लागू नहीं कराया जा सका। संविधान का अनुच्छेद 37 कहता हैं कि नीति निर्देशक तत्वों को लागू करना सरकार का मूल दायित्व हैं। किसी भी पंथ निरपेक्ष देश में धार्मिक आधार पर अलग-अलग कानून नहीं होने चाहिए। लेकिन यहां अलग-अलग पंथों के मैंरिज एक्ट लागू हैं। जब तक समान नागरिक संहिता (UCC) लागू नहीं होती हैं। तब तक संविधान में उल्लिखित देश के पंथ निरपेक्ष भाव के मायने अस्पष्ट हैं। आजादी के बाद पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने यूसीसी (UCC) लागू करने की दिशा में कदम उठाया लेकिन हिंदू कोड बिल ही लागू करा सके। संविधान निर्माता भीमराव अंबेडकर भी समान नागरिक संहिता (UCC) के पक्षधर थे लेकिन जब उनकी सरकार यह काम न कर सकी तो उन्होंने पद छोड़ दिया। इससे पहले संविधान सभा में जब अंबेडकर ने यूनीफॉर्म कोड अपनाने की बात रखी तो कुछ सदस्यों ने उग्र विरोध किया। लिहाजा मसले को संविधान के अनुच्छेद 44 में नीति निर्देशक तत्वों के तहत रख दिया गया। इसे लागू कराने को लेकर विधि आयोग पहले से ही काम कर रहा हैं। कई बार इसे लागू कराने को लेकर सुप्रीम कोर्ट सरकार से सवाल जवाब कर चुका है। लेकिन अभी कोई ठोस नतीजा नही निकला हैं। अब एक बार यह प्रविधान फिर से आम और खास की चर्चा के केंद्र में हैं।

    विभिन्न धर्मो के लिए लागू पर्सनल लॉ की खूबियों और खामियों पर मंथन चल रहा हैं। कार्मिक, लोक शिकायत, विधि एवं न्याय विभाग की संसदीय समिति इन विधि व्यवस्थाओं की समीक्षा कर रही हैं। इस कवायद को एक देश एक कानून यानी UCC की दिशा में कदम माना जा रहा हैं। वैसे तो समिति की अध्यक्षता कर रहे राज्यसभा सदस्य सुशील कुमार मोदी ने कहा हैं कि UCC इस समिति का विषय नहीं हैं, लेकिन समिति जिन बिंदुओं पर चर्चा कर रही हैं उससे इस तरह की संभावनाएं अवश्य जताई जा रही हैं। समिति विभिन्न पर्सनल लॉ में लिंग आधारित समानता एवं न्याय की स्थिति से लेकर सामाजिक कुरीतियों को धार्मिक परंपरा के नाम पर न्यायोचित ठहराने जैसे पहलूओं पर मंथन करेगी। सभी पर्सनल लॉ को संहिताबद्ध करने पर भी विचार चल रहा हैं जिससे इनमें किसी तरह की अस्पष्टता को दूर किया जा सके। इस कवायद को समान नागरिक संहिता (UCC) से जोड़ने की बड़ी वजह यह भी हैं कि 21वें विधि आयोग ने अगस्त, 2021 में विभिन्न पर्सनल लॉ में संशोधन की सलाह दी थी। आयोग से समान नागरिक संहिता पर रिपोर्ट देने को कहा गया था, लेकिन उसने पर्सनल लॉ में संशोधन की ओर बढ़ने का सुझाव दिया। इससे यह संभावना और भी मजबूत होती हैं कि पर्सलन लॉ की समीक्षा से एक देश, एक कानून की राह निकल सकती हैं। सभी के लिए समान कानून और पर्सलन लॉ की समीक्षा से इस दिशा में बनती सर्वसम्मत संभावनाओं की पड़ताल हम सबके लिए बड़ा मुद्दा हैं।

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     23 नवंबर, 1948 को संसद भवन के संविधान सभा के कक्ष में अनुच्छेद 35 (वर्तमान अनुच्छेद 44) पर बहस शुरू हुई। डाक्टर राजेंद्र प्रसाद जी की अस्वस्थता के कारण संविधान सभा की अध्यक्षता प्रसिद्ध शिक्षा शास्त्री और एकीकृत बंगाल के सबसे बडे़ ईसाई नेता, अल्पसंख्यक अधिकार समिति के अध्यक्ष और संविधान सभा के उपाध्यक्ष डा. हरेंद्र कुमार मुखर्जी कर रहे थे। मद्रास के प्रसिद्ध मुस्लिम नेता मोहम्मद इस्माइल साहिब ने बहस की शुरूआत करते हुए कहा कि समान नागरिक संहिता को अनिवार्य नहीं बनाना चाहिए। उनके बाद नजीरूद्दीन, महबूब अली बैग साहिब बहादुर, पोकर साहिब बहादुर और हुसैन इमाम ने भी लगभग वहीं बात कही। उसके बाद प्रसिद्ध विधिवेता के. एम मुंशी के बहस को आगे बढ़ाया।

मुहम्मद इस्माइल साहिब - किसी भी समूह या समुदाय के लिए पर्सनल लॉ का पालन मूलभूत अधिकार हैं। समान नागरिक संहिता के अनुच्छेद 35 में यह वाक्य जोड़ा जाना चाहिए। ‘ऐसा कोई भी कानून बनने की स्थिति में किसी भी समूह या समुदाय के व्यक्ति को अपना पर्सनल लॉ छोड़ने के लिए बाध्य नहीं होना पड़ेगा।‘ पर्सनल लॉ किसी समुदाय के लोगों के जीवन जीने का तरीका होता हैं। यह उनके धर्म व संस्कृति का हिस्सा हैं। जब लोगों के पास पहले से पर्सनल लॉ हैं। तो वे ऐसा कोई सिविल कोड क्यों चाहेंगे? पर्सनल कानून उनके मजहब का हिस्सा हैं और समान नागरिक संहिता से असंतोष एवं विसंगतियाँ उत्पन्न हो सकती हैं।

पोकर साहिब बहादुर - समान नागरिक संहिता से जुड़ा अनुच्छेद एक तानाशाही प्रवृत्ति वाला प्रविधान हैं, जिसे किसी भी सूरत में बर्दाश्त नहीं किया जाएगा और अगर यह अनुच्छेद पारित हो जाता हैं तो यह लोकतंत्र नहीं बल्कि तानाशाही होगा।

हुसैन इमाम -  क्या भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में नागरिक कानूनों में एकरूपता हो सकती हैं?

नजीरूद्दीन अहमद - मेरी यह टिप्पणी केवल भारतीय समाज के मुस्लिम समुदाय की असहजता से जुडी नहीं हैं। मैं अपनी इस बात को और ज्यादा व्यापक परिप्रेक्ष्य में रखना चाहता हूं। आप दुनिया के किसी भी हिस्से का उदाहरण देख लें। यह बात आपको सर्वत्र दिखेगी। असल में हर समूह एवं धार्मिक समुदाय के कुछ धार्मिक व नागरिक कानून होते हैं। जो उनकी धार्मिक आस्था से जुड़े रहते हैं। समान नागरिक संहिता जैसा कानून बनाते समय इन धार्मिक कानूनों को अलग रखने की जरूरत हैं। संविधान में धार्मिक आजादी की गारंटी दी गई हैं और मुझे लगता हैं कि यह अनुच्छेद उस धार्मिक आजादी को अप्रभावी करता हैं। हमें इस विसंगति से बचने की बहुत जरूरत हैं।

महबूब अली बेग साहिब बहादुर -  इस बात पर आश्चर्य होता हैं कि उन्होंने अब पंथ निरपेक्ष राष्ट्र को लेकर अपने आप में एक अनूठी अवधारणा बना रखी हैं। उन लोगों को लगता हैं कि ऐसे देश में ऐसा कानून होना चाहिए जहां सभी मामलों में सभी नागरिकों के लिए एक कानून हो। इसमें उनकी जीवनचर्या, भाषा और संस्कृति से जुड़े मसले शामिल हैं। यह उनकी सोच हो सकती हैं लेकिन जरूरी नहीं हैं कि यह विचार ठीक भी हो। यह कतई ठीक नहीं हैं। पंथ निरपेक्ष राष्ट्र में रहने वाले सभी समुदायों के लोगों उनकी धार्मिक मान्यताओं को मानने की आजादी होनी चाहिए। इसमें उनके पर्सनल लॉ भी शामिल हैं।

के. एम. मुंशी - बीते कुछ वर्षों में धार्मिक क्रियाकलाप ने जीवन के सभी क्षेत्रों को अपने दायरे में ले लिया हैं। हमें ऐसा करने से रोकना होगा और कहना होगा कि विवाह उपरांत मामले धार्मिक नहीं बल्कि धर्मनिरपेक्ष कानून के विषय हैं। आर्टिकल 35 इसी बात पर बल देता हैं। मैं अपने मुस्लिम मित्रों से कहना चाहता हूं कि जितना जल्दी हम जीवन के अलगाववादी दृष्टिकोण को भूल जांएगे देश और समाज के लिए उतना ही अच्छा होगा। धर्म उस परिधि तक सीमित होना चाहिए जो नियमतः धर्म की तरह दिखता हैं और शेष जीवन इस तरह से एकीकृत और संशोधित होना चहिए कि हम जल्दी ही एक मजबूत और एकीकृत राष्ट्र में निखर सकें।

अल्लादी कृष्णा स्वामी अय्यर - समान नागरिक संहिता का मूल उद्देश्य विवाह उत्तराधिकार के मामलों में एक समान सहमति तक पहुंचने का प्रयास करना हैं। जब ब्रिटिश, सत्ता पर काबिज हुए तो उन्होंने इस देश के सभी नागरिको, चाहे हिंदू हो या मुसलमान, पारसी हो या ईसाई के लिए समान रूप से लागू होने वाली ‘भारतीय दंड संहिता’ लागू की। क्या तब मुस्लिम अपवाद बने रह पाए और क्या वे आपराधिक कानून की एक व्यवस्था को लागू करने के लिए ब्रिटिश हुकुमत के खिलाफ विद्रोह कर सके? भारतीय दंड संहिता हिंदू-मुस्लमान पर एक समान रूप से लागू होती हैं। यह कुरान द्वारा नहीं बल्कि विधिशास्त्र द्वारा संचालित हैं। इसी तरह संपत्ति कानून भी इंग्लिश विधिशास्त्र से लिए गए हैं।

भीमराव अंबेडकर - व्यावहारिक रूप से इस देश में एक सिविल कोड लागू हैं जिसके प्रविधान सर्वमान्य हैं और समान रूप से पूरे देश में लागू हैं। केवल विवाह और उत्तराधिकार का क्षेत्र हैं जहां एक समान कानून लागू नहीं हैं। यह बहुत छोटा सा क्षेत्र हैं जिस पर हम समान कानून नहीं बना सके हैं, इसलिए हमारी इच्छा हैं कि अनुच्छेद-35 को संविधान का भाग बनाकर सकारात्मक बदलाव लाया जाए। यह आवश्यक नहीं हैं कि उत्तराधिकार के कानून धर्म द्वारा संचालित हों। धर्म को इतना विस्तृत और व्यापक क्षेत्र क्यों दिया जाए कि वह संपूर्ण जीवन पर कब्जा कर ले और विधायिका को इन क्षेत्रों में हस्तक्षेत्र करने से रोके।

    यह पहला अवसर नहीं हैं जबकि देश के उच्चतम न्यायालय ने देश के सभी नागरिकों के लिए समान कानून बनाने का निर्देश दिया हों। इससे पूर्व भी शाहबानो केस, सरला मुद्गल केस, मीना माथुर और जॉन बल्लामाटोम केस में अदालत ऐसे ही निर्देश दे चुकी हैं। इनमें से शाहबानों केस का संबंध तलाकशुदा महिला को गुजारा भत्ता देने से था जबकि दूसरे मामले में एक व्यक्ति ने दूसरी शादी करने के लिए हिन्दू धर्म छोड़ कर मुस्लिम धर्म स्वीकार किया था। जबकी तीसरे केस में एक ईसाई धर्मगुरू जॉन वैल्लामटोम की याचिका, जिसमें भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 के सेक्शन 118 को निरस्त कर दिया।

शाहबानो केस-1985 यह अत्यधिक दुख का विषय हैं कि हमारे संविधान का अनुच्छेद 44 मृत अक्षर बनकर रह गया हैं। यह प्रविधान कहता हैं कि सरकार सभी नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता’ बनाए लेकिन इसे बनाने के लिए सरकारी स्तर पर प्रयास किए जाने का कोई साक्ष्य नहीं  मिलता हैं। समान नागरिक संहिता विरोधाभासी विचारों वाले कानूनों के प्रति पृथक्करणीय भाव को समाप्त कर राष्ट्रीय अखंडता के लक्ष्य को प्राप्त करने में सहयोग करेगी।

सरला मुदगल केस-1995 संविधान के अनुच्छेद 44 के अंतर्गत व्यक्त की गई संविधान निर्माताओं की इच्छा को पूरा करने में सरकार और कितना समय लेगी? उत्तराधिकार और विवाह को संचालित करने वाले परंपरागत हिंदू कानून को बहुत पहले ही 1955-56 में संहिताकरण करके अलविदा कर दिया गया हैं। देश में समान नागरिक संहिता को अनिश्चितकाल के लिए निलंबित करने का कोई औचित्य नहीं हैं। कुछ प्रथाएं मानवाधिकार एवं गरिमा का अतिक्रमण करती हैं। धर्म के नाम पर मानवाधिकारों का गला घोंटना स्वराज्य नहीं बल्कि निर्दयता हैं। इसलिए एक समान नागरिक संहिता का होना निर्दयता से सुरक्षा प्रदान करने और राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता को मजबूत करने के लिए नितांत आवश्यक हैं।

जॉन बलवत्तम केस-2003 - यह दुख की बात हैं कि अनुच्छेद 44 को आज तक लागू नहीं किया गया। संसद को अभी भी देश में एक समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए कदम उठाना हैं। समान नागरिक संहिता वैचारिक मतभेदों को दूर कर देश की एकता अखंडता को मजबूत करने में सहायक होगी।

शायरा बानो केस 2017 - हम सरकार को निर्देशित करते हैं कि वह उचित विधान बनाने पर विचार करें। हम आशा करते हैं कि वैश्विक पटल इस्तेमाल किए जा रहे तमाम प्रविधानों पर और इस्लामिक देशों में शरीयत में हुए व्यापक सुधारों को ध्यान में रखते हुए एक ऐसा कानून बनाया जाए। जब ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीय दंड संहिता के माध्यम से सबके लिए एक काननू लागू किया जा सकता हैं तो भारत सरकार के पीछे रहने का कोई कारण समझ नहीं आता हैं।

भारतीय संविधान में हैं सबको समान मानने का प्रविधान-

अनुच्छेद 14 - देश के सभी नागरिक समान हैं।

अनुच्छेद 15 - जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र और जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध करता हैं।

अनुच्छेद 16 - सबको समान अवसर उपलब्ध कराता हैं।

अनुच्छेद 19 - देश में कहीं भी जाकर पढ़ने, रहने, बसने, रोजगार करने का अधिकार देता हैं।

अनुच्छेद 21 - सबको सम्मानपूर्वक जीवन जीने का अधिकार देता हैं।

अनुच्छेद 25 - धर्म पालन का अधिकार देता हैं लेकिन अधर्म पालन का नहीं। रीतियों के पालन का अधिकार देता हैं लेकिन कुरीतियों के पालन का नहीं।  प्रथा के पालन का अधिकार देता हैं लेकिन कुप्रथा के पालन का नहीं।

अनुच्छेद 44 - धर्म को सामाजिक संबंधों और निजी कानूनों से अलग करता हैं।

उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 118 - ईसाई समुदाय के लोग अपनी वसीयत से संपत्ति को धार्मिक कार्यों हेतु किसी संस्था को दान में नहीं दे सकते थे।

    समान नागरिक संहिता से देश को ऐसी दिशा दी जा सकती हैं जिससे विवाह, तलाक, उत्तराधिकार, भरण -पोषण, भत्ता, वसीयत और गोद लेने जैसे मामलो में भी सभी को समान समझा जाए। वास्तव में यूसीसी महिला अधिकारों को नए आयाम पर ले जाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं।

    1772 में अंग्रेज गवर्नर वारेन हेस्टिग्ंस ने निजी विवाद की स्थिति में हिंदुओं और मुस्लिमों के लिए अलग विधान की व्यवस्था की थी। विवाह, तलाक, गुजारा-भत्ता, पैत्तृक संपत्ति और उत्तराधिकार के मामले इनसे निर्धारित होते हैं। आजादी के बाद से इस दिशा में बहुत से सुधार हुए हैं लेकिन पर्सलन लॉ की व्यवस्था को हटाकर एक देश, एक कानून की दिशा में आज तक सार्थक कदम नहीं उठाया जा सका हैं। फिलहाल तमाम समुदायों के अपने पर्सनल कानून हैं। जिनमें से अधिकांश लैंगिक समानता के सिद्धांत को महत्त्व नहीं देते।

हिंदू कानून - हिंदुओं में विवाह, उत्तराधिकार एवं अन्य पारिवारिक विवादों की स्थिति में हिंदू कानून का संदर्भ लिया जाता हैं। जैन, बौद्ध और सिख के मामले में भी यही कानून प्रभावी हैं। हिंदू पर्सलन लॉ में महिलाओं के साथ लैंगिक आधार पर भेदभाव के कम मामले हैं।

ईसाई कानून - ईसाइयों के विवाह एवं अन्य पारिवारिक विवाद के मामले ईसाई पर्सलन लॉ के आधार पर तय होते हैं। तलाक, उत्तराधिकार, गोद लेने औंर पैतृक संपत्ति जैसे मामलों में विवाद की स्थिति में भी इस कानून का संदर्भ लिया जाता हैं।

मुस्लिम पर्सलन लॉ - सबसे ज्यादा विवाद मुस्लिम पर्सनल लॉ के कुछ प्रविधानों पर रहता हैं। इसमें महिलाओं के अधिकार बहुत सीमित हैं। मुस्लिम पुरूष को चार शादियां करने और बोलकर तलाक देने तक का अधिकार हैं। तीन बार बोलकर तलाक देने के विधान को देश में गैरकानूनी घोषित कर दिया गया हैं। लड़कियों के लिए शादी की न्यूनतम उम्र से लेकर बहुविवाह तक कई मसले है। जिन पर विचार की आवश्यकता हैं। ये धर्म या मजहब से जुड़े नहीं, बल्कि नागरिक अधिकारों से जुड़े मामले हैं।

पारसी कानून - पारसियों के विवाह एवं तलाक जैसे मामलों में फैसले के लिए पारसी लॉ का संदर्भ लिया जाता हैं। इस विधान में अब तक समय के अनुकूल कई संशोधन हुए हैं।

    UCC के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य, संविधान निर्माताओं की मंशा और मौजूदा स्थिति को ठीक से समझना आज की जरूरत हैं क्योंकि इस कानून की पूरी बहस ही तथाकथित धर्मनिरपेक्षता की दलदल में फंस गयी हैं। अभी इसे लेकर जो बहस चल रही हैं वह इसलिए भी बेमानी हैं कि संविधान बनाने वालों के सामने आजाद भारत के भविष्य का सवाल था। विभाजित देश को एकसूत्र में बांधने की दृष्टि थी और सबसे ऊपर उनके सामने वोट की राजनीति नहीं थी। इसलिए उन्होंने अनुच्छेद 44 बनाया औरं उसे संविधान में शामिल किया। लेकिन जब चूंकि पूरी बहस राजनीति और वोट हासिल करने की कवायद से जुड़ गयी हैं। इसलिए स्वास्थ्य, सकारात्मक और प्रगतिशील मुद्दों को भी ‘विवादित‘ बनाने की राजनीति होने लगी हैं।

    हिंदू कोड बिल के समय भी समान नागरिक संहिता की जरूरत को नजरअंदाज नहीं किया गया। यह समझा गया कि सुधार की एक प्रक्रिया चल रही हैं और उससे देश में एक वातावरण बनेगा और समय आने पर समान नागरिक संहिता के नीति निर्देशक तत्वों वाले प्रावधान को लागू कर दिया जाएगा। लेकिन दुर्भाग्य से अस्सी के दशक के बाद यह बहस उलझ गयी और देश की राजनीति शुद्ध रूप से वोटों की राजनीति में तब्दील हो गयी। आखिर जब देश की 80 प्रतिशत आबादी संहिताबद्ध निजी कानूनों के दायरे में आ गई हैं तो अन्य समुदायों को ऐसे कानूनों की परिधि से परे रखने का भला क्या तुक?

    कोई भी समाज गतिमान तभी माना जाता हैं जब समय के अनुसार उसमें बदलाव आयें और रूढ़ियों व जड़ हो चुकी परंपराओं को परिवर्तित किया जाये। सामाजिक सुधार की प्रक्रिया में कानून का हस्तक्षेप इसी तरह से होता हैं। हर किस्म के सामाजिक अभिशाप के खिलाफ कानून बना कर समाज की जड़ता तोड़ी जा सकती हैं। इस तरह का बदलाव हिन्दू समाज के साथ-साथ बल्कि इससे भी ज्यादा दूसरे समाजों और वर्गों में आना चाहिए था। लेकिन वह संकीर्ण बहस में उलझ गया।

    समान नागरिक संहिता पर सार्थक बहस हो। सभी समुदायों और वर्गों को इसमें जोड़ा जाए तभी एक अच्छा कानून तैयार हो सकता हैं। सर्वोच्च न्यायालय को कानून बनाने का अधिकार नहीं हैं। कानून बनाने का काम तो विधायिका को ही करना हैं। सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला एक अवसर देता हैं कि हम अपने सारे राजनीतिक विरोधों को ताक पर रख कर आपसी समझ के साथ बातचीत करें और समान नागरिक संहिता बनाने की दिशा में आगे बढ़ें। कुछ सीमाओं के दायरे में गोवा ने यूसीसी को लागू करने की दिशा में कदम बढ़ाए हैं। गोवा में यूसीसी सार्वभौमिकता के सिद्धांत की पुष्टि करता हैं।

     खास बात तो यह हैं कि उच्चतम न्यायालय द्वारा बार-बार स्पष्ट निर्देश देने के बावजूद आज तक किसी सरकार की समान नागरिक संहिता बनाने की हिम्मत नहीं हुई। इसका कारण यह हैं कि जब भी समान नागरिक संहिता बनाने की चर्चा शुरू हुई। मुसलमानों के कुछ वर्गों ने इसका डट कर विरोध करना शुरू कर दिया। आज तक किसी भी सरकार की मुसलमानों को नाराज करने की हिम्मत नहीं हुई। हालांकि समान नागरिक संहिता बनाने का उद्देश्य मुसलमानों के धार्मिक मामले में हस्तक्षेप का कतई नहीं हैं। बल्कि यह तो सामाजिक सुधारों का एक हिस्सा हैं। जब भी समान नागरिक संहिता बनाने की बात उठती हैं तो यह कुतर्क शुरू हो जाता हैं कि यदि इसे बनाया जाना हैं तो यह आम सहमति से ही होना चाहिए। यह एक निर्विवाद सच हैं कि विश्व भर में जब भी सामाजिक सुधार करने का प्रयास हुआ इसका किसी न किसी वर्ग ने विरोध जरूर किया। इसमें आदिवासी समाज की बात तो समझ आती हैं, क्योंकि देश में भिन्न-भिन्न प्रकार के आदिवासी समूह हैं और प्रत्येक समूह को अपनी-अपनी मान्यताएं और रस्म-रिवाज हैं। विरोध के इन स्वरों के बीच इस बिंदु पर ईमानदारी से विचार किया जाना चाहिए कि क्या न्याय, समानता और बच्चों के अधिकारों जैसे हमारे संविधान के मूल सिद्धांत पूरी तरह से लागू हो पाए हैं।

निष्कर्ष: समान नागरिक संहिता का मुद्दा संविधान सभा के गठन और उसमें हुई बहसों से लेकर आज तक सर्वाधिक संवेदनशील हैं। संविधान में राज्य के नीति निदेशक सिद्धान्तों में भी इसे सम्मिलित करने से इसके लागू किए जाने का मार्ग प्रशस्त नहीं हो पाया हैं। वैयक्तिक कानूनों में से कुछ प्रावधानों पर न्यायालयों द्वारा प्रतिकूल टिप्पणी कर दिए जाने से यह मुद्दा समय-समय पर समाचारों की सुर्खियाँ बन जाता हैं। लेकिन मूल बात जहाँ की तहाँ रहती हैं।

    देश की अखंडता एवं एकता को बनाए रखने के लिए यह परमावश्यक हैं कि सारे देश के नागरिकों के लिए बिना किसी भेदभाव के जीवन व्यतीत करने तथा स्वयं का सर्वागीण विकास करने के अवसर सुलभ हो तथा किसी एक व्यक्ति का धार्मिक कानून किसी अन्य व्यक्ति के शोषण अथवा मानवाधिकारों के हनन का कारण न बने। यह उसी दशा में संभव हें जब समस्त भारतीय एक ही प्रकार की नागरिक  संहिता के अन्तर्गत आच्छादित हो। यह कार्य अकेले सरकार के बस का नहीं हैं। इसके लिए तो सभी धर्मोें के लोगो, विशेष रूप से अल्पसंख्यकों को ही पहल करनी होगी। जबकी UCC का मर्म एकरूपता नहीं, बल्कि सामंजस्य स्थापित करना हैं।

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