अंग्रेज और अंग्रेज समर्थक इतिहासकारों और राष्ट्रवादी लेखन के बीच से 1857 की दिल्ली की हकीकत बता पाना बेहद विवादास्पद रहा है 1857 का इतिहास लेखन। अंग्रेज इतिहासकारों ने इसका अध्ययन साम्राज्य की अखंडता के लिहाज से किया और अपने राज को जरूरी मानते हुए इसकी कमियों को रेखांकित किया। लेकिन साम्राज्य विखंडित हो जाने के बाद भी आजाद भारत के इतिहासकार उस विफल महाक्रांति को जोड़ कर नहीं रख पाए। 10 मई, 1857 (Revolt of 1857) दुनिया के इतिहास की युगांतरकारी तारीख हैं। इस दिन मेरठ से शुरू हुए जन विद्रोह ने भारत में अंग्रेजी साम्राज्य को लगभग उखाड़ फेंका था। 11 मई को दिल्ली पहुंचे क्रांतिकारियों ने बहादुरशाह जफर को बादशाह मानते हुए भारत को आजाद घोषित कर दिया। बाद में वे हथियारों से भले हार गए, पर उनकी आजादी की भावना कभी नहीं हारी।
29 मार्च, 1857 को रविवार था। कोलकाता के पास बैरकपुर छावनी के सार्जेंट मेजर हृयुसन को पता चला कि 34वीं बंगाल नेटिव इंफैंट्री से मंगल पांडे नाम का एक सिपाही अपनी बंदूक लेकर लाइन से बाहर निकल आया है। हृयुसन ने इसकी सूचना अपने एड्जुटेंट लेफ्टीनेंट एच बाफ को दी। दोनों बाहर आकर देखने आए तो मंगल ने गोली चलाकर बाफ के घोड़े को मार गिराया। उसके बाद मंगल ने तलवार लेकर बाफ और उनके साथी हृयुसन पर वार किया। वह इन पर भारी पड़ रहा था। जनरल जान हियर्सें यह दृश्य देखकर भौंचक्के रह गए और उन्होंने जमादार ईश्वरी प्रसाद को हुक्म दिया कि मंगल को गिरफ्तार कर लो। ईश्वरी प्रसाद ने मंगल को पकड़ने से मना कर दिया। तब उन्होंने शेख पल्टू को हुक्म दिया कि मंगल को गिरफ्तार किया जाए। मंगल को गिरफ्तार करने के बाद उनका कोर्ट मार्शल हुंआ और अंगरेजों ने उन्हें 6 अप्रैल को फैसला सुना दिया। कि मंगल का 18 अप्रैल को फांसी पर चढ़ा दिया जाए। बाद में यह तारीख आठ अप्रैल कर दी गई। अंग्रेजो को लगा था कि अगर मंगल को फांसी देने में देर की, तो कहीं और सिपाही भी मंगल की राह पर न चल पड़े। लेकिन अंग्रेजो की सारी कसरत बेकार गई। मंगल के साथ फूटी विद्रोह की वह चिंगारी आखिरकार ज्वाला बन ही गई। 10 मई 1857 को मेरठ में बगावत की आग ने समूचे हिंदुस्तान को अपनी चपेट में ले लिया।
इसी तरह गदर के इतिहास में मंगल पांडे नाम के सवर्ण सैनिक का बढ़-चढ़ कर जिक्र आता हैं, लेकिन उन्हीं के साथ तैनात मेहतर जाति के सैनिक मातादीन का जिक्र न के बराबर हैं, जबकि मंगल पांडे को प्रेरित करने में उस सैनिक की बड़ी भूमिका थीं। मातादीन को मंगल पांडे ने लोटा छूने से मना किया तो उन्होंने ताना मारते हुए कहा कि गाय और सुअर की चर्बी लगे कारतूसों को जब दांतों से काटते हो तब तुम्हारी जाति अपवित्र नहीं होती। मातादीन का जिक्र उन सैनिकों की सूची में किया गया हैं कि जिन्हें गदर के बाद गिरफ्तार कर लिया गया था। हकीकत यह हैं कि मातादीन पर भी अभियोग लगा था और उनका भी कोर्ट मार्शल किया गया था। शहीद वे भी थे, पर उनका जिक्र पाद टिप्पणी के रूप में किया जाता हैं। वे भी पांडे की तरह अंग्रेजी सेना के कर्मचारी थें, इसलिए गदर में उनकी भागीदारी एक तरफ ब्राह्मणवादी व्यवस्था के खिलाफ असहमति दर्शाती हैं तो दूसरी तरफ अंग्रेजों के प्रति उनका विरोध।
बहादुरशाह जफर दिल्ली में 1775 में जन्में बहादुशाह (द्वितीय) ने 1837 में मुगल सिंहासन का उत्तराधिकार संभाला और बादशाह की पदवी धारण की। उन्होंने 1857 की क्रांति का हिन्दुस्तान के बादशाह के रूप में नेतृत्व कर दिल्ली में 14 मई 1857 को राष्ट्रीय सरकार की स्थापना की। 84 साल की उम्र में बहादुरशाह जफर दिल्ली के लालकिले से बाहर निकल कर मैदान-ए-जंग में आ डटे लेकिन हालात ऐसे बने कि उन्हें वापस किले में लौटना पड़ा। 20 सितम्बर 1857 को उन्हें लाल किला छोड़ना पड़ा। अगले दिन वह मेजर हडसन के हाथों में पड़ गये उन्हें लालकिले में कैद कर दिया गया और बाद में निर्वासित कर रंगून भेज दिया गया, जहां सितंबर 1862 में उनका इंतकाल हो गया।
अट्टारह सौ सत्तावन की चिलबिलाती गर्मियों में कानपुर में स्वाधीनता संग्राम की जो ज्वाला भड़की उसके कई रंग थे। उसका सबसे आभासी रंग था अंगेजों और मराठों की मैत्री का । एक हफ्ते पहले तक अंग्रेज नाना धोंडूपंत पेशवा को लाखों का खजाना सौंप रहे थे और अपनी औरतों-बच्चों की हिफाजत भी। विनायक दामोदर सावरकर के शब्दों में यही वह आभास था जिसके चलते –‘’अंग्रेज सरकार को अंधेरे में टटोलते रहकर गड्ढे में गिराया गया। इसी का नाम है मराठी कावा यानी मराठी दांव।‘‘ लेकिन इस चतुराई के भीतर छुपा हुआ आक्रोश जब बाहर आया तो उसमें पहले देशभक्ति, फिर वीरता और और बाद में क्रूरता की चिंगारी फूट पड़ी मेस्कर घाट और बीबीघर हत्याकांड के आरोप भी नाना साहब पर लगे पर जांच में वे सही नहीं पाए गए, लेकिन उन्हीं के आधार पर अंग्रेज अधिकारी नील ने आम आदमी पर भयंकर अत्याचार किए।
1853 में पेशवा के निधन के बाद अंग्रेजी हुकूमत ने इस मराठा परंपरा को मानने से पूरी तरह इनकार कर दिया। साथ ही पेशवाई पेंशन भी बंद कर दी गई। पेंशन बंद होते ही नानासाहब धोंडूपंत के साथ कंधे से कंधा मिलाने वाले टिक्का सिंह, पेशवा के वकील अजीमुल्ला खां, तात्या और विवाह के बाद झांसी की रानी बन चुकी लक्ष्मीबाई ने गोपनीय बैठकें कर क्रांति की रणनीति तय की, लेकिन अति उत्साह के चलते क्रांति टुकड़ों में बंट गई और अंग्रेजों को इसका फायदा मिला। सिद्धहस्थ सेनापतियों में नाम दर्ज करा चुके तात्या की वीरता को देखते हुए उन्हें टोपे की उपाधि दी गई। उसके बाद से ही उनका नाम तात्या टोपे हुआ। वेश बदलने में माहिर तात्या की गिरफ्तारी के प्रयास निरर्थक साबित हुए। कुछ इतिहासकारों का मानना हैं कि तात्या के धोखे में अंग्रेजों ने सात व्यक्तियों को फांसी पर चढ़ा दिया था, लेकिन वे इसके बाद भी यह तय नहीं कर सके कि असली तात्या पकड़ा गया या नहीं। इसी तरह युद्ध के दौरान पेशवा महल ध्वस्त होने के बाद नानासाहब ने गंगा पार कर गोपनीय जगह जाने का निर्णय लिया। बिठूर में शेष रह गए मराठा परिवारों का मानना हैं कि नाना उत्तर पूर्व की तरफ बढ़कर नेपाल निकल गए, लेकिन इसके बाद कहां गए, किसी को कुछ नहीं पता।
पेशवा के निधन के बाद लार्ड डलहौजी की हड़प नीति के चलते नाना को वारिस मानने से इनकार कर दिया गया। विरासत के लिए नाना का वसीयतनामा और अधिकार पत्र लेकर अजीमुल्ला लंदन तक पैरवी करने गए। लॉर्ड सभा ने जब उनका कोई तर्क नहीं सुना तो इस व्यवहार ने उन्हे अन्दर से हिला कर रख दिया। क्षुब्ध अजीमुल्ला ने रूस और जर्मनी के युद्ध में अंग्रेजों की ताकत का अंदाजा लगाया और लौट कर सशस्त्र क्रान्ति की तैयारी शुरू कर दी। वसीयतनामा न मानने के बाद भी नाना की विश्वसनीयता पर किसी तरह की आंच नहीं आई और गोरे उन्हें अपना अजीज मानते रहें। यहीं नहीं संकट के समय अंग्रेजों ने अपनी पत्नी और बच्चों को नाना की हिफाजत में रख छोड़ा। अजीमुल्ला अच्छी तरह जानते थे कि नाना विश्वासघात नहीं कर सकतें, इसलिए नाना को गिरफ्तार करने की योजना को अंजाम देकर क्रान्ति की बागडोर उनके हाथों सौंपी गई। नाना के साथ कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष करने के बाद क्रांति के विफल होने पर अजीमुल्ला कहां गए यह विवाद का विषय बना हुआ हैं। कुछ इतिहासकारों का मानना हैं कि गंभीर रूप से मलेरिया की चपेट में आने से उपचार नहीं हो सका और उनकी मौत हो गई जबकि कुछ इतिहासकार मानते हैं कि विफलता से क्षुब्ध अजीमुल्ला सूफी हो गए और कुस्तुनतुनिया के लिए कूच कर गए।
1857 के स्वतंत्रता संग्राम में नाना को नेतृत्व सौंपने में जहां अजीमुल्ला खां ने अहम भूमिका निभाई, वहीं टिक्का सिंह के प्रयास को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। सरकारी खजाने की देख-रेख की जिम्मेदारी संभाल रहे नाना को हिरासत में लेकर टिक्का ने सरकारी खजाना लूटा और युद्ध का बिगुल फूंक दिया। सेना का बहादुर सिपाही टिक्का सिंह मेरठ छावनी में हुए कारतूस काण्ड के बाद से खुद को रोक नहीं सका। उसने 500 सैनिकों के साथ शासन के विरुद्ध विद्रोह का झंडा बुलंद कर दिया। नाना पर विश्वासघात का आरोप भी न लगे और नेतृत्व भी उनके हाथ हो, इस सोच को अंजाम देने के लिए अजीमुल्ला खां के मशविरे पर टिक्का ने नवाबगंज पहुंचकर नाना को बंधक बनाकर खजाना लूट लिया। नाना को कल्यानपुर होते हुए बिठूर लाया गया और साफ कहा गया कि अब वे (नाना) देशवासियों की धरोहर हैं और क्रांति का नेतृत्व स्वीकार करें। इससे नाना की विश्वसनीयता भी बची रही और वे क्रान्तिकारियों के सरदार भी हो गए।
1857 की क्रांति (Revolt of 1857) मे कानपुर योगदान की जब कभी चर्चा होगी तो बेशक सबसे पहले नाना साहब, तांत्या टोपे और अजीमुल्ला का नाम आयेगा। लेकिन कानपुर की दो मशहूर तवायफों अजीजन बाई और हुसैनी खानम के योगदान को भी नहीं भुलाया जायेगा, जिनकी मस्तानी टोली ने 125 अंग्रेजों को मौत के घाट उतार दिया था। क्रांति की आग में धधकती हुसैनी ने 16-17 जुलाई, 1857 को बीवीघर की सुरक्षा में लगे भारतीय सैनिकों से वहां मौजूद सभी फिरंगी महिलाओं और बच्चों को मौत के घाट उतार देने को कहा, लेकिन भारतीय सैनिकों ने ऐसा करने से मना कर दिया। तब हुसैनी ने अजीजन के निर्देश पर अपनी मस्तानी टोली की तवायफों से चार कसाइयों को बुलवाया और इन अंग्रेंजों की बोटी-बोटी काट देने का हुक्म दिया। कसाइयों ने हुक्म की तामील की तथा सभी का कत्ल कर दिया। बाद के वर्षों में जब कानपुर में अंग्रेजी सत्ता स्थापित हो गयी तो अजीजन को गोली मारने के आदेश दिये गये, लेकिन हुसैनी तथा टोली की अन्य तवायफों को गोली मारी गयी या फांसी पर लटकाया गया, इसके दस्तावेज नहीं प्राप्त हो सके हैं।
16 नवम्बर 1857 को सिकंदरबाग की लड़ाई में एक अज्ञात महिला ने पेड़ पर चढ़ कर सैकड़ों फायर किए। क्रिस्टोफर हिबर्ट की पुस्तक ‘दि ग्रेट म्यूटिनी‘ में एक अज्ञात महिला का उल्लेख मिलता हैं। युद्ध के दौरान जब सिकन्दर बाग मे कैप्टन वेल्स पीपल के वृक्ष के पास पहुँचे तो वहाँ अंग्रेजों की लाशें देख कर दंग रह गए। उन्होंने लाशों को देखा तो सभी में एक बात सामान्य दिखी। सब के कंधे या सिर पर ही गोली लगी थी। मतलब गोलियाँ ऊँचाई से चलाई गई थी। मेजर डाउसन जब प्याऊ के पास पहुँचे तो वेल्स को इशारा किया। जब उन्होंने पीपल के घने पेड़ पर गोली चलाई तो ऊपर से तड़फड़ाती हुई एक मानवाकृति गिरी। उसके सभी कारतूस समाप्त हो चुके थे। नीचे गिरने से उसकी लाल जैकेट का ऊपरी हिस्सा खुल गया जिससे पता चला कि वह महिला हैं। कैप्टन वेल्स की आँखें भर आई और उन्होंने कहा कि यदि मुझे पता होता कि यह महिला हैं तो मैं कभी गोली नहीं चलाता। पासी समाज की पुस्तक ‘पासी समाज का स्वतंत्रता संग्राम में योगदान‘ में लेखक ने दावा किया हैं कि यह वीरांगना ऊदा देवी थी। वह पासी समाज के सम्मानित परिवार चौधरी राय साहब की पुत्री थी। वे हीवेट रोड पर रहते थे। उनका विवाह उजरियाँव गाँव के मक्का पासी के साथ हुआ। ससुराल में वह जगरानी नाम से प्रसिद्ध थीं। हेनरी लॉरेंस की फौज का सामना करते हुए मक्का पासी शहीद हो गए। इसका प्रतिशोध लेने का प्रण ऊदादेवी ने किया था।
रानी लक्ष्मीबाई वाराणसी में 19 नवम्बर 1835 में मोरोपंत तांबे के घर जन्मी लक्ष्मीबाई ने 1855 में अपने पति राजा गंगाधर राव के निधन के बाद झांसी का शासन संभाला। अंग्रेजों ने उन्हें और उनके दत्तक पुत्र को शासक मानने से इनकार कर दिया। लक्ष्मीबाई ने ब्रिटिश सेना पर हमला कर जून 1857 में झांसी से बाहर खदेड़ दिया। ब्रिटिश सेना ने फिर उन पर हमला किया। लक्ष्मीबाई ने पहले कालपी और फिर ग्वालियरमें अंग्रेंजो से टक्कर ली। ब्रिटिश सेना के खिलाफ वे दिलेरी से लड़ी। 17 जून 1858 को कोटा की सराय की जंग में वे शहीद हो गई। उनके सिपाहियों ने उनका अंतिम संस्कार बाबा गंगाराम की वाटिका में कर दिया जो अब फूलबाग कहलाती हैं।
बेगम हजरत महल अवध के अपदस्थ नवाद वाजिद अली शाह की बेगम हजरत महल ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह, का बिगुल फूंककर 1857 की क्रांति की प्रमुख हस्ती बन गई। क्रांतिकारी सेनाओं की मदद से उन्होंने लखनऊ पर कब्जा कर लिया और अपने बेटे को अवध का राजा बना दिया। ब्रिटिश शासकों के खिलाफ लड़ाई के लिए बेगम हजरत महल ने क्रांतिकारी सेनाओं को संगठित किया।
ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया के प्रभुसत्ता के ऐलान के प्रत्युत्तर में नवंबर 1858 में अपने बेटे की तरफ से ऐलान जारी कर बेगम हजरत महल ने अपने स्वाभिमान और साहस का परिचय दिया। ब्रिटिश सेना के खिलाफ मैदान-ए-जंग में उन्होंने खुद शिरकत की। हालात कुछ ऐसे बने कि उन्हें लखनऊ छोड़ना पड़ा। पहले नानपाड़ा व उसके बाद नेपाल पहुंची। नेपाल में उन्होंने अपनी सेना का पुनर्गठन किया और संघर्ष जारी रखा। ऐसा माना जाता हैं कि बाद में नेपाल में ही उनका इंतकाल हो गया। बगावत के सूत्रधारों में बांदा के नवाब व जगदीशपुर के बाबू कुंवर सिंह भी थे।
सन् 1857 की क्रान्ति (Revolt of 1857) के रूप में राष्ट्रीयता की जो चिंगारी जली, वह प्रज्वलित ही होती चली गई। राष्ट्रीयता का जो अंकुर क्रान्ति के सेनानियों ने जमाया, वह बढ़ता ही गया और कालान्तर में उसने वृक्ष का रूप धारण किया। धीरे-धीरे भारत की राष्ट्रीय चेतना उदित हुई और उससे संगठित होकर भारतीयों ने अंग्रेजी शासन के विरुद्ध मार्चा लिया तथा अन्त में उसे उखाड़ फेंका।
Me Admin
Welcome to Vidyamandirias