1857 ki kranti - Vidya Mandir IAS

1857 ki kranti - Vidya Mandir IAS

27 Jul 2024 09:05 AM | Me Admin | 123

महिलाओं के हाथ रही क्रांति की मशाल     

     10 मई 1857 दुनिया के इतिहास की युगांतरकारी तारीख हैं। मेरठ 31 मई 1857 तक इंतजार करने को तैयार नहीं था वहाँ 10 मई को ही बगावत भड़क उठी। इस दिन मेरठ से शुरू हुए जन विद्रोह ने भारत में अंग्रेजी साम्राज्य को लगभग उखाड़ फेंका था। 11 मई को दिल्ली पहुंचे क्रांतिकारियों ने बहादुरशाह जफर को बादशाह मानते हुए भारत को आजाद घोषित कर दिया। भले ही 1857 का संग्राम आजादी के दीवाने अनगिनत शहीदों और उनकी वीर गाथाओं से भरा पड़ा हैं लेकिन कई किस्से ऐसे भी हैं जहां महिलाओं ने जंग-ए-आजादी को मजबूत करने की कोशिश की। स्वतंत्रता के प्रथम संग्राम में कुछ महिलाएं शोला बनकर उभरी। बाद में वे हथियारों से भले हार गयी, पर उनकी आजादी की भावना कभी नहीं हारी।

1857 ki kranti                                  

1857 Ki Kranti mein Mahilao ka Yogdan

     बेगम हजरत महल 1857 के महासंग्राम की एक महत्वपूर्ण कड़ी थी। बेगम हजरत महल के प्रारंभिक जीवन के संबंध में इतिहास में बहुत कम जानकारी उपलब्ध हैं। नवाब वाजिद अली शाह की डायरी के अनुसार इनका जन्म फैजाबाद के एक गरीब परिवार  में हुआ था। असाधारण सौंदर्य वाली इस बालिका को ‘खवासीन‘ के रूप में नवाब के ‘हरम‘ में बेगमों की सेवा के लिए रखा गया। परंतु कुछ समय पश्चात ही उन्होंने अपनी बुद्धिमत्ता, सुंदरता तथा कुशलता के कारण नवाब का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर लिया तथा वे हरम में शामिल कर ली गयी। नवाब ने उन्हें ‘महकपरी‘ की उपाधि दी। बाद में जब इन्होंने पुत्र को जन्म दिया तो नवाब ने इन्हें ‘महल‘ का दर्जा तथा ‘इफ्तिखार-उल-निशा‘ की उपाधि दी। इस प्रकार एक दासी से इन्होंने बादशाह के हरम में सर्वोच्च स्थान हासिल किया तथा बेगम हजरत महल के नाम से विख्यात हुई। वाजिद अली शाह से राज्य के अपहरण के बाद अंग्रेज अफसरों ने अवध को लूट का केंद्र बना लिया।

     बेगम हजरत महल ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंककर 1857 की क्रांति की प्रमुख हस्ती बन गई। क्रांतिकारी सेनाओं की मदद से उन्होंने लखनऊ पर कब्जा कर लिया और अपने बेटे को अवध का राजा बना दिया। ब्रिटिश शासकों के खिलाफ लड़ाई के लिए बेगम हजरत महल ने क्रांतिकारी सेनाओं को संगठित किया। ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया के प्रभुसत्ता के ऐलान के प्रत्युत्तर में नवंबर 1858 में अपने बेटे की तरफ से ऐलान जारी कर बेगम हजरत महल ने अपने स्वाभिमान और साहस का परिचय दिया। ब्रिटिश सेना के खिलाफ मैदान-ए-जंग में उन्होंने खुद शिरकत की। हालात कुछ ऐसे बने कि उन्हें लखनऊ छोड़ना पड़ा। पहले नानपाड़ा व उसके बाद नेपाल पहंुची। नेपाल में उन्होंने अपनी सेना का पुनर्गठन किया और संघर्ष जारी रखा। ऐसा माना जाता हैं कि बाद में नेपाल में ही उनका इंतकाल हो गया।

     ऐसी ही एक वीरांगना लक्ष्मीबाई हुई हैं। वाराणसी में 19 नवम्बर 1835 में मोरोपंत तांबे के घर जन्मी लक्ष्मीबाई ने 1855 में अपने पति राजा गंगाधर राव के निधन के बाद झांसी का शासन संभाला। अंग्रेजों ने उन्हें और उनके दत्तक पुत्र को शासक मानने से इनकार कर दिया। लक्ष्मीबाई ने ब्रिटिश सेना पर हमला कर जून 1857 में झांसी से बाहर खदेड़ दिया। ब्रिटिश सेना ने फिर उन पर हमला किया। लक्ष्मीबाई ने पहले कालपी और फिर ग्वालियर में अंग्रेजों से टक्कर ली। ब्रिटिश सेना के खिलाफ वे दिलेरी से लड़ी। 17 जून 1858 को कोटा की सराय की जंग में वे शहीद हो गई। उनके सिपाहियों ने उनका अंतिम संस्कार बाबा गंगाराम की वाटिका में कर दिया जो अब फूलबाग कहलाती हैं।

Rani Lakshmibai

     गोंडा से चालीस किलोमीटर दूर स्थित तुलसीपुर की रानी राजेश्वरी देवी की 1857 के मुक्ति संग्राम में भागीदारी भी गुमनामी में हैं। अंतिम समय तक संघर्ष और अविस्मरणीय वीरता के बावजूद उपेक्षित ही रही। उनका नाम भी 1857 पर लिखी गई किताबों में नहीं मिलता। उनका उल्लेख केवल तुलसीपुर की रानी के रूप में ही हुआ हैं। उनका नाम जानने तक के कोई गंभीर प्रयास नहीं किये गये। युवा रानी के पति तुलसीपुर के राजा साहब जी को कंपनी सरकार ने पहले ही गिरफ्तार कर बेलीगारद में कैद कर रखा था। लड़ाई छिड़ने पर रानी के अद्भुत शौर्य को देखकर उनसे आत्मसमर्पण करने को कहा गया, लेकिन स्वाभिमानी रानी प्रारंभ से अंत तक अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष करती रही। उनके जुझारुपन से अंग्रेज फौजें त्रस्त थी।

     अंततः होपग्रांट एक बड़ी सेना लेकर तुलसीपुर पहुंचा, जहां रानी ने उसे कड़ी टक्कर दी। बेगम हरजत महल जब दल-बल सहित तुलसीपुर, गोंडा होते हुये नेपाल जा रही थी उस समय बेगम का पीछा कर रही अंग्रेज फौज को रानी ने तुलसीपुर में अटकाये रखा जब तक बेगम नेपाल नहीं पहुंच गयी। इसी युद्ध में रानी ने वीरगति पाई। रानी की मृत्यु को लेकर कुछ मतभेद भी हैं। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि वह भी बेगम के साथ नेपाल चली गयी थी और वहीं उनकी मृत्यु हो गई।

     अंग्रेजी हुकूमत को चकनाचूर करने के इरादे से लड़ी गई आजादी को पहली जंग में लक्ष्मीबाई, चेन्नम्मा, बेगम हजरत महल तथा राजेश्वरी देवी सरीखी रानियों की शहादत अतुल्य हैं। इन सब के साथ आम महिलाओं ने भी कुर्बानियां दी। ऐसे प्रमाण मौजूद हैं, जो बयां करते हैं कि बुलंदशहर और मुजफ्फनगर में फांसी पर कई महिलाओं को लटकाया गया। अवंतीबाई लोधी ऐसी रानी भी हैं, जिसका बलिदान इतिहास के छितराए पन्नों में मौजूद हैं।

     1857 में हजारों महिलाओं को सूली पर लटकाया गया और गोलियों से छातियां छलनी कर दी गई। तोप के दहाने से बांधकर महिलाओं को भी उड़ाया गया। सबसे पहले बात करेंगे अंवतिबाई लोधी की। अवंती बाई का आख्यान इतिहास और साहित्य का मिला जुला रूप हैं। यूपी और एमपी के सीमावर्ती इलाके रामगढ़ की रानी अंवतिबाई लोधी ने राज्य को बचाने के लिए अंग्रेजों से लोहा लिया। दरअसल अंग्रेजों ने रामगढ़ के राजा विक्रमादित्य को 1851 में पागल घोषित करके अंग्रेज तहसीलदार को कोर्ट ऑफ वार्डस नियुक्त कर दिया। इत्तेफाक से 1857 में विक्रमादित्य सिंह की मौत हो गई और अंग्रेजों ने रियासत पर कब्जा कर लिया। रानी ने रियासत वापस लेने के इरादे से तलवार उठा ली और खैरी इलाके में अंग्रेज कमांडर कैप्टन वाडिग्टंन को अभयदान दिया। वाडिंग्टन ने रीवा नरेश की मदद से रानी को पकड़ना चाहा, लेकिन अंवतिबाई लोधी ने अपनी तलवार से खुद शीश काट लिया। 

avantibai lodhi

      झलकारी बाई पर किए गए वर्णन में उन्हें 1857 का अमर शहीद बताया गया हैं। वे मूलतः झांसी की रहने वाली थी और उनके पति पूरन कोरी राजा गंगाधर राव के यहां एक सामान्य सिपाही थे। झलकारी बाई का चरित्र एक आदर्श महिला का था वह बचपन से ही बहादुर थी और पति से धुनर्विघा भी सीखी थी। इसके अलावा वे कुश्ती, घुड़सवारी और निशानेबाजी में भी निपुण थी। बताया जाता हैं कि उनका चेहरा और कद-काठी रानी लक्ष्मीबाई से हूबहू मिलता था। धीरे-धीरे वे लक्ष्मीबाई की सखी बन गई। झलकारी बाई को सेना की महिला शाखा यानी दुर्गा दल के नेतृत्व का जिम्मा सौंपा गया। अंग्रेजों ने जब झांसी का किला घेरा तो झलकारी बाई बहादुरी से लड़ीं। उन्होंने रानी लक्ष्मीबाई से महल से भाग निकलने को कहा और उनका वेश धर कर खुद मोर्चा संभाला। झलकारी बाई ने दतिया द्वार और भंडार द्वार से उन्नाव द्वार तक सैनिकों का नेतृत्व किया। उनके पति पूरन कोरी अंग्रेजों से लड़ते हुए मारे गए। जब झलकारी बाई को इसकी जानकारी मिली तो वे घायल सिंहनी हो गई। उन्होंने कई अंग्रेज मारे और काफी समय तक अंग्रेजों को छकाया। काफी देर बाद अंग्रेजों को पता चला कि वे रानी लक्ष्मीबाई नहीं, झलकारी बाई हैं। एक कथा के अनुसार अचानक उन्हें कई गोलियां लगीं और वे शहीद हो गई, जबकि दूसरी कथा के अनुसार वे मुक्त कर दी गई और 1890 तक जीवित रहीं और अपने समय की किंवदंती बन गई।

     वीरांगना ऊदा देवी का जन्म लखनऊ के उजरियांव में हुआ था। वे बेगम हजरत महल की सहयोगी बनीं और उन्होंने अपने नेतृत्व में एक महिला सेना बनाई। उनके पति चिनहट की लड़ाई में शहीद हो गए। अंग्रेजों ने जब कैम्बवेल के नेतृत्व में सिंकदरबाग पर हमला किया तो उनका मुकाबला ऊदा देवी की महिला सेना से हुआ। इस सेना पर लिखी गई कविता काफी प्रेरक हैं-

‘’कोई उनको हब्सी कहता, कोई कहता नीच अछूत

अबला कोई उन्हें बतलाए, कोई कहे उन्हें मजबूत’’

     गार्डन अलेक्जेंडर ने लिखा हैं कि उस लड़ाई में जो लोग मारे गए उनमें कुछ ऐसी महिलांए थी, जिनका रूप रंग अमेजन  के आदिवासियों से मिलता था। इन महिलाओं में चर्बी लगे कारतूसों को दांत से काटने में कोई धार्मिक पूर्वाग्रह नहीं था चाहे वह सूअर की चर्बी लगी हो या किसी और जानवर की। वे लोग जंगली बिल्लियों की तरह बहादुरी से लड़ी। वे जब तक मारी नहीं गई तब तक यह पता कर पाना भी मुश्किल था कि वे औरत हैं या मर्द। ऊदा देवी उन्हीं में से एक थी, जिन्होंने 32 या 36 अंग्रेज सैनिकों को मारा था।

     इसी तरह की एक वीरांगना आशा देवी थीं 8 मई 1857 को कई युवतियों का नेतृत्व करते हुए अंग्रेजी सेना से संघर्ष किया अंग्रेजों का शासन पुनः आने के बाद आशा देवी और उनकी 11 सहेलियों को फांसी दे दी गई और 252 वीरांगनाएं गद्दारों की निशादेही पर गोली से उड़ा दी गई। आशा देवी का साथ देने वाली महिलाओं में वाल्मीकि महावीरी देवी, रहीमी गुर्जरी, भगवानी देवी, भागवती देवी, हबीबा गुर्जरी देवी, इंद्रकौर, कुशल देवी, नामकौर, राजकौर, रनवीरी वाल्मीकि, सहेजा वाल्मीकि और शोभा देवी शामिल थी। इन युवतियों ने बहादुरी के साथ अंग्रेजी सेना पर हमला किया और लड़ते हुए मारी गईं।

     शोभा देवी शर्मा एक प्रभावशाली संगठनकर्ता और योद्धा थी। इन्होंने 14 मई को जनक्रांति का घोष किया। सेना की संख्या 500 से अधिक थी। कमजोर पड़ने पर 300 महिलाओं को उनके सगे-संबंधियों के पास भेज दिया। 200 महिला सैनिक लड़ते-लड़ते शहीद हो गई। वे स्वयं 10 सहेलियों के साथ गिरफ्तार की गई। इन सभी को फांसी दे दी गई। भागवंती को क्रांति का समाचार दो दिन बाद मुजफ्फरनगर में मिला। इन्हांेने भी पुरुषों की बजाय महिला सेना गठित की और 22 दिनों तक शासन चलाया। बाद में अंग्रेजों ने भागवंती व उनकी सहेलियों को तोप से उड़ा दिया। ऐसी ही एक बख्तावरी देवी जो बघर्रा की थी और 12 मई को ही इन्होंने आंदोलन छेड़ दिया। बख्तावरी ने 150 युवतियों को क्रांति युद्ध के लिए चुना। इन लोगो ने 50-60 गांवों में क्रांति का नीला ध्वज फहराया। बाद में मुखबिरों की निशानदेही पर बख्तावरी और उनकी कई सहेलियां भी मौत के घाट उतार दी गई। ऐसी ही एक वीर महिला मेहतर जाति की महावीरी देवी हुई हैं। वे मुजफ्फनगर की मुंडभर जिले की रहने वाली थी। हालांकि वे अनपढ़ थी, लेकिन बुद्धिमान थी और अन्याय के खिलाफ मैदान में उतर पड़ी। 1857 में उन्होंने 22 महिलाओं के साथ अंग्रेजों पर हमला किया। वे सब शहीद हुई।

     हबीबा सामंती परिवार से थी। इनका भाई अफजल सेना से था और 10 मई की क्रांति में अग्रणी था। भाई का प्रभाव बहन पर भी पड़ा। उनके आहृान पर 500 से अधिक महिलाएं एकत्र हो गई। इनमें से 255 लड़ते-लड़ते शहीद हो गई, जबकि हबीबा समेत 12 वीरांगनाएं फांसी पर लटका दी गई। सिसौली के पास की रहने वाली श्रीमति मामकौर जाति की गड़रिया थी। इन्होंने 250 महिलाओं की टोली गठित की और इन्होंने मुजफ्फरनगर तहसील ध्वस्त कर दी। राजकोष और शस्त्रागार पर कब्जा कर लिया। बाद में गिरफ्तार कर सहेलियों के साथ फांसी पर चढ़ा दी गई। उनका संघर्ष 15 जुलाई तक चलता रहा था। इसी तरह झाझर की गुर्जर वीरांगना वीरवती और दादरी की जोधा देवी को फांसी देने का उल्लेख मिलता हैं।

     प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में केवल योद्धाओं ही नहीं किशोरियों ने भी अपनी आहुति देकर वीरता का परिचय दिया। मराठा वीरों की परंपरा का बखूबी निर्वाह करते हुए मैनावती ने देश पर प्राण न्योछावर करना ठीक समझा, लेकिन नाना साहब का पता बताना तो दूर अज्ञात स्थान पर जाने की दिशा तक का उल्लेख नहीं किया। किशोरी की जिद के आगे हुकूमत का अहम चूर होते देख जनरल हृीलर ने अपनी मौजूदगी में उसे धधकती आग में फेंकने का आदेश दे दिया। प्रथम क्रान्ति का स्तम्भ बनी मैनावती अभी अपने जीवन के केवल 17 वसंत ही देख पाई थी कि उसे देश पर प्राण न्योछावर करने का गौरव हासिल हुआ।

     राजस्थान प्रांत से आकर गढ़ में कारोबार करने वाले पंडित प्राणनाथ की पुत्री कुमारी मंगला भी आजादी की जंग में कूद पड़ी। आम जन मानस से मिल रहे भरपूर सहयोग से बौखलाकर अंग्रेज शासकों ने उसे तोप के सामने बंधवाकर गोले से उड़ा दिया था। उस समय इस तीर्थ नगरी के चारों रास्तों पर बने प्रवेश द्वारों को भी तोप के गोलों से ध्वस्त कर दिया था, ताकि बाद में अगर कोई हिंदुस्तानी आजादी का तराना गुनगुनाए तो उसे ब्रिटिश फौज बेरोकटोक आकर गिरफ्तार कर सके। आजादी में शहीद होने वाली कुमारी मंगला सबसे पहली महिला थी।

     प्रथम स्वतंत्रता आन्दोलन का जिक्र तब तक अधूरा रह जाता हैं, जब तक रणबांकुरों के लिए खुफिया का काम करने वाली अजीजनबाई की चर्चा न कर ली जाए। रूप-लावण्य की धनी अजीजन पर अंग्रेज हुक्मरानों की निगाह क्या पड़ी उसके दामन को दागदार कर उसे मर्दों का खिलौना बना दिया। जीवन तो नर्क बन ही गया लेकिन धुन की पक्की अजीजन ने मौका मिलते ही वह सब कुछ कर दिखाया जिसकी गौरी सत्ता को कल्पना तक नहीं थी।

     मध्य प्रदेश के राजगढ़ के जागीरदार शेरसिंह की पुत्री अंजशा इलाके के देवी मेला में घूमने गई और वहीं पर अंग्रेज हुक्मरान उसके सौन्दर्य के कायल हो गए। अंजशा का अपहरण कर लिया गया और उसे अपने शिविर में लाकर अपनी हवस मिटाने लगे। अत्याचार के आगे मुंह खोलने का किसी का साहस नहीं था और अंजशा को उसके हाल पर छोड़ दिया गया। काफी समय तक साथ रखने के बाद गोरे अफसरों को वह धीरे-धीरे बोझ लगने लगी। कुछ समय बाद अंजशा को कानपुर के लाठीमोहाल में कोठा संचालित करने वाली अम्मीजान के हाथों 500 रूपए में बेच दिया गया। कोठे पर उसे अंजशा से अजीजनबाई नाम दे दिया गया।

     अजीजन बेगम ने साबित कर दिखाया कि वह घुंघरूओं से झनकार निकालना ही नहीं जानती बल्कि तलवार से चिंगारियां निकालना भी जानती हैं। उसने युवतियों की एक टोली बनाई थी जो कि मर्दाना वेश में रहती थी। वे सभी घोड़ों पर सवार होकर हाथ में तलवार लेकर नौजवानों को आजादी के संग्राम में हिस्सा लेने के लिए आमंत्रित करती थी। युद्धों के दौरान अजीजन ने सिद्ध कर दिया कि वह वारांगना नहीं अपितु वीरांगना हैं। बिठूर में हुए युद्ध में पराजित होने के बाद नाना साहब और तात्या टोपे को भागना पड़ा लेकिन अजीजन पकड़ी गई।

     इतिहासकारों के अनुसार युद्ध बंदिनी के रूप में उसे जनरल हैवलॉक के सामने पेश किया गया। उसके अप्रतिम सौंदर्य पर अंग्रेज अफसर मुग्ध हो उठे। जनरल ने उसके समक्ष प्रस्ताव रखा कि यदि वह अपनी गलतियों को स्वीकार कर अंग्रेजों से क्षमा मांग ले तो उसे माफ कर दिया जाएगा और वह पुनः रास-रंग की दुनिया सजा सकती हैं। अन्यथा कड़ी से कड़ी सजा भुगतने के लिए तैयार हो जाए। लेकिन उसने क्षमा याचना करने से इंकार कर दिया।

     वैश्याओं के अपमानित कर देने वाले व्यंग बाणों ने देशभक्त सिपाहियों के धैर्य का बांध तोड़ डाला और प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की ज्वाला समय से पूर्व ही मेरठ में 10 मई 1857 को भड़क उठी। इसमें शक नहीं कि समाज में अति तुच्छ स्थान रखने वाली यह स्त्रियां अगर अपने तानों से सिपाहियों को प्रोत्साहित न करती तो स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में मेरठ का नाम भी स्वर्णिम अक्षरों में न अंकित हो पाता। वरना पूर्व नियोजित कार्यक्रम के अनुसार 31 मई को पूरे देश में एक साथ इस महासंग्राम की ज्वाला प्रज्जवलित की जानी थी, जिससे गोरों को अपने बचाव का कोई मौका न मिल सके।

     अठारह सौ सत्तावन का भारत के विशाल लोक जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा रानी लक्ष्मीबाई, बेगम हजरत महल तथा राजेश्वरी देवी आदि के संबंध में जनसाधारण की उक्तियां इतिहास के आधारभूत उपादान हैं। इसी तरह मुजफ्फनगर में जमींदार परिवार की असगरी बेगम, गुर्जर आशा देवी, त्यागी परिवारों की बख्तावरी देवी और भागवती, मुसलमान गुर्जर हबीबा की शहादत इंग्लिश गेजेटियर्स में दर्ज हैं। इनको झुकने के बजाए हर गम मंजूर था। गेजेटियर्स में लिखा गया हैं कि अंग्रेजों से छीनी गई सत्ता वापस लेते वक्त किसी को नहीं बख्शा। सबसे ज्यादा जुल्मों की शिकार महिलाएं हुई। उन्हें सरेआम फांसी दी गई या घरों में गोलियों से उड़ा दिया गया। कुल मिलाकर पहली जंगे आजादी में भी महिलाओं ने मर्दों के साथ खुलकर शहादत दी।

     इन वीरांगना पर लिखते समय लोक गीत, लोक कथा, स्थानीय इतिहास, लोगों में प्रचलित रासो नामक लोक गाथाएं और लोगों के मुख से सुने गान को एक बड़ा आधार बनाया गया। किन्तु कहानियों, गानों और गाथाओं में अनेक मनुष्यों के मन में इन वीरांगनाओं की आज भी नित्य पूजा, नित्य आराधना होती रहती हैं।

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