The Problem is not Population Growth, But Its Control

The Problem is not Population Growth, But Its Control

26 Jul 2024 23:55 PM | Me Admin | 73

समस्या जनसंख्या वृद्धि नहीं, इसका नियंत्रण हैं                                                                                    

‘‘जिस दिन बच्चे पैदा होना बंद हो जाएं,

उस दिन समझो प्रकृति इंसान से निराश हो गई‘’

 - रवीन्द्रनाथ टैगोर

      आदिम भारतीय समझ में कभी ज्यादा आबादी को बोझ नहीं माना गया। यह धारणा मुखर रहीं की बच्चा एक मुंह और दो हाथ के साथ पैदा होता हैं। कहीं न कहीं इस समझ ने देश की आबादी को महाकाय बनाने में भी अपनी भूमिका निभाई। कुछ दशक पहले तक जो लोग आबादी को समस्या मानते रहे हैं आज वे अपनी सोच बदलने को बेबस हुए हैं। हमारी ब़ड़ी आबादी हमारा बड़ा संसाधन बन चुकी हैं। दुनिया की आबादी में हमारे करीब 18 फीसद हिस्सेदारी हैं। वह अगर बड़ी उत्पादक हैं तो बड़े उपभोक्ता के रूप में भी घरेलू खपत को बढ़ा रही हैं। इसी आबादी के बूते अधिकांश देशों की अर्थव्यवस्था कुलांचे भर रही है। यहां 91 फीसद आबादी 59 साल से कम उम्र की हैं। जहां दुनिया के अधिकांश देश बीमार और अपेक्षाकृत अधिक बुजुर्ग आबादी के बोझ से दबे हैं वहीं हमारे पास इस युवा और कार्यशील मानव संसाधन का जखीरा हैं। यही मानव संसाधन भारत को  विश्व शक्ति की ओर बढ़ा रहा हैं। इस पर हमे फख्र हैं। चुनौती सिर्फ हर हाथ को हुनर और हर दिमाग को कौशल युक्त बनाकर रोजगार से जोड़ने यानी जनसंख्या नियोजन की हैं।

      हमारे देश में जनगणना के वर्तमान स्वरूप की शुरूआत 1881 में हुई, लेकिन इसकी कल्पना बहुत पुरानी हैं। अगर इतिहास को खंगाले तो सबसे पहले इसका जिक्र करीब 2400 साल पुराने कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र‘ (321-276 ईसा पूर्व) में मिलता हैं। इसके बाद मुगल काल के दौरान भी जनगणना की कल्पना की गई थी। अकबर के जीवनीकार अबुल फजल ने अपनी किताब ‘आइना-ए-अकबरी‘ में जनगणना का जिक्र किया है। एक रिकॉर्ड के मुताबिक, 1687 में जब इलिहु येल मद्रास प्रेसीडेंसी के गर्वनर थे, तब इंगलैंड के राजा ने यह इच्छा जाहिर की थी की फोर्ट सेंट के निवासियों की गिनती की जाए, लेकिन राजा की ये इच्छा पूरी नहीं हो सकी। इसके बाद 1853 में नॉर्थ वेस्टर्न प्रांत के निवासियों की गिनती की गई। इसके बाद कई गणनाएं हुईं, लेकिन सही मायनों में वो ‘जनगणना‘ नहीं थी, बल्कि किसी क्षेत्र में रहने वाले लोगों की एक अनुमानित गिनती थी, जिसकी मदद से किसी ठोस निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता था। सही मायनों में पहली बार देश के विभिन्न हिस्सों में व्यवस्थित जनगणना का काम 1865 से 1872 के बीच हुआ। यही वजह हैं कि 1872 की जनगणना को देश की पहली जनगणना का भी दर्जा दिया जाता हैं। हालांकि आधिकारिक रूप से 1881 की जणगणना ही देश की पहली जनगणना मानी जाती हैं।

Population Growth

      देश में जनसंख्या (Population) कितनी तेजी से बढ़ रही हैं, इसका अंदाज वर्ष 2011 की नई जनगणना के आंकडो से लगाया जा सकता हैं। इन आंकड़ों के अनुसार देश की आबादी 121.05 करोड़ रही। फरवरी 2022 के अंत तक देश की आबादी बढ़कर करीब 135 करोड़ हो जाएगी हैं। देश में 2001 से 2011 के बीच 18 करोड़ 21 लाख के लगभग जनसंख्या वृद्धि हुई जो विश्व के पांचवें सर्वाधिक आबादी वाले देश ब्राजील की कुल आबादी से भी ज्यादा हैं। हर साल हमारे देश की आबादी में आस्टेलिया की आबादी के बराबर नई जनसंख्या जुड़ जाती हैं। इतना ही नहीं केवल उत्तर प्रदेश की आबादी पाकिस्तान की कुल आबादी से अधिक हैं। देश के 35 फीसदी लोग अब भी निरक्षर हैं। चीन की 1.35 अरब आबादी के बाद दुनिया में 1.21 अरब लोगों के साथ हम दूसरे स्थान पर हैं। दुनिया के कुल जमीनी रकबे में हमारे हिस्सेदारी महज 2.4 फीसदी हैं जबकि जनसंख्या में यह हिस्सेदारी 17.5 फीसद हैं। दुनिया का हर छठा आदमी भारतीय है। तेज रफ्तार से बेरोकटोक बढ़ रही जनसंख्या के सांख्यिकीय विश्लेषण के बाद अमरीका के ‘पापुलेशन रेफरेंस ब्यूरो‘ तथा ‘लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स’ ने कहा हैं कि सन् 2050 में भारत की जनसंख्या विश्व में सर्वाधिक 160 करोड़ से अधिक हो जाएगी। दूसरे स्थान पर चीन की जनसंख्या होगी। अध्ययन रिपोर्ट का मानना हैं कि बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में वर्ष 2001 एवं 2026 के मध्य जनसंख्या में 50 प्रतिशत की वृद्धि होगी।

Population Growth

      भारत जैसे धर्म निरपेक्ष देश में बढ़ती जनसंख्या पर तभी काबू हो सकती हैं, जब उसमें सभी धर्मावलंबियों, समाज, जाति और वर्गोंकी सहभागिता हो। देश में परिवार नियोजन अपनाने के लिहाज से मुुसलमान सबसे पीछे हैं। उनकी बहुसंख्यक आबादी में आज भी भ्रम हैं कि परिवार नियोजन ‘इस्लाम‘ के विरुद्ध हैं। रूढ़िवादी और दकियानूसी धर्मगुरू कुरान की आयतों का हवाला दे लोगों को गुमराह करते हैं। जनसंख्या नियंत्रण पहली सीढ़ी हैं, जो तमाम कमियों से छुटकारा दिला सकती हैं। यही वह समस्या हैं, जिसके कारण हम युवा शक्ति के भटकाव सहित तमाम अन्य दुश्वारियों के शिकार हैं।

      सच हैं कि भारत में वोट बैंक की राजनीति का दबाव सरकारों को कठिन निर्णय लेने से रोकता हैं। सरकारें ऐसे फैसले लेने में कई बार घबराती हें, परंतु लोक-कल्याणकारी सरकारों का यह भी दायित्व हैं कि वे देश की भावी संभावनाओं के व्यापक हित में कठोर कदम भी उठाएं । साल 2021 की जनगणना अब बहुत दूर नहीं हैं। ऐसा न हो कि लोक-लुभावन घोषणाओं के दबाव के चलते हम जन-दबाव में ही पिसकर रह जाएं और फिर उससे निकलने के विकल्प भी शेष न बचें। भारत की आबादी तेजी से बढ़  रही हैं, देश में फैली गरीबी का यही प्रधान कारण हैं और जब तक हम इस पर अंकुश नहीं लगाते, हम आर्थिक विकास नहीं कर पाएंगे। भारत के करोड़ो लोगो के जीवन को अभिशप्त कर रही गरीबी, कुस्वास्थ्य, निरक्षरता, बेरोजगारी, कुपोषण, चौतरफा तंगहाली और पतन का सर्वप्रमुख कारण अतिशय जनसंख्या वृद्धि हैं।

      उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट हैं कि जनसंख्या नियंत्रण का लाभ अल्पकालिक होता हैं। संतान कम उत्पन्न होने पर कुछ दशक तक संतानोत्पत्ति का बोझ घटता हैं और विकास दर बढ़ती हैं, परंतु कुछ समय बाद कार्यरत श्रमिकों की संख्या में गिरावट आती हैं और उत्पादन घटता हैं। साथ-साथ वृद्धों का बोझ बढ़ता हैं और आर्थिक विकास दर घटती हैं। स्पष्ट होता हैं कि आर्थिक विकास की कुंजी कार्यरत वयस्कों की संख्या हैं। इनकी संख्या अधिक होने से आर्थिक विकास में गति आती हैं।

      बढ़ती जनसंख्या यदि उत्पादन में रत रहे तो जीवनस्तर में सुधार होता हैं। अतः समस्या लोगों को रोजगार दिलाने की हैं, न कि जनसंख्या की अधिकता की। लेकिन बहुत आगे जाने की जरूरत हैं। चीन समेत भारत को समझना चाहिए कि जनसंख्या सीमित करने से आर्थिक विकास मंद पड़ेगा। जरूरत ऐसी आर्थिक नीतियों को लागू करने की हैं जिनसे लोगों को रोजगार मिले और वे उत्पादन कर सकें। पर्यावरण पर बढ़ते बोझ को सादा जीवन अपनाकर मैनेज करना चाहिए न कि जनसंख्या में कटौती करके।

      बढ़ती जनसंख्या हमारी पूंजी हैं। उसे संसाधनों से वंचित करने से वह बोझ बन जाती हैं। संसाधन उपलब्ध करा दे तो यही जनसंख्या लाभकर बन जाएगी। समस्या सामाजिक ढांचे में हैं, जो जनता को संसाधनों तक पहुंचने नहीं दे रहा हैं। अधिक जनसंख्या लाभकारी हैं। यदि उसे जीविका के लिए संसाधन उपलब्ध करा दिए जाएं। इस कार्य में बाधा संसाधनों की कमी नहीं, बल्कि संभ्रांत वर्गों का एकाधिकार हैं। हमारे धर्मशास्त्रों में संभ्रांत वर्ग के सामने त्याग का आदर्श रखा गया था वह लुप्त हो गया हैं। इस त्याग की संस्कृति को पुनर्जीवित करें तो जनसंख्या लाइबिलिटी के स्थान पर ऐसेट बन जाएगी। रामचरित मानस का पहला खंड बालकांड हैं। इसमें संतानोत्पत्ति की महत्ता का वर्णन हैं। पांडव पांच और कौरव 100 भाई थे। कौटिल्य अर्थशास्त्र में कहते हैं कि राजा को पड़ोसी देश की जनता को प्रलोभन देकर आकर्षित करना चाहिए। वीरान पड़ी भूमि को कृषि योग्य बनाना चाहिए। वैसे भी भारतीय संस्कृति ‘दूधो नहाओ-पूतो फलो‘ की हैं। यह आशीर्वाद हैं।

      इस धारणा को पश्चिमी नीति निर्माताओं ने अपने स्वार्थ में प्रचारित किया था और दास मानसिकता वाले हमारे बुद्धिजीवियों व कर्णधारों ने उसे बिना विचारे मान लिया। किसी देश के विकास और मजबूती में जनसंख्या का कम होना समस्या हो सकता हैं, अधिक होना नहीं। लेकिन जब समय आ गया हैं कि आबादी का रोना रोने की बजाय पूरी मानव जाति की गुणवत्ता वृद्धि पर ध्यान दिया जाए।

      जिस अति जनसंख्या का रोना हमारे नीति निर्माता या विदेशी मार्गदर्शक रोते हैं, उसी ने भारतीय सभ्यता को बचा रखा हैं। अन्यथा कथित सुशिक्षित उच्च वर्ग न तो इसे तहस-नहस करने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी। इतिहास में ऐसा कोई देश नहीं, जो अधिक जनसंख्या से नष्ट हो गया हो। जबकि कम जनसंख्या से यूनानी और रोमन समेत कई सभ्यताएं मिट गई। द्वितीय विश्वयुद्ध में फ्रांस की हार का प्रमुख कारण उसकी कम आबादी थी। जबकि जर्मनी को हराने में रूस की बड़ी आबादी और क्षेत्र की भी बड़ी भूमिका थी। आज को घटती जनसंख्या से यूरोप के कई देश भविष्य में अपने लिए अस्तित्व का संकट देख रहे हैं। कुछ अलग रूप में हिंदू भारतीय सभ्यता के लिए भी यह संभावना सिर उठा रही हैं। कारगिल युद्ध के समय पाकिस्तानी जेहादियों ने पश्चिमी संवाददाताओं को कहा भी कि केवल भारत की बड़ी आबादी उनके लिए बाधा हैं, वरना इसे वे हासिल कर चुके होते।

      यदि यूरोपीय देशों मे मूल आबादी में गिरावट जारी रही, तो आज के हिसाब से अरब, अफ्रीकी देशों से आ रहे इस्लामी आव्रजक उन देशों पर अंततः अधिकार कर लेंगे। इस प्रकार उनकी खुशहाली ही नहीं भविष्य में अस्तित्व तक असुरक्षित हैं। आज सबसे तेजी से अफ्रीका की जनसंख्या बढ रही हैं। यह वृद्धि दर कायम रही, तो इस शताब्दी के उत्तरार्द्ध में वे विश्व की सबसे बड़ी जाति होगें। हो सकता हैं, उनका जन प्लावन अमेरिका और यूरोप का स्वरूप भी बदल दे। भारत के उत्तर, पश्चिम और पूरब, तीनों दिशाओं से जनसांख्यिकी घुसपैठ हो रहीं हैं। इसका कारण बांग्लादेश व पाकिस्तान में जनसंख्या वृद्धि दर भारत से अधिक होना भी हैं। यदि यहां जनसंख्या वृद्धि दर और घटेगी, तो बांग्लादेश व पाकिस्तान से आव्रजन और बढ़ेगा। हमारे भीरु बुद्धिजीवी इस घुसपैठ को रोकने को भी अमानवीय व सांप्रदायिक समझते हैं, असम में आईएमडीटी ऐक्ट से संबंधित राजनीति इसका प्रमाण हैं। हमारे धर्मनिरपेक्ष लोग ऐसा तब तक समझते रहेंगे, जब तक घुसपैठिये उन्हें अपने घरों से खदेड़ न देंगे। घुसपैठिये लाहौर , रावलपिंडी और ढाका में 55 वर्ष पहले यह कर चुके हैं। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकेगी। जब तक बांग्लादेश और पाकिस्तान में भी जनसंख्या वृद्धि दर कम नहीं होती, तब तक हमारी जनसंख्या नियंत्रण की कोशिशों से विकट समस्याएं पैदा हो जाएगी।

      अब उसे जनसंख्या नियंत्रण की बजाय मातृ मृत्यु तथा बाल मृत्यु को नियंत्रित किए जाने पर ध्यान देना होगा। यदि इनकी उपेक्षा की गई तो भारतीय समाज की संरचना असंतुलित और बेढंगी हो सकती है। वैसे भी इनका सीधा संबंध जहां स्त्री-पुरुष अनुपात से हैं, वहीं जनसंख्या नियंत्रण से भी हैं। इसी से जुड़ी बात है-शिक्षा, स्वास्थ्य तथा अन्य सेवाओं की। असली संकट यहीं हैं। भारत जैसे देश को सुविधाओं के विस्तार पर काम करना होगा। शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य पर ज्यादा ध्यान देना होगा। सरकारों को इनकी बेहतरी के लिए हर संभव उपाय करने होंगे। यदि ऐसा नहीं किया गया तो कुल जनसंख्या में तेजी से गिरावट आएगी, जो भविष्य के लिए खतरनाक हो सकती हैं। फिर सरकार को इसके लिए उल्टी दिशा में काम करना पड़ सकता हैं, ‘जनसंख्या बढ़ाओं‘ की दिशा में। लगभग साल भर पहले चीन ने  ‘दो बच्चों‘ की स्वीकृति देकर ऐसा ही किया है। रूस और ब्राजील के साथ-साथ कई अन्य यूरोपीय देशों की यह दर स्थिर जनसंख्या की दर से भी कम चली गई हैं।

      दिक्कत सिर्फ यह हैं कि हर हाथ को हुनर और हर दिमाग को कौशल युक्त बनाना होगा। यह बड़ी चुनौती है। सरकार कौशल विकास की तरफ बढ़ भी चली है। इस कार्यक्रम को तेज किए जाने की जरूरत हैं। ऐसा करके हम शीघ्र ही उस गौरव के आनंद की अनुभूति कर सकेंगे जब हमारे शिक्षक, इंजीनियर, आइटी विशेषज्ञ, वैज्ञानिक सहित ए.ग्रेड के तमाम पेशेवर से लेकर डी ग्रेड तक के पेशेवर दुनिया के तमाम देशों में अपने कौशल और हुनर का जादू बिखेरेंगे।

      अर्न्स्ट एंड यंग और फिक्की के एक अध्ययन के अनुसार वर्तमान में भारत एक ऐसे ऐतिहासिक मोड़ पर खड़ा हैं जहां पर वह अगले कई दशकों तक प्रचुर आर्थिक लाभ लेने की स्थिति में हैं। बड़ी आबादी और तेज वृद्धि दर ने एक ऐसा जनसांख्यिकीय पिरामिड तैयार कर दिया है जिसका लाभ देश-दुनिया को कई दशकों तक मिलता रहेगा। 2025 तक भारत की जनसंख्या 1.4 अरब तक पहुंचने का अनुमान हैं। उस दौरान जो जनसंख्या पिरामिड होगा उसमें 15-64 आयु वर्ग का सर्वाधिक विस्तार होगा। साथ ही कार्यशील आबादी की संख्या 2011 में 76.1 करोड़ के मुकाबले बढ़कर 2020 में 86.9 करोड़ होगी। परिणामस्वरूप  2020 तक देश जनसांख्यिकीय बोनस का अनुभव करता रहेगा। साथ ही, 64 प्रतिशत, 2026 तक देश के 15-59 आयु वर्ग की कुल आबादी में अनुमानित हिस्सेदारी होगी जबकि 13 प्रतिशत, कुल आबादी में 60 साल से ऊपर की अनुमानित हिस्सेदारी होगी इस कालखंड में कार्यशील आबादी की वृद्धि दर कुल आबादी की वृद्धि दर से अधिक होगी।

      चीन जब अपने चरम पर होगा, उससे पहले ही भारत की आबादी उससे अधिक हो जाएगी। कुछ लोग इसे उपलब्धि मानते हैं। उन्हें लगता है कि हम अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी चीन को मानव शक्ति के जरिये पछाड़ देंगे। उनका तर्क हैं कि जब चीन अपनी समृद्धि की चोटी पर होगा, तब तक उसकी आबादी बुजुर्ग हो जाएगी। वहीं भारत अभी मध्य आयवर्ग की स्थिति में है, जबकि उसकी औसत आबादी युवा ही है। लगभग 70 फीसदी भारतीय 35 साल से कम उम्र के हैं। ऐसे में, इस सदी के मध्य तक भारत आर्थिक शक्ति के तौर पर उभर सकता हैं। उस समय न तो स्वयं के लिए हम बोझ बने और न ही समाज के लिए। इस बारे में एक मजबूत, व्यावहारिक तथा दीर्घकालिक नीति की अभी ही आवश्यकता है। यद्यपि जनसंख्या के स्वरूप में धीरे-धीरे  ही परिवर्तन होता हैं, लेकिन एक बार स्वरूप ग्रहण कर लेने के बाद यह अत्यंत शक्तिशाली हो जाता हैं। देश पर इसका जबर्दस्त प्रभाव पड़ता है। इसलिए अभी से ही सतर्क होना जरूरी हैं। यूरोप या जापान की जनसंख्या वृद्धि थम गई हैं। तमाम कोशिशों के बाद भी वे उसे बढा नहीं पा रहे। चीन ने अपनी जनसंख्या रोकने के लिए 1979 ई0 में एक बच्चा प्रति परिवार का नियम लागू करने की कोशिश की, पर सफल नहीं हो पाया। जब किसी भी देश की कुल प्रजनन दर (टोटल फर्टिलिटी रेट) 2.1 पर आ जाती हैं तो वहां की जनसंख्या स्थिरता को प्राप्त कर लेती हैं। दुनिया में सबसे पहले भारत ने 1952 में परिवार नियोजन कार्यक्रम शुरू किया, फलस्वरूप 1965 में भारत परिवार नियोजन कार्यक्रम लागू करने वाला दुनिया का पहला देश बना।  लेकिन यही सबसे अधिक विफल सिद्ध हुआ।

जनसंख्या शक्ति हैं, दुर्बलता नहीं

हर मनुष्य उससे अधिक योगदान करता हैं, जितना वह सामान्य उपयोग करता हैं कुव्यवस्था को जनसंख्या वृद्धि के माथे नहीं मढ़ना चाहिए। सिंगापुर जैसे देश क्षेत्रफल अनुपात आबादी की दृष्टि से भारत से बहुत अधिक घने हैं, पर सुव्यवस्था की बदौलत वे समृद्धतर हैं। इसलिए हमें अपनी जनता की उत्पादक शक्ति का सदुपयोग करने पर ध्यान देना चाहिए न कि जनसंख्या को कम करने पर।

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