क्षेत्रीय स्तर पर आपसी सहयोग के माध्यम से विकास सुनिश्चित करने की परम्परा का जन्म मुख्यतः द्वितीय विश्व युद्ध के बाद हुआ। यूरोपीय कॉमन मार्केट तथा आर्थिक समुदाय की सफलता में अन्य देशों को क्षेत्रीय सहयोग की प्रेरणा दी। एशिया में आसियान के माध्यम से दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों ने आपसी सहयोग के द्वारा स्वतः को एशियन टाइगर के रूप में प्रति स्थापित किया। इन्हीं संगठनों की सफलता से प्रेरणा लेकर बांग्लादेश के राष्ट्रपति, जियाऊर रहमान के पहल पर दक्षिण एशिया के सात देशों -भारत, भूटान, नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका, मालदीव एवं पाकिस्तान ने मिलकर ढ़ाका, में 8 दिसम्बर 1985 में SAARC की स्थापना की। SAARC के कार्यो को सुचारू रूप से संचालन के लिए काठमॉण्डू में सचिवालय स्थापित किया गया है। अप्रैल 2008 में संगठन के 14 वें शिखर सम्मेलन में अफगानिस्तान सार्क का आठवां सदस्य बन चुका है तथा चीन, जापान, म्यांमार, आस्ट्रेलिया, USA, दक्षिण कोरिया व यूनाइटेड यूरोप, ईरान, मारीशस सहित नौ देशों को पर्यवेक्षक का दर्जा दिया गया है। SAARC, संयुक्त राष्ट्र में एक पर्यवेक्षक के रूप में स्थायी राजनयिक संबंधों को बनाए रखता है तथा इसने बहुपक्षीय संस्थाओं के साथ संबंध भी स्थापित किये हैं।
यद्यपि SAARC के चार्टर में 10 बातें कही गई है जिसमें से प्रमुख को हम निम्न रूप में व्यक्त कर सकते हैं।
1. SAARC देशों के साथ आर्थिक, सामाजिक, सास्ंकृतिक व वैज्ञानिक एवं तकनीकी सहयोग को बढ़ावा दिया जाएगा ताकि आत्म-निर्भरता प्राप्त किया जा सके।
2. SAARC देश के सारे सदस्य अर्न्तराष्ट्रीय मंचों पर एक राजनीतिक सहयोगी के रूप में खड़े होंगे।
3. SAARC समान सम्प्रभुता के सिद्धान्त पर आधारित होगा।
4. SAARC के मंच पर कोई भी राष्ट्र अपना राजनीतिक विवाद नहीं उठायेगा।
5. अगर सामूहिक सहयोग नहीं हो पाता है तो बहुपक्षीय या द्विपक्षीय सहयोग को भी सार्क भावना के अनुरूप माना जाएगा।
सार्क के प्रारंभिक एजेंडे में द्विपक्षीय मुद्दे शामिल नही थे साथ ही छोटे देशों का व्यापार पर संदेह था केवल गैर-विवादास्पद मुद्दे सार्क एजेंडे में शामिल थे सहयोग के रूप में नौ गैर-विवादास्पद क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित किया गया है जिन्हें ‘‘कार्रवाई के सार्क एकीकृत कार्यक्रम‘‘ या ‘‘कार्रवाई के क्षेत्रीय कार्यक्रम‘‘ के रूप में जाना जाता है। इन क्षेत्रों में कृषि एवं ग्रामीण विकास, परिवहन एवं संचार, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, संस्कृति, स्वास्थ्य, जनसंख्या नियंत्रण, खेल एवं कला सम्मिलित है। बाद में क्षेत्रीय सहयोग, क्षेत्रीय एकीकरण व बहुपक्षीयता को शामिल किया गया। सार्क के क्षेत्रीय केंद्रों में सार्क कृषि केंद्र (SAG) 1989, ढाका, सार्क ऊर्जा केंद्र (SEC), 2006, इस्लामाबाद, सार्क सांस्कृतिक केंद्र (SCC) 2009, कोलंबो, सार्क तपेदिक और HIV/AIDS केंद्र (STAC), 1992, काठमांडू, सार्क आपदा प्रबंधन केंद्र (SDMC), 2016, दिल्ली, आदि
दक्षिण एशियाई देशों में क्षेत्रीय सहयोग की सम्भावनाओं का पता लगाने व क्रियान्वयन हेतु 1987 ई0 में ‘‘एक अध्ययन दल‘‘ का गठन किया गया। इसी तरह एकीकरण प्रयासों की समीक्षा व सुझाव के लिए “(EPG Eminent Pesson Group)” प्रकाश में आया है। इसी समूह ने 2002 में दक्षिण एशियाई संघ बनाने तथा एक मुद्रा जारी करने का प्रस्ताव रखा था। EPG को सार्क विजन 2020 का कार्य सौंपा गया है। 1991 में क्षेत्रीय विकास परियोजनाओं हेतु ‘‘दक्षिण एशियाई विकास कोष‘‘ की स्थापना का निर्णय लिया गया था जो 2008 में स्थापित हो चुका है। 2004 ई0 में विकास व केन्द्रीय बैंकों के समन्वय कार्य के लिए दक्षिण एशियाई विकास बैंक के स्थापना की घोषणा की गई है। दक्षिण एशिया में अधिसंरचनात्मक विकास के लिए 10 अरब डालर का एक ‘‘प्रधिसंरचनात्मक कोष‘‘ बनाने का फैसला किया गया है। ताकि सदस्य देशों की अर्थव्यवस्थाओं को आपस में जोड़ा जा सके।
दक्षेस देशों में खाद्य संकट एक सामान्य समस्या है। इससे निपटने के लिए 1987 ई0 में ‘‘दक्षेस खाद्य सुरक्षा भंडार‘‘ तथा 2007 ई. में ‘‘दक्षेस खाद्य बैंक‘‘ स्थापित करने का समझौता सम्पन्न हुआ है। 2004 में पहली बार गरीबी निवारण व ग्रामीण विकास हेतु 10 सूत्रीय चार्टर स्वीकार किया गया है। 2007 मे आम आदमियों से जुड़ी समस्याओं यथा-पानी, बिजली, पर्यावरण आदि क्षेत्रों में सहयोग का संकल्प लिया गया है। दक्षेस देश आंतकवाद से निपटने के लिए सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव संख्या 1373 को मान्यता देते है। 2008 में आतंकवाद, तस्करी व अपराध से निपटने के लिए ‘‘दक्षेस साझा कानून सहायता संधि‘‘ पर हस्ताक्षर हुआ है। 2008 में द्विपक्षीय व्यापार को बढ़ाने में सहायक की भूमिका निभाने के लिए दक्षेस क्षेत्रीय मानक संगठन पर समझौता हुआ है। दक्षेस देशों के बीच संसदीय फोरम गठित करने पर चर्चा हुई थी।
दक्षेस की सबसे बड़ी उपलब्धि 1995 ई. में SAPTA तथा 2006 में SAPTA को लागू करना माना जा सकता है। साफ्टा में कम विकसित देशों को कुछ सहुलियतें दी गई है। परन्तु इस संधि के दायरे में आने वाली वस्तुओं की सूची बहुत छोटी है। 2007 में दक्षेस विश्वविद्यालय, ‘‘दक्षेस मध्यस्था परिषद‘‘ तथा दक्षेस कस्टम यूनियन गठित करने पर सहमति हुई है। 2008 में सार्क देशों ने जल विद्युत एवं प्राकृतिक गैस हेतु नेटवर्क विकसित करने पर जोर दिया है। यथार्थ यह है कि दक्षेस मंचों से घोषणायें ज्यादा हुई है परन्तु उसकी उपलब्धियों व व्यवहार पूरी तरह से असंतोष जनक हैं
काठमांडू में 2014 में आयोजित SAARC के 18वें शिखर सम्मेलन में, ऊर्जा सहयोग (विद्युत) संबंधी SAARC फ्रेमवर्क समझौते पर हस्ताक्षर किया गया। सार्क विद्युत व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर का मूल-कारण, अलग-अलग सदस्य देशों के सम्मुख घरेलू ऊर्जा संकट था। उदाहरण के तौर पर, पाकिस्तान अपनी बढ़ती ऊर्जा मांगों की पूर्ति के लिए संघर्षरत है। इस समझौते के तहत-
समझौते को एक अति महत्वपूर्ण सहकारी योजना के रूप में माना जा रहा है, जिसका लक्ष्य, विद्युत् के सीमा-पार व्यापार को सक्षम बनाना, एक साझा नियामक तंत्र का विकास करना तथा सीमा-शुल्कों के अधित्याग जैसे व्यापक मुद्दों को संबोधित करना है।
18वें शिखर सम्मेलन ने तीन क्षेत्रीय केन्द्रों को बंद करने का निर्णय लिया नामतः नई दिल्ली में SAARC डॉक्यूमेंटेशन सेंटर (SDC), इस्लामाबाद में SAARC मानव संसाधन विकास केंद्र (SHRDC) तथा काठमांडू में SAARC सूचना केंद्र (SIC) तथा अपने जनादेशों को सचिवालय व अन्य तंत्रों में स्थानांतरित करने का निर्णय लिया।
इसने चार क्षेत्रीय केंद्रों, नामतः SAARC तटीय क्षेत्र प्रबंधन केंद्र (SCZMC), SAARC मौसम-विज्ञान अनुसंधान केंद्र (SMRC), SAARC वन्यजीव केंद्र (SFC) व SAARC आपदा प्रबंधन केंद्र (SDMC) के विलय तथा ‘SAARC पर्यावरण एवं आपदा प्रबंधन केंद्र‘ (SEMDC) नामक एक नए केंद्र के निर्माण का निर्णय लिया गया।
दो अन्य समझौते, यात्री व कार्गो यातायात के विनियमन हेतु SAARC मोटर वाहन समझौता तथा रेलवे पर SAARC क्षेत्रीय समझौता, पर 18वें शिखर सम्मेलन के दौरान हस्ताक्षर किए जा सकते थे यदि अंतिम क्षणों में पाकिस्तान द्वारा आपत्ति न उठाई गयी होती।
SAARC के प्रति भारत का दृष्टिकोण सदैव सकारात्मक रहा है। परन्तु SAARC के अन्य देशों के मुकाबले भारत की आर्थिक, राजनीतिक व सामरिक हैसियत सदैव आशंका का विषय रही है। पाकिस्तान की नकारात्मक भूमिका व दुष्प्रचार ने इसे और भी बढ़ाने की कोशिश की है। इसलिए भारतीय विदेश नीति, अर्थनीति व सामरिक नीति में इस आशंका को दूर करने की लगातार कोशिश की गई है। जिसे हम निम्वत् स्पष्ट कर सकते हैं।
1. गुजराल डाक्ट्रीन के माध्यम से बड़े भाई की नीति
2. आर्थिक भय के निवारणार्थ गैर बराबरी के स्तर पर आर्थिक रिश्तों का विस्तार।
3. अफगानिस्तान, भूटान व नेपाल में टेली-मेडिसिन परियोजनाएं
4. काठमांडू में SAARC सूप्रा रेफरेन्स लेबोरेटरी (Super Reference Laboratory) का अपग्रेडेशन,
5. शक्ति शाली राष्ट्र होते हुए भी साफ्ट स्टेट पॉलिशी तथा समझौते के माध्यम से विवादों का निस्तारण।
6. क्षेत्र में अवसंरचना परियोजनाओं के वित्तपोषण हेतु एक स्पेशल पर्पस व्हीकल की स्थापना तथा SAARC देशों के नागरिकों के लिए 3-5 वर्षों की अवधि के व्यापार वीज़ा का प्रस्ताव (2014 के शिखर सम्मेलन में)
7. दक्षिण एशिया में बच्चों के लिए वैक्सीन की आपूर्ति
8. 2017 में SAARC उपग्रह की लांचिंग
9. भारत की अपनी अत्याधुनिक राष्ट्रीय ज्ञान नेटवर्क परियोजना
10. 240 मिलियन अमरीकी डालर की लागत से नई दिल्ली में दक्षिण एशियाई विश्वविद्यालय का निर्माण
11. SAARC विकास कोष में 100 मिलियन अमेरिकी डॉलर का स्वैच्छिक योगदान, आशा है कि उपर्युक्त शुरुआत सार्क के नागरिकों के मध्य पारस्परिक विश्वास तथा आत्मविश्वास में वृद्धि करेगी।
1985 ई. मे इस संगठन के स्थापना के समय भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने सार्क को आर्थिक संगठन के अतिरिक्त सुरक्षा परिषद के प्रतिमान के रूप में विकसित करने की अपील की थी। धीरे-धीरे आतंकवाद, तस्करी, खाद्य संकट, पेयजल संकट, स्वास्थ्य, पर्यावरण आदि जैसी नई सुरक्षा चुनौतियों को सार्क के दायरे में शामिल किया गया है। जैसे - सार्क देशों के बीच सहयोग विकसित होता जाएगा। उनके बीच विश्वास बहाल होगा तथा संघर्ष व तनाव की स्थितियॉ कम होगी। क्षेत्रीय सुरक्षा सुनिश्चित होने के साथ सहयोग व विकास की गति तीव्र होगी।
भारत प्रारम्भ से ही SAARC को सफल देखना चाहता है। क्योंकि SAARC भावना का जितना अधिक विकास होगा उतना ही भारत को राजनीतिक, आर्थिक व सामरिक लाभ होगा। यदि SAARC देशों का अन्तर्राष्ट्रीय मंचों व मुद्दों पर साझा दृष्टिकोण हो तो नेतृत्व कर्त्ता देश होने के नाते भारत का कूटनीतिक महत्व बढ़ेगा। आपसी सहयोग विस्तार से सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने के नाते भारत सर्वाधिक लाभ की स्थिति में होगा। दक्षिण एशियाई देशों के बीच पर्याप्त अतिरिक्त ऊर्जा है। सहयोग विस्तार से निःसंदेह इसका लाभ भारत को प्राप्त होगा। भारत की आंतरिक व बाह्य सुरक्षा समस्याओं में सार्क देशों की सरकारों, नागरिकों या नागरिक संगठनों की प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष भागीदारी है। SAARC भावना के मजबूत होने पर भारतीय सुरक्षा पर पड़ रहे इस नकारात्मक प्रभाव का अंत हो जाएगा। साथ ही दक्षिण एशिया में भारत विरोधी गैर क्षेत्रीय शक्तियों के लिए पैर पसारना मुश्किल हो जाएगा। इस लिए प्रधानमंत्री नरेंन्द्र मोदी ने नई दिल्ली में अपने शपथ ग्रहण समारोह में दक्षिण एशिया के सभी देशों के नेताओं को आमंत्रित करके एक बड़ा कूटनीतिक कदम उठाया था।
विश्व की 21% आबादी SAARC देशों में रहती है। जो विश्व का 3% क्षेत्र है। वैश्विक अर्थव्यवस्था में 3.8% योगदान 2015 तक का शामिल है। अफगानिस्तान एवं मालद्वीप को छोड़कर सभी भारतीय उपमहाद्वीप के हिस्सा है। ये सभी सदस्य देश इतिहास, भूगोल, धर्म और संस्कृति से जुड़े है। आपसी तनाव एवं राजनीतिक उथल पुथल (भारत को छोड़कर) भी इन देशों की एक विशेषता है। SAARC देशों के साथ भारत का व्यापार उसके विदेशी व्यापार का 1% से भी कम है। (2009-10) भारत के कुल आयात का 6% सार्क से तथा कुल निर्यात का 4.6% सार्क को होता है। 2009-10 में भारत का सार्क के साथ व्यापार में 30.4% की गिरावट आयी है। एक अनुमान के अनुसार यानि SAFTA । के प्रावधान ठीक से लागू कर दिये जाये तो आपसी व्यापार दोगुना हो जाएगा प्रतिवर्ष भारत का सार्क के साथ जितना व्यापार सम्बन्ध है। उसका दो गुना SAARC का व्यापार चीन के साथ है। वर्तमान में हमारा अन्य SAARC देशों के साथ व्यापार 15 बिलियन डॉलर यानी 1002 अरब रुपये के बराबर है।
SAARC की अन्य क्षेत्रीय सहयोग संगठन से तुलना करने पर प्रगति बड़ी निराशाजनक है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने यह कहते हुए अपनी निराशा व्यक्त की, कि ‘‘क्षेत्रीय सहयोग, क्षेत्रीय विकास और क्षेत्रीय एकीकरण का गिलास आधा खाली है‘‘ 2014 में प्रधानमंत्री नरेंन्द्र मोदी ने काठमांडू में 18वें सार्क शिखर सम्मेलन में अपने भाषण में कहा कि ‘‘विश्व में अन्यत्र कहीं भी सामूहिक प्रयास इतना अधिक अत्यावश्यक नहीं है, जितना दक्षिण एशिया में है और, अन्यत्र कहीं इतना कम भी नहीं जितना यहाँ हैं।‘‘ उन्होंने यह भी कहा कि ‘‘हम में से प्रत्येक (दक्षिण एशियाई देश) ने अपनी पहल की है। हालांकि, सार्क के रूप में हम अपेक्षित एवं आवश्यक गति से आगे बढ़ने में विफल रहें हैं।‘‘
दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन की 20 वें SAARC शिखर बैठक की तारीख तय न होने से निश्चय ही संगठन में गतिरोध नहीं टूटा है। दक्षेस के विधान के अनुसार, इसका आयोजन सर्वसम्मति से होता है और इसके आठों सदस्य देशों के प्रमुखों की हिस्सेदारी अनिवार्य होती है। इसमें दो राय नहीं कि भारत और पाकिस्तान के तनावपूर्ण संबंधों का असर दक्षेस पर भी पड़ा और इसकी शिखर बैठक का आयोजन तक खटाई में पड़ गया। पिछले काठमांडू सम्मेलन में तो इन दोनों पड़ोसी देशों का आपसी तनाव संवादहीनता तक पहुंच गया था। भले ही दक्षेस के मंच पर द्विपक्षीय मसले न उठाये जाते हों पर यह असंभव है कि भारत और पाकिस्तान के बीच संवादहीनता और तनातनी के बीच दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय सहयोग की कोई प्रक्रिया चलायी जा सके। सदस्य संख्या के लिहाज से दक्षेस एक छोटा मंच है, पर इसके देशों की कुल जनसंख्या काफी विशाल है, इसलिए इसकी संयुक्त जिम्मेदारी मुक्त व्यापार से आगे बढ़कर एक विशाल आबादी को आर्थिक सुरक्षा प्रदान करने की भी है। SAARC देशों ने सबसे पहले पुलवामा आतंकी हमले की निंदा की थी। नेपाल के प्रधानमंत्री के. पी. शर्मा ओली ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र्र मोदी को फोन करके इस आतंकवादी हमले की निंदा की थी, जबकि नेपाल, श्रीलंका, मालदीव व भूटान के विदेश मंत्रालय की ओर से जारी बयान में इस ‘‘जघन्य कृत्य‘‘ की कड़ी ‘‘निंदा‘‘ की गई थी। SAARC के अध्यक्ष ने यदि बयान जारी कर हमले की निंदा की होती, तो उग्रवाद तथा आतंकवाद पर क्षेत्रीय संगठन के रुख के बारे में ज्यादा कड़ा संदेश जाता।
भारत द्वारा नवंबर 2016 में इस्लामाबाद में आयोजित होने वाले SAARC शिखर सम्मेलन में भाग न लेने का निर्णय, पाकिस्तान के साथ बिगड़ते संबंधों की परिणति थी। हालांकि, इसने भारत के क्षेत्रीयवाद हेतु सार्क की बढ़ती अप्रासंगिकता को भी रेखांकित किया। इस संदर्भ में, सार्क के स्थान पर नए विकल्पों की खोज ने एक नए आवेग को प्राप्त कर लिया है। इस संदर्भ में सार्क माइनस वन सूत्रीकरण (saarc minus one formulation)- अर्थात् पाकिस्तान के बगैर क्षेत्रीय सहयोग को आगे बढ़ाने की ओर संकेत करता है। जिसके उदाहरण हैः
BBIN फ्रेमवर्क - भूटान, बांग्लादेश, भारत तथा नेपाल के मध्य कनेक्टिविटी, व्यापार एवं ऊर्जा, लोगों के मध्य परस्पर संबंधों पर उप-क्षेत्रीय सहयोग से संबंधित एवं संविन्यास है। हालांकि, BBIN सार्क फ्रेमवर्क का ही एक बड़ा हिस्सा था। सार्क चार्टर, इसके दो या अधिक सदस्य देशों को ‘उप -क्षेत्रीय सहयोग‘ के शुरुआत की अनुमति देता है।
एशियाई विकास बैंक का दक्षिण एशिया उप-क्षेत्रीय आर्थिक सहयोग (SASEC) कार्यक्रम - यह एक परियोजना-आधारित भागीदारी में बांग्लादेश, भूटान, भारत, मालदीव, म्यांमार, नेपाल तथा श्रीलंका को एक साथ लाता है। इस परियोजना का उद्देश्य क्षेत्रीय समृद्धि को प्रोत्साहन देना, आर्थिक अवसरों को बेहतर बनाना, तथा उपक्षेत्र में रहने वाले लोगों के जीवन की गुणवत्ता को बेहतर बनाना है। 2016 में, SASEC देशों ने SASEC परिचालन योजना 2016-2025 का अनुमोदन किया। आर्थिक गलियारा विकास को फोकस के खंडीय क्षेत्र के रूप में पेश करने वाली, यह एक 10 वर्षीय रणनीतिक रूपरेखा है।
बहुक्षेत्रीय तकनीकी और आर्थिक सहयोग के लिए बंगाल की खाड़ी पहल (बिम्सटेक) - बिम्सटेक की स्थापना 1997 में आर्थिक सहयोग के उद्देश्य से की गई थी। इसके सदस्य राष्ट्र बांग्लादेश, भारत, म्याँमार, थाईलैंड, श्रीलंका, भूटान और नेपाल हैं, जिनमें से पाँच सार्क के भी सदस्य है। बिम्सटेक दक्षिण एशिया तथा दक्षिण पूर्व एशिया के मध्य सेतु है। इसके दो सदस्य राष्ट्र म्याँमार तथा थाईलैंड आसियान के भी सदस्य हैं, अतः यह दो क्षेत्रीय आर्थिक समूहों के मध्य समन्वय स्थापित करने हेतु महत्त्वपूर्ण हैं। भारत ने बिम्सटेक के साथ संबंधों को मज़बूती प्रदान करने के लिये 2016 के गोवा ब्रिक्स सम्मेलन में इसके सदस्य राष्ट्रों को आमंत्रित किया था। बंगाल की खाड़ी क्षेत्र के आर्थिक एकीकरण हेतु बिम्सटेक अत्यंत महत्त्वपूर्ण संगठन है।
शंघाई सहयोग परिषद की बैठक में प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान को यह संदेश देने में संकोच नहीं किया कि आतंकवाद का साथ छोड़े बगैर उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता। यह वही मोदी है जिन्होंने पांच साल पहले बतौर प्रधानमंत्री अपने शपथ ग्रहण समारोह में दक्षेस देशों के नेताओं को आमंत्रित किया था। उनमें पाकिस्तान भी शामिल था, मगर अपने दूसरे कार्यकाल की शुरुआत से पहले, शपथ ग्रहण समारोेह में उन्होने बंगाल की खाड़ी के लिए बहु-क्षेत्रीय तकनीकी एवं आर्थिक सहयोग पहल यानी बिम्सटेक के सदस्य देशों के राष्ट्र प्रमुखों के अलावा किर्गिस्तान के राष्ट्रपति और मॉरीशस के प्रधानमंत्री को आमंत्रित किया। इस्लामाबाद को सीधे तौर पर खारिज करने के बजाय मोदी ने कूटनीतिक दंाव खेलकर बिम्सटेक के नेताओें को बुलाया।
भारत ने पाकिस्तान को सार्क सदस्य देशों की उस सूची से बाहर कर दिया है, जिन्हें भारत अपनी अत्याधुनिक राष्ट्रीय ज्ञान नेटवर्क (National Knowledge Network-NKN) परियोजना से जोड़ना चाहता है।
भारत, पाकिस्तान पर दक्षिण एशियाई एकीकरण परियोजना में शामिल होने के लिए दवाब नहीं डाल सकता है। वर्तमान समय में सार्क की प्रासंगिकता कम होती प्रतीत हो रही है। हालांकि, अन्य क्षेत्रीय एकीकरण संबंधी पहलों से प्राप्त सफलता से पाकिस्तान को सार्क की महत्ता का आभास हो सकता है जिससे सार्क को पुनर्र्जावित करने में भी मदद मिल सकती है। इस प्रकार पाकिस्तान पर ध्यान केंद्रित करने के स्थान पर, भारत को अपने पड़ोसी देशों के साथ द्विपक्षीय, उप-क्षेत्रीय तथा अंतर-क्षेत्रीय सहयोग के लिए समर्पित होना चाहिए, जिनमें पाकिस्तान को छोड़कर शेष सभी देश भारत से और अधिक प्रगति एवं पहलों की अपेक्षा करते हैं।
1. SAARC देशों में राजनीतिक अस्थिरता एवं सदस्य देशों के मध्य समझौतों के कार्यान्वयन में कमी
2. गैर क्षेत्रीय शक्तियों की दक्षिण-एशिया में बढ़ती भूमिका (विशेष रूप से चीन और अमेरिका की)
3. आर्थिक दृष्टिकोण से सार्क देशों के कुल राष्ट्रीय आय का 3/4 अकेले भारत के पास
4. सदस्य देशों के बीच आपसी विश्वास के अभाव का उच्च स्तर
5. SAARC के कुल आबादी का 70% आबादी भारत में निहित है
6. सदस्य देशों के बीच पाई जाने वाली संरचनात्मक विषमता।
7. SAARC के कुल क्षेत्र का 2/3 भारत का अकेले क्षेत्रफल है।
8. सैनिक व राजनीतिक दृष्टि से भी सबसे शक्तिशाली।
1. आर्थिक विकास के लिए छात्रों, युवाओं, निजी मीडिया, विचार मंचों, नागरिक समाज एवं संस्थानों तक पहुंच के लिए प्रभावी संचार तथा सार्वजनिक कूटनीतिक अत्यावश्यक है।
2. जैसे कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा, ‘‘संस्थानों को गतिविधियों में, संविदाओं को कार्यक्रमों में, आधिकारिक वक्तव्यों को लोकप्रिय भावनाओं में परिवर्तित करना समय की मांग है। शिखर सम्मेलनों तथा आधिकारिक स्तर की बैठकों में की गयीं घोषणाएं, क्षेत्रीय सहयोग या एकीकरण के समान नहीं होती हैं।‘‘
3. SAARC शिखर सम्मेलनों की घोषणाओं में नए क्षेत्रों को प्रमुखता प्रदान करने के स्थान पर, सार्क को व्यापार, कनेक्टिविटी व सुरक्षा पर तथा एक क्षेत्रीय पहचान विकसित करने की आवश्यकता पर ध्यान देना चाहिए।
4. सार्क के सभी सदस्य राष्ट्र अपने रक्षा बजट में कम से कम 10 प्रतिशत की कटौती करें और इस राशि को सार्क विकास कोष में जमा करें इस राशि को गरीबी उन्मूलन के कार्य पर खर्च करें।
5. आपसी सहयोग के अतिरिक्त अन्य सहयोग संगठनों के साथ सम्पर्क विस्तार किया जाए ताकि सार्क को अन्तर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त हो। उसकी आर्थिक भागीदारी बढे़ तथा भारत के भय को कम किया जा सके।
6. व्यापार, साक्षरता, वित्त, उद्योग, तकनीकी, ऊर्जा, सांस्कृतिक सहयोग आदि के लिए नवीन क्षेत्रों की खोज की जाए
7. SAARC के देशों के बीच युद्ध वर्जन (No war part) की संधि अगले कम से कम 30 वषों के लिए होनी चाहिए।
8. यूरोपियन संघ की तरह सार्क देशों के बीच एक सामान्य मुद्रा के प्रचलन के लिए प्रयास किए जाने चाहिए
9. SAARC देशों के बीच विवाद निस्तारण के लिए एक अलग से सेल का निर्माण किया जाए।
10. SAARC देशों की सीमा एक-दूसरे देश के नागरिकों के लिए खुलनी चाहिए
11. म्याँमार को सार्क में शामिल करके सार्क को आसियान से जोड़ा जाए।
12. द्विपक्षीय एवं बहुपक्षीय सहयोग को बढ़ावा दिया जाए
19वें SAARC शिखर सम्मेलन का आयोजन साल 2016 में पाकिस्तान में किया जाना था, लेकिन भारत समेत बांग्लादेश, भूटान और अफगानिस्तान ने इस समिट में हिस्सा नहीं लिया था बांग्लादेश घरेलू परिस्थितियों का हवाला देते हुए इस सम्मेलन में शामिल नहीं हुआ था जिसके बाद ये सम्मेलन रद्द करना पड़ा था 20वें दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संघ (SAARC) सम्मेलन का आयोजन पाकिस्तान में हो रहा है इसके भी रद्द होने की संभावना है क्योंकि पाकिस्तान ने आतंकवाद को रोकने के लिए जरूरी कदम नहीं उठाए हैं, जब तक वह ऐसा नहीं करेगा भारत का SAARC सम्मेलन में शामिल होना मुश्किल रहेगा। वास्तव में दक्षिण एशियाई सहकार का सपना तब तक साकार नहीं हो सकता, जब तक हम इस पूरे इलाके की धार्मिक-सांस्कृतिक ( सांप्रदायिक नहीं ) साझे की विरासत को शक्तिशाली हकीकत के रूप में स्वीकार नहीं करते।
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