कुछ ऐसे लोग इस वसुन्धरा पर आते हैं। जो लोगों को महिमा मण्डित कर अपने जन्म को सार्थक करते हैं। आधुनिक भारत (20 वीं शताब्दी) के नव जागरण के उषाकाल में ऐसे ही एक पुष्प ने विकसित होकर अपनी मधुर सुगन्ध से न केवल भारतवर्ष को अपितु विश्व को मोहित कर लिया था, वह पुष्प था - पं0 दीनदयाल उपाध्याय। तत्कालीन केन्द्रीय गृहमंत्री श्री यशवंत राव चव्हाण ने उन्हें महान् भारतीय तथा साम्यवादी प्रमुख नेता, हीरेन मुखर्जी ने उन्हें ‘अजातशत्रु’ के रुप में श्रद्धांजलि अर्पित की थी। आचार्य कृपलानी ने उन्हें दैवी सम्पदा की उपमा से विभूषित किया तथा प्रजा समाजवादी दल के नेता श्री नाथपै ने उन्हें गांधी, तिलक और नेता सुभाष चन्द्र बोस की परम्परा की एक कड़ी माना था। भारत केसरी श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने तो उनकी प्रतिभा और कार्यकुशलता से प्रभावित होकर कहा था कि.... यदि मुझे ‘इनके जैसे दो दीनदयाल मिल जाएँ तो मैं देश के सारे राजकीय मानचित्र को ही परिवर्तित कर दूँगा।‘ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर-कार्यवाह श्रीबाला साहब देवरस ने उनकी डॉ0 हेडगेवार से समानता करते हुए ‘आदर्श स्वयंसेवक’ की संज्ञा दी थी। निश्चय ही विभिन्न दलों की दृष्टि में उपाध्याय जी द्वारा की गई राष्ट्र सेवा की भूरि-भूरि प्रशंसा हुई है।
उनकी वाणी तथा उनका ज्ञान और दर्शन आज भी प्रासंगिक है। ऐसी महान विभूतियाँ किसी काल विशेष की नहीं होती, प्रत्युत सार्वकालिक होती हैं। अतः यह आवश्यक है कि उनके द्वारा बताए मार्ग पर चलकर समस्याओं का समाधान करने का प्रयास किया जाए। यदि ऐसा होता है तभी ऐसे महापुरुषों का धरा पर आगमन सार्थक हो सकेगा। उन्होंने भारतीय संस्कृति को जो योगदान दिया, वह सर्वथा स्तुत्य है। राष्ट्रीय एकता के लिए उनका प्रयास अनुकरणीय है।पं0 उपाध्याय जी एक महान् देशभक्त, चिंतक, आध्यात्मिक नेता, मानवता प्रेमी तथा जीवात्माओं को जाग्रत करने वाले महान् संत थे। उनका आदर्श उच्च कोटि का था। इस आदर्श ने दुनिया को एक नया आलोक दिया। उनका जीवन युवाओं के लिए प्रेरणा पुंज है।
पं0 दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितम्बर, 1916 को जयपुर-अजमेर रेलवे लाइन पर स्थित ग्राम धनकिया में हुआ। इनके नाना पं0 चुन्नीलाल शुक्ल तथा पिता श्री भगवती प्रसाद स्टेशन मास्टर थे। पं0 दीनदयाल उपाध्याय के पितामह पं0 हरीराम प्रसिद्ध ज्योतिषी थे जो जिला मथुरा के ग्राम फरह से 1 किलोमीटर पश्चिम में नगला चन्द्रभान के निवासी थे। मात्र ढाई वर्ष की अल्पायु में उपाध्याय जी के पिता एवं चार वर्ष की आयु में माता का देहावसान होने पर इनका लालन-पालन मामा श्री राधारमण शुक्ल की देखरेख में हुआ था। उपाध्याय जी बाल्यकाल से ही प्रतिभा सम्पन्न थे। राजस्थान के सीकर स्थित कल्याण हाई स्कूल से अजमेर बोर्ड की मेट्रिक परीक्षा उन्होंने प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की तथा बोर्ड में सर्वप्रथम स्थान प्राप्त किया। दो वर्ष पश्चात् राजस्थान के पिलानी से इंटर की परीक्षा में भी वे प्रथम आए। कानपुर के सनातन धर्म कॉलेज की बी.ए. परीक्षा में भी उन्हें प्रथम श्रेणी मिली। आगरा के सेंट जोंस कालेज के एम.ए. प्रथम वर्ष में भी उनको सर्वाधिक अंक प्राप्त हुए थे। किन्तु किन्हीं अपरिहार्य कारणों से उन्हें इलाहाबाद जाना पड़ा। जहां उन्होंने बी.टी. की परीक्षा उत्तीर्ण कर अपनी अद्भुत प्रतिभा का परिचय दिया। हाई स्कूल की परीक्षा में स्वर्ण पदक पाने वाले यह मेधावी छात्र सदा छात्रवृत्ति प्राप्त करते रहे थे।
जिस समय भारत, गुलामी की जंजीरों से जकड़ा हुआ, बड़ी ही विवशतापूर्वक अपना धर्म, अपनी शिक्षा, सभ्यता, संस्कृति तथा आध्यात्मिक बल खोता जा रहा था; ठीक उसी समय भारत के आध्यात्मिक, सामाजिक एवं धार्मिक मंच पर एक ऐसे सितारे का अभ्युदय हुआ। जिसने भारत को भूमि के धरातल से उठकर आसमान की बुलंदियों पर अवस्थित कर दिया। किन्तु वर्तमान समय में पं0 दीनदयाल जी के दार्शनिक विचार या उपदेश ज्ञान दीप के समान पूर्ण दर्प से प्रज्वलित होते हुए समग्र विश्व को अपने ज्ञान पुंज द्वारा आलोकित कर रहे हैं तथा व्यक्ति को एक दिशा संकेत प्रदान करते हुए प्रेरणा का स्त्रोत या उद्गम स्थल बने हुए हैं।
एकात्म मानववाद सम्बन्धी विचार - पं0 दीनदयाल उपाध्याय मुख्य रुप से धार्मिक तथा आध्यात्मिक व्यक्ति थे। देश की अधोगति के कारण उनमें भारत तथा भारतवासियों के उत्थान की राष्ट्रवादी भावना प्रबल थी तथापि वे संकीर्णता से दूर थे उनका राष्ट्रवाद मानवतावाद के करीब पहुँच जाता है। पश्चिम के अंधानुकरण से हम अपना उद्वार नहीं कर सकते धर्म आध्यात्मिकता हमारे राष्ट्रीय जीवन का आधार स्तम्भ हो अतः इन्हीं के आधार पर हमें पुननिर्माण करना चाहिए। देश सेवा को आध्यात्मिक आधार प्रदान करने के लिए पं0 दीनदयाल जी ने भारत माता की संकल्पना भगवती के रुप में की। इसमें कोई शक नहीं कि पं0 दीनदयाल जी ने राष्ट्र के पुनरुत्थान का दायित्व हिन्दू धर्म को सौंपा फिर भी उनका विश्वास था कि जाति, भाषा, धर्म इत्यादि के पीछे जिस मनुष्य का अस्तित्व पाया जाता है वह किसी प्रकार के भेदभाव को स्वीकार नहीं करता इस तरह उन्होंने सच्चे मानववाद और विश्व बन्धुत्व के आदर्शों को बढ़ावा दिया। हिन्दू संस्कृति विश्व बंधुत्व का संदेश देती है, मानवता को सबसे बड़ा धर्म मानती है। उस महान् तापस-सम्राट कर्मयोगी, ज्ञान के ज्योतिपुंज स्वरुप, वीर-साधक पं0 दीनदयाल जी को भावी भारत के निर्माता के रुप में कभी नहीं भूल सकता।
निःसन्देह ‘एकात्म मानववाद’ के रुप में श्री दीनदयाल जी का मूलगामी चिंतन भारतीयों का उसी भांति पथ प्रशस्त करता रहेगा, जिस प्रकार प्राचीन काल में आचार्य चाणक्य का अर्थशास्त्र और आधुनिक काल में लोकमान्य तिलक का गीता रहस्य एकात्म मानववाद के सिद्धान्त में, एकात्मवादी भारतीय संस्कृति की प्रवृत्ति की समीक्षा करते हुए उपाध्याय जी कहते है- भारतीय संस्कृति की पहली विशेषता यह है कि वह सम्पूर्ण जीवन का, सम्पूर्ण सृष्टि का संकलित विचार करती है.......
शिक्षा सम्बन्धी विचार - पंडित दीनदयाल उपाध्याय की शिक्षा का आधार प्रेम और शक्ति है, निर्भीकता उसका प्राण है और आत्मविश्वास उसका कर्म है। उनके अनुसार शिक्षा का प्रधान उद्देश्य मनुष्य के चरित्र का विकास है। इससे आचरण में सुधार हो तथा यह सुधार मानव हित में हो। पं0 उपाध्याय जी के मतानुसार शिक्षा मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति में सहायक होती है। उनका कहना था कि शिक्षा का अर्थ यह नहीं है कि तुम्हारे दिमाग में ऐसी बातें ठूँस दी जाएं कि अन्तर्द्वन्द्व होने लगे और तुम्हारा दिमाग जीवन भर उन्हें पचा न सके। जिस शिक्षा द्वारा हम अपना जीवन-निर्माण कर सकें, मनुष्य बन सकें, वहीं वास्तविक शिक्षा है। नारी शिक्षा के पक्ष में उनके विचार बहुत ही स्पष्ट एवं सटीक थे। उनका कहना है कि मातृरुपा नारी हमारी उन्नति एवं प्रगति का माध्यम है। उसको अशिक्षित रखने का अर्थ होता है समाज को अशिक्षित रखना आदि। पं0 दीनदयाल जी वस्तुतः सार्वभौम शिक्षा के पक्षधर थे। उनके विचार में संसार में एक भी अशिक्षित मनुष्य नहीं होना चाहिए।
व्यक्ति की क्षमता व गरिमा में आस्था - सदियों से शोषण और सामाजिक निरंकुशता सहने के कारण लोग गरिमा, आशा और पहल की अपनी भावना को खो चुके थे। पं0 दीनदयाल जी की यह अवधारणा थी कि राष्ट्र व्यक्तियों के समूहों का नाम है। इसलिए हर व्यक्ति में पुरुषत्व मानव गरिमा तथा सम्मान की भावना जैसे गुणों का विकास करना चाहिए। स्वस्थ व सम्पन्न व्यक्तियों के अभाव में एक नैतिक तथा भद्र समाज की बात की ही नहीं जा सकती। जहां वह व्यक्ति के विकास की बात करते थे वहीं वह उस पर सामाजिक दबाव के विरोधी भी थे। वह मानव को अपने भविष्य का निर्माता मानते थे उसे सर्वश्रेष्ठ प्राणी मानते थे, क्योंकि वहीं तो एक ऐसा प्राणी है जो मुक्ति प्राप्त करने की क्षमता रखता है।
कानपुर में अध्ययन करते समय 1937 में उनकी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रति रुचि जाग्रत हुई और संघ के सम्पर्क ने ही उनके जीवन की दिशा बदल दी। 1942 में उन्हें लखीमपुर का जिला प्रचारक नियुक्त किया गया। वह जीवनपर्यन्त संघ की सेवा में जुटे रहे, इसके बावजूद भारत की राजनीति में एक दिशा-निर्देशक उज्जवल प्रकाशपुंज की तरह दीप्तमान रहे।
राजनीति ने राष्ट्र-जीवन को सिद्धान्त-हीनता, पदलोलुपता, वैमनस्यता तथा अनुशासनहीनता के चंगुल में बुरी तरह जकड़ लिया था। ऐसे दुष्कर पथ पर निडरता और निस्वार्थ सेवा का शंख फूंकते हूए उपाध्यायजी सदैव आदर्श पुरुष के रुप में स्मरण किए जाते हैं।अपने कर्मठ और तेजोन्मय जीवन तथा गहन आध्यात्मिक, सामाजिक एवं राजनीतिक विचारों की छाप विदेशों तक में छोड़ी। राष्ट्र की सेवा में सम्पूर्ण जीवन अर्पण करने वाले पं0 दीनदयाल जी का एक ही लक्ष्य था कि वे राजनीतिक दृष्टि से सुदृढ़, सामाजिक दृष्टि से उन्नत एवं आर्थिक दृष्टिकोण से राष्ट्र को समृद्धशाली बनाएं। उनके भाषण और विचारों में राजनीति का जो दर्शन मिलता है वह उन्हें बड़े-बड़े राजनीतिज्ञों और राजनीतिक चिन्तकों से भी कहीं आगे ले जाता है।
भारतीय संस्कृति और राष्ट्रीय एकता के प्रति उनके मन में जो पावन आस्था थी, उसी के कारण राजनीति में कार्य करते हुए भी इस तरुण तपस्वी का जीवन भारत के भावी राजनीतिज्ञों के लिए प्रकाश स्तम्भ की तरह दैदीप्तमान है। दरअसल बाल्यकाल से ही श्रीकृष्ण की पावन भूमि मथुरा, राजस्थान की वीर भूमि, कानपुर की क्रान्ति धरा तथा इलाहाबाद की गंगा की पवित्र त्रिवेणी की मिली-जुली रजकण ने उपाध्याय जी के जीवन को गति प्रदान की थी। अतः उनका अद्भुत व्यक्तित्व पूर्णरुपेण गरिमामय था। पितामह की ज्योतिष विशेषता की पैतृक धरोहर के कारण भी राष्ट्रजीवन पर मंडराने वाले अशुभ ग्रहों की गतिविधियां पहचानकर वे उचित निदान कर लेते थे। उनकी भविष्यवाणियों के जानकार साक्षी हैं कि समय की कसौटी पर उपाध्याय जी के निदान सदैव खरे सिद्ध हुए।
सन् 1964 में ग्वालियर के भारतीय प्रतिनिधि सभा के अधिवेशन में दिए गए उनके भाषण के कुछ अंश की प्रस्तुति भी उपाध्यायजी के विचारों को खुलासा करने में सहायक सिद्ध होगी------”भारत के सामरिक इतिहास में क्रान्ति लाने वाले दो पुरुषों की याद आती है। एक वह कि जब जगद्गुरु शंकराचार्य सनातन बौद्धिक धर्म का संदेश लेकर देश में व्याप्त अनाचार समाप्त करने निकले थे। और दूसरा वह कि जब अर्थशास्त्र धारणा का उत्तरदायित्व लेकर संघ राज्यों में बिखरी राष्ट्रीय शक्ति को संगठित कर ‘साम्राज्य’ की स्थापना करने चाणक्य चले थे। आज इस प्रारुप को प्रस्तुत करते समय वैसा ही तीसरा महत्वपूर्ण प्रसंग आया है। जबकि विदेशी धारणाओं के प्रतिबिम्ब पर आधारित मानव सम्बन्धी अधूरे और अपुष्ट विचारों के मुकाबले विशुद्ध भारतीय विचारों पर आधारित मानव कल्याण का सम्पूर्ण विचार करके ‘एकात्म मानववाद’ के रुप में उन्हीं सुपुष्ट भारतीय दृष्टिकोण को नए सिरे से सूत्रबद्ध करना प्रारम्भ कर रहे हैं।”
एक चिंतक, विचारक तथा राजनीतिक सचेतक के अतिरिक्त पं0 दीनदयाल जी एक प्रखर साहित्यकार व श्रेष्ठ पत्रकार भी थे। समय मिलने पर उन्होंने अनेक विषयों पर लेख लिखे। उनकी प्रथम कृति ‘सम्राट चन्द्रगुप्त’ बहुत लोकप्रिय हुई। जिसका कई भाषाओं में अनुवाद हुआ। जगद्गुरु शंकराचार्य भारतीय अर्थनीति एक दिशा, पंचवर्षीय योजना, अवमूल्यन आदि भी उनकी चर्चित रचनाएं है। संघ पर प्रतिबन्ध लग जाने पर उनका साहित्यिक कार्य दुतगति से चला। पं0 दीनदयाल जी के सम्पादकत्व में साप्ताहिक पांचजन्य तथा मासिक राष्ट्रधर्म एवं दैनिक स्वदेश का शुभारम्भ हुआ था।
सन् 1951 में जब डॉ0 श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में अखिल भारतीय जनसंघ के निर्माण पर विचार किया जा रहा था, तब उपाध्यायजी ने 21 सितम्बर, 1951 में प्रादेशिक सम्मेलन आयोजित करके लखनऊ में जनसंघ की स्थापना की। तदुपरांत डॉ0 मुखर्जी ने 21 अक्टूबर, 1951 को दिल्ली में अखिल भारतीय जनसंघ की स्थापना की। पं0 दीनदयाल जी की संगठन कुशलता के कारण सन् 1952 में जनसंघ का प्रथम अखिल भारतीय अधिवेशन कानपुर में अत्यन्त सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ। इसी अधिवेशन में उपाध्यायजी को अखिल भारतीय जनसंघ का महामन्त्री पद सौंपा गया। महामंत्री के बाद 1967 में वे अध्यक्ष पद पर निर्वाचित हुए।
पं0 दीनदयाल जी के समय में चाहे कश्मीर का आन्दोलन हुआ हो या किसान-मजदूर का मोर्चा, पंचवर्षीय योजना हो या अन्यान्य कोई सामाजिक-राजनीतिक समस्या, सभी पर उनका मार्गदर्शन, संघ और राष्ट्र के लिए उपयोगी रहा। स्वाधीन भारत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की बढ़ती हुई लोकप्रियता से भयभीत होकर सत्ता पार्टी ने 1948 में प्रतिबन्ध लगा दिया और तेजी से दमनचक्र जारी कर दिया।
सन् 1963 में कार्यकर्ताओं के अत्यधिक आग्रह के कारण उन्होंने संसद के लिए जौनपुर से उपचुनाव भी लड़ा। पराजित होने की स्पष्ट आशंका होने पर भी उन्होंने विजयश्री का वरण करने के लिए उन हथकण्डों को नहीं अपनाया, जो उनकी दृष्टि में भारतीय राजनीति के लिए उचित नहीं समझे जाते हैं। उनका स्पष्ट कथन था, ‘हेय साधनों से प्राप्त विजय मुझे रुचिकर नहीं है।’ इस प्रकार राजनीति में रहकर भी उन्होंने सिद्धान्त और व्यवहार में समन्वय बनाए रखा। उन्होंने कार्यकर्त्ताओं को भी यह तथ्य स्पष्ट कर दिया और कोई उनकी इच्छा के विरुद्ध कुछ नहीं कर सका और वह जीवन के एकमात्र निर्वाचन में पराजित हो गए। कालीकट के विशाल अधिवेशन में सम्पूर्ण राष्ट्र को चरैवेति! चरैवेति!! का संदेश देने वाले उपाध्याय जी ने जीवनपर्यन्त इसे अपना कर कथनी और करनी का जीवंत उदाहरण स्थापित किया।
11 फरवरी 1968 को दीनदयाल उपाध्याय स्टेशन (मुगलसराय स्टेशन) पर उनका मृत शरीर मिलने पर माँ भारती को समर्पित राष्ट्र प्रेमी हतप्रथ रह गए थे। उनकी मुट्ठी में पांच रुपये का नोट फँसा हुआ था उस समय पं. उपाध्याय लखनऊ से पटना जा रहे थे उस घटना का रहस्य आज तक ज्ञात नहीं हो सका है। उनकी आकस्मिक मृत्यु पर जनसंघ के तत्कालीन अध्यक्ष एवं राष्ट्रचिंतक पं0 अटलबिहारी बाजपेयी ने उद्गार प्रकट किए थे- ‘सूर्य ढल गया, अब हमें तारों के प्रकाश में मार्ग खोजना होगा।’
निःसन्देह पं0 दीनदयाल उपाध्याय जी राष्ट्र मंदिर के निर्माण में ‘महर्षि दधीचि’ की भांति अपने शरीर की एक-एक अस्थि समर्पित कर देने वाले आधुनिक युग के महान् कर्मयोगी एवं मौलिक चिंतक थे। यहां प0 उपाध्याय का अंत नहीं हुआ, वरन् उसके साथ एक नवीन विचार तथा कार्यक्रम का भी अंत हो गया एक ऐसा कार्यक्रम जो राष्ट्र निर्माण का एक वैकल्पिक मॉडल प्रस्तुत कर रहा था। ज्ञातव्य है कि इधर काफी बड़े पैमाने पर उपाध्याय जी की स्मृति को अक्षुण्ण रखने के लिए उनके नाम पर नगर, सड़कें, भवन आदि का नामकरण हुआ है। 2016 के बाद से पीएम मोदी के नेतृत्व में भाजपा सरकार ने कई सार्वजनिक संस्थाओं का नाम उनके नाम पर रखा है। दिल्ली में एक सड़क/मार्ग का नाम उपाध्याय के नाम पर रखा है। गुजरात में कांडला बन्दरगाह का नाम दीनदयाल ट्रस्ट पोर्ट कर दिया गया है। अगस्त 2017 में यू0पी0 में भाजपा की राज्य सरकार द्वारा उपाध्याय के सम्मान में मुगलसराय स्टेशन का नाम बदलकर दीनदयाल उपाध्याय स्टेशन कर दिया क्योंकि उनका शव स्टेशन के पास पाया गया था। विधि का यह कैसा विद्यान था- उनका जन्म धनकिया रेलवे स्टेशन पर हुआ था, उनका शव मुगलसराय रेलवे स्टेशन पर पाया गया। 2017 में, उपाध्याय जी की भतीजी एवं कई राजनेताओं ने उनकी हत्या की नए सिरे से जांच की मांग की है। एक बड़ा कष्ट यह भी है कि पं. उपाध्याय के हत्यारे को खोजा नहीं जा सका और इतने भयंकर अपराध के बावजूद वह दंडित नहीं हो सका। उन पर शोध कार्य भी किया जा रहा है। उनके पैतृक ग्राम फरह के समीप नगला चन्द्रभान में भी उनकी स्मृति स्थायित्व का कार्य सुनिश्चित है, लेकिन इन चंद पंक्तियों के लेखक के विचार से उनके ‘एकात्म मानववाद’ की सूक्ष्मता, राजनीतिक परिवेश को दी गई आदर्शवादिता को परख लेना आदि उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
दार्शनिक इतिहास के महावट वृक्ष में ऐसी डाल सदियों के बाद फूटती है, जो समाज में विकास की दशा को गति प्रदान कर, एक नवीन जीवन प्रदान करती है। मनुष्य जब अपने मानवता के मूल्यों को भूलकर राक्षसी वृत्ति का मार्ग प्रशस्त करता है, तब ऐसे युग अवतारी पुरुष का अवतार होता है और ये युग अवतारी पुरुष समाज को अपनी वाणी सुनने के लिए बाध्य करते है और बाध्य होकर व्यक्ति इनकी वाणी को सुनता हुआ, अपनी पूर्व स्थिति अर्थात् देवत्व की स्थिति में आने का प्रयत्न करता है विश्व का इतिहास इसका साक्षी है। राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, गुरु नानक, ईसा मसीह तथा पैगम्बर आदि इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। धर्म का उदगम् स्त्रोत भारतवर्ष का इतिहास तो ऐसे युग अवतारी पुरुषों के इतिहास से भरा पड़ा हैं।
यह सत्य है कि शारीरिक रुप से पं0 दीनदयाल उपाध्याय हमारे बीच नहीं है और न सिर्फ हमारे राष्ट्र को बल्कि सम्पूर्ण विश्व को ऐसे महापुरुष की अत्यन्त आवश्यकता है। किन्तु भाग्य की विडम्बना यह है कि ऐसे युग अवतारी पुरुष का अवतार प्रकृति स्वयं निश्चित करती है। अतः प्रकृति ने इनके अवतार का समय कब निश्चित किया है, यह वही जाने। अंग्रेजी एक कहावत है-‘जिन्हें देवता प्रेम करते हैं, वे कम उम्र में स्वर्ग सिधारते है‘। फिर भी चिंता की कोई आवश्यकता नहीं है। आज भी पं0 दीनदयाल उपाध्याय ”दार्शनिक विचारों“ के रुप में हम लोगों के बीच वर्तमान हैं। सिर्फ आवश्यकता है- उनके दिए हुए धर्म-उपदेश के पथ पर, दृढ़तापूर्वक, आगे बढ़ने की। अगर हमारे राष्ट्र के लोग और उसमें भी खासकर युवा-वर्ग, पं0 दीनदयाल उपाध्याय जी के केवल एक अग्रलिखित कथन पर अग्रसर होने का संकल्प कर लें तो न सिर्फ हमारे देश का अपितु सम्पूर्ण विश्व का कल्याण उतना ही निश्चित है, जितना कि सूर्य का पूर्व में उदित होना।हम भारतीयों का यह कर्त्तव्य होना चाहिए कि भारत माँ के उस अमर सपूत द्वारा पोषित भावनाओं, विचारों व साधनाओं के वटवृक्षों को अपने जीवन में उतारकर उनको याद करें। यही उस महान् योगी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
Me Admin
Welcome to Vidyamandirias