किसी भी विषय के संदर्भ में एक सर्वमान्य एवं सर्वविदित तथ्य है कि वर्तमान ही भविष्य का आईना है यदि वर्तमान व्यवस्थित व सकारात्मक है, तो भविष्य निश्चित रूप से समृद्ध, खुशहाल एवं उज्ज्वल होगा जब हम स्वतंत्रता की सुबह का स्वागत करने आगे बढ़े तो हमारे हाथ काँप रहे थे क्योंकि हवा में तिरंगा तो लहरा रहा था परन्तु खेतों में लहराने वाली फसलें नहीं थी। भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि के महत्व व वर्तमान दशा की ओर इंगित करते हुए पंडित जवाहर लाल नेहरू ने अपने भाषण में कहा था-
“Everything may wait but agriculture cannot. There is nothing more important in India today than better agriculture.”
भारतीय अर्थव्यवस्था कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था है। भारत की लगभग 60 प्रतिशत जनसंख्या कृषि पर आधारित है इसलिए वह गांव में निवास करती है। भारत की स्वतन्त्रता के पश्चात् शहरीकरण में तेजी आने के कारण नगरीय आबादी भी बढ़ती जा रही है भारत की अर्थव्यवस्था विकास की ओर अग्रसर है। सामान्यतः यह देखा गया है कि विकसित देशों में शहरी क्षेत्र का प्रभुत्व बना रहता है जबकि आर्थिक दृष्टि से पिछड़े देशों में ग्रामीण क्षेत्र प्रधान होता है। भारत जैसे विकासशील राष्ट्र में अर्थव्यवस्था की बागडोर ग्रामीण क्षेत्र को ही संभालनी होती है। इसी क्षेत्र में उन सब परिस्थितियों का निर्माण होता है जो सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने में समर्थ होती है।
कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था का आधार स्तम्भ होने के बावजूद तथा विकास की प्रक्रिया में अपना राजनीतिक व सामाजिक महत्व रखने के उपरान्त भी हीन दशा में है, कृषि की इस दशा के कुछ प्राकृतिक, आर्थिक व सामाजिक कारण भी हैं, जो कृषि के विकास की गति को धीमा कर रहे है, भारत एक कृषि प्रधान देश होते हुए भी यहाँ की कृषि अत्यन्त पिछड़ी हुई स्थिति में है, वर्षों पूर्व डॉ. क्लाउस्टन (Clouston) का कथन है कि ‘‘भारत में पिछड़ी हुई जातियाँ तो हैं ही, पिछड़े हुए व्यवसाय भी है और दुर्भाग्यवंश कृषि उनमें से एक है.’’ यह कथन आज भी पूर्णतः सत्य जान पड़ता है.
कृषि के आधुनिकीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले कृषि वैज्ञानिक डॉ एम.एस. स्वामीनाथन ने कृषि को नया आयाम दिया तथा भारतीय कृषि के विषय में विदेशी विद्वान भी चर्चा कर चुके हैं, जिनमें प्रमुख रूप से नोरमन ई0 बॉरलोग है तथा ब्रिटिश शासनकाल के एक गर्वनर जनरल लॉर्ड मेयो ने भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि के महत्व की चर्चा करते हुए कहा था कि ‘‘भविष्य में अनेक पीढ़ियों तक धन एवं सभ्यता के विकास की दृष्टि से भारत की प्रगति प्रत्यक्ष रूप से उसकी कृषि की प्रगति पर निर्भर करेगी’’।
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्री जवाहर लाल नेहरू ने कहा था कि ‘‘कृषि को सर्वाधिक प्राथमिकता देने की आवश्यकता है। यदि कृषि असफल रहती है तो सरकार एवं राष्ट्र दोनों ही असफल हो जायेगें’’।
एड़म स्मिथ के अनुसार ‘‘प्रत्येक अर्थव्यवस्था की विकास दर उसके कृषि क्षेत्र की विकास दर पर निर्भर करती है। यदि कृषि क्षेत्र की उत्पादन क्षमता सीमित है तो अर्थव्यवस्था का विकास भी सीमित हो जाएगा।’’
प्रो. आर. एन. मुखर्जी ने गांव या ग्रामीण समुदाय को निम्न शब्दों में परिभाषित किया है- ‘‘कृषक समाज वह समुदाय है जहाँ तुलनात्मक दृष्टि से सामाजिक एकरूपता अनौपचारिकता, प्राथमिक समूह की प्रधानता, जनसंख्या का कम घनत्व और कृषि ही मुख्य व्यवसाय हो।’’
(1) ग्रामीण जीवन प्रकृति के अति समीप है। उसकी सम्पूर्ण क्रियाऐं चाहे आर्थिक हों या सामाजिक सभी प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित किए हुए हैं।
(2) ग्राम्य जीवन में कृषक का सबसे महत्वपूर्ण सम्बन्ध भूमि से है। भूमि ही ग्राम्य जीवन की मुख्य सम्पत्ति है।
(3) ग्राम्य जीवन एवं ग्राम्य समाज में लघु समुदाय होने के फलस्वरूप उनमें पारिवारिकता मुख्य रूप से मिलती है।
(4) गतिशीलता के अतिरिक्त सामाजिक नियन्त्रण ग्राम्य जीवन की मुख्य विशेषता है।
(5) गांव में एक परिवार के प्रत्येक व्यक्ति का कार्य क्षेत्र पृथक-पृथक होता है। पुरूष घर से बाहर का कार्य करते है तो महिलाएं गृह कार्य में संलग्न रहती है।
(6) ग्राम्य जीवन धर्म प्रधान होता है। धर्म परायणता ग्रामीण जीवन की मुख्य विशेषता है।
(7) ग्रामीण क्षेत्रों में अधिकांश जनता अशिक्षित होती है। शिक्षा का अभाव पाया जाता है।
(8) ग्रामीणों द्वारा खेतों की जुताई, फसल की बुवाई, फसल की कटाई करने से पूर्व ईश्वर की आराधना एवं पूजा की जाती है। ईश्वरवादिता एवं भाग्यवादिता में विश्वास करते हैं।
(9) समाज में प्रत्येक वर्ग, व्यवसाय एवं जाति के लोग निवास करते है इसीलिये सामाजिक स्तरीकरण आर्थिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक कारणों से उत्पन्न होते है।
(10) ग्रामीण क्षेत्रों में यातायात की कमी, संचार साधनों की न्यूनता, अशिक्षा आदि की न्यूनता के फलस्वरूप रहन-सहन का स्तर निम्न है।
कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की आधार-शिला है, यह केवल रोजी-रोटी का साधन ही नहीं अपितु हमारी सभ्यता, संस्कृति और जीवन शैली का आइना भी है, वैशाखी, बिहू जैसे त्यौहार प्रत्यक्ष रूप से कृषि से जुड़े हुए है, राष्ट्रीय आय में कृषि का हिस्सा लगभग 22 प्रतिशत है। देश के कुल निर्यात में 16 प्रतिशत हिस्सा कृषि का है, चाय, जूट, केला, आम, नारियल एवं पशुधन आदि की दृष्टि से विश्व में पहला स्थान हमारा है देश में 32 कृषि विश्वविद्यालय कृषि अनुसंधान व विकास के लिए कटिबद्ध हैं मोदी सरकार का भी लक्ष्य 2022 तक किसानों की आय को दोगुना करने का है। राष्ट्रीय किसान आयोग की स्थापना, फसल बीमा योजना, किसान क्रेडिट कार्ड योजना, श्रमयोगी मानधन योजना, कौशल विकास एवं स्टार्टअप योजना, राष्ट्रीय कामधेनु योजना तथा किसान सम्मान योजना के शुभारम्भ से कृषि जगत् में नयी ऊर्जा का संचार हुआ उपर्युक्त सारी बातें भारतीय कृषि की गुलाबी तस्वीर या शुक्ल पक्ष को दर्शाती हैं आइए हम भारतीय खेती के कृष्ण पक्ष पर भी नजर डाले,
तो पाएंगे कि वर्तमान में भारतीय कृषि देश के अनेक राज्यों में ऋणों व ब्याज के बोझ तले दबे निरीह किसानों की आत्महत्या का न थमने वाला सिलसिला, उदारीकरण व वैश्वीकरण के नाम पर विशेष आर्थिक क्षेत्र के लिए कृषकों की बहुमूल्य भूमि का सस्ते दामों पर अधिग्रहण, उचित दर पर ऋण की अनुपलब्धता, मौसम व कीट सम्बन्धी अनिश्चिताओं में जोखिम से जुड़े बीमा की अनुपलब्धता आदि समस्याओं से जूझ रही है-
‘‘जिस खेत से दहकां, (किसान)
को मयस्सर नहीं रोजी।
उस खेत के हर खोशा-ए-गुन्दुम
(गेहूं की बाली) को जला दो ।।‘’
- इकबाल
इन कारणों को मोटे तौर पर दो वर्गो में विभाजित किया जा सकता है -
(1) तकनीकी कारण (Technological Causes) तथा
(2) संस्थागत कारण (Organizational Causes)
(1) तकनीकी कारणों में निम्नलिखित उल्लेखनीय है-
(a) कृषि पर जनसंख्या का अत्याधिक बोझ,
(b) वर्षा की अनिश्चितता, असामयिकता तथा अभाव,
(c) कृषि की प्राचीन तथा अवैज्ञानिक प्रणाली का अनुकरण,
(d) पुराने तरीकों के कृषि औजारों का प्रयोग,
(e) उपजाऊ मिट्टी, उत्तम बीज, एवं उत्तम खाद का अभाव।
(f) जानवरों तथा कीड़े-मकोड़े एवं पौधों की रोगों से फसलों की बर्बादी।
(2) इसी प्रकार संस्थागत कारणों में -
(a) विश्व व्यापार संगठन के दोहरे मापदण्ड
(b) न्यून विकास दर
(c) विशेष आर्थिक क्षेत्र या स्पेशल इकॉनोमिक जोन
(d) सिंचाई सुविधाओं का अभाव
(e) किसानों द्वारा आत्महत्या - यह अत्यन्त शर्मनाक व दुःखद बात है मध्यप्रदेश के ‘‘किसानों ने राष्ट्रपति से आत्महत्या करने की अनुमति माँगना एक गम्भीर त्रासदी है, किसानों के जीवन के दीप को सरकार इस तरह बुझने न दे।‘’ पंद्रह-बीस साल के दौरान साढ़े तीन लाख किसान खुदकुशी कर चुके हैं।
(f) कृषक ऋणग्रस्तता - कृषि की रीढ़ की हड्डी समझे जाने वाले कृषक की स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं है, राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन द्वारा कराए गए एक हालिया सर्वेक्षण के अनुसार देश के आधे कृषक परिवार ऋणग्रस्त है शाही श्रम आयोग की टिप्पणी ‘‘भारतीय कृषक ऋण में ही जन्म लेता है, ऋण में ही जीवनयापन करता है और ऋण में ही मर जाता है’‘।
(g) दूसरी हरित क्रान्ति - राष्ट्रीय कृषक आयोग के अध्यक्ष तथा सुप्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक डॉ0 एम0एस0 स्वामीनाथन के अनुसार दूसरी हरित क्रांति के बिना, अर्थ-व्यवस्था के तीव्र विकास की बात बेमानी है, इसमें कोई शक नहीं कि जिन्दगी चुनौतियां भरी यात्रा है, असगर गोंडवी ने ठीक ही लिखा है
‘‘चला जाता हूँ हंसता-खेलता
मौजे हवादिस से
अगर आसानियाँ हो,
जिन्दगी दुशवार हो जाए’’।
दूसरी हरित क्रांति से कृषि क्षेत्र के साथ-साथ उद्योग तथा सेवा क्षेत्र भी समृद्ध होंगे, भारतीय अर्थव्यवस्था आत्मनिर्भर एवं सुदृढ़ होगी।
भूमि अधिग्रहण अध्यादेश - एनडीए सरकार का भूमि अधिग्रहण अध्यादेश उद्योगोन्मुखी और अमीर हितैषी हैं ये जनतन्त्र विरोधी, पर्यावरण विरोधी और किसान विरोधी है, इसलिए हमें विकास की प्रचलित अवधारणा को बदलने की जरूरत है, वैकल्पिक विकास जन हितैषी और पर्यावरण संरक्षक होना चाहिए, उपजाऊ खेतिहर जमीन का गैर-कृषि कार्यों में उपयोग न हो, बल्कि अनउर्वरक परती भूमि का सिर्फ जरूरी गैर-कृषि कार्यों में उपयोग हो, महात्मा गांधी ने भी कहा है -
‘‘विकास ऐसा करो कि प्रकृति और मानवता का शोषण न हो, शोषण के बल पर हुआ विकास शाश्वत विकास नहीं हो सकता, ऐसा विकास कभी-न-कभी विनाश ही होगा’’
कृषि के उज्ज्वल भविष्य हेतु महत्वपूर्ण सुझाव
कृषि विकास के लिए उन्नत किस्म के बीज, खाद कृषि, उपकरण आदि से किसान तभी लाभ उठा सकेंगे जब उनकी प्राप्ति के लिए देश के प्रत्येक क्षेत्र में सरकारी संस्थाएं खोलकर उसकी उपलब्धता सुनिश्चित की जाए, गाँवों में आधुनिक बैंकों, सरकारी ऋण समितियों एवं ग्रामीण बैंकों की स्थापना कर किसानों को आर्थिक/वित्तीय सहायता प्रदान की जाए. आधुनिक कृषि उपकरण की सुविधा बड़े एवं मध्यम किसानों को ही मिल पा रही है, अत्यन्त छोटे किसान नवीन तकनीकी उपकरण का लाभ नहीं उठा पाते,
1. जरुरत ऐसे हालात बनाने की है कि किसान अव्वल तो कर्ज ले ही न, ले तो पूंजीगत कर्ज ले, जो उसकी उत्पादक क्षमता को लंबे समय के लिए बढ़ाए। इसे दीर्घकालिक ऋण कहा जाता है।
2. खेती में उत्पादन बढ़ाने की समस्या उतनी गंभीर नहीं है, जितनी जरुरत किसानों की आय बढ़ाने की है। अपने हक के लिए किसानों को भी खुद को बेचारा मानने की मानसिकता से बाहर आना होगा।
3. सरकार द्वारा प्राकृतिक आपदा की स्थिति में कृषकों को उनकी नष्ट फसल का मुआवजा समानुकूल कीमतों अथवा क्षेत्रफल के आधार पर दिया जाना चाहिए, साथ ही मुआवजे की राशि के निर्धारण हेतु कृषक प्रतिनिधि, राजस्व अधिकारी तथा कृषि अधिकारियों की सम्मिलित समिति का गठन किया जाना चाहिए।
4. खेती में कार्बनिक खादों एवं जीवाश्म खादों जैसे गोबर की खाद, कम्पोस्ट खाद, वर्मीकम्पोस्ट आदि का प्रयोग कर भूमि की उर्वरता में वृद्धि की जानी चाहिए।
5. किसानों की कृषि ऋणों की माफी और स्वामीनाथन आयोग के अनुसार-कृषि उत्पादन के न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारण समिति में सरकारी प्रतिनिधियों के साथ कृषि वैज्ञानिकों व कृषक प्रतिनिधियों को भी सम्मिलित किया जाना चाहिए।
6. किसानों के मुद्दे उठाना फैशन जैसा बन गया है। सभी राजनीतिक दल किसानों से उनकी सभी मांगे पूरी करने का वायदा करते है? पर एक बार जब चुनाव खत्म हो जाता है, तब किसान आर्थिक रडार से गायब हो जाते हैं और त्याग दिए जाते है।
7. प्रत्येक कृषक को सहकारिता के क्षेत्र में लाने का प्रयास करना चाहिए, इसके लिए आवश्यक है कि उसे सहकारिता के लाभों से अवगत कराया जाए और ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अवसरों में वृद्धि करनी होगी, जिससे गरीब कृषक अपने समय का सदुपयोग कर सकें।
8. फसल उत्पादन के साथ-साथ रेशम/ मौम/ मशरुम/ फूलों की काश्त/ मुर्गी/ सूकर/ बत्तख/ फलों/ मछली पालन भी सम्मिलित कर फार्मिंग सिस्टम एप्रोच (Farming System Approach) पर विशेष बल दिया जाय, ताकि सीमान्त एवं लघु कृषकों की माली हालात सुधरें।
9. कृषि पर बढ़ते हुए जनसंख्या के भार को कम करने के लिए कृषकों को परिवार नियोजन के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए, जिसमें स्त्रियों को शिक्षित करना अनिवार्य है एवं जनसंख्या नियंत्रण एक्ट बनाया जाए, यही कृषि के विकास की देश के लिए धुरी होगी, अर्थात 100 रोगों का एक इलाज।
10. गैर सरकारी संगठनों (NGO’s-Non Govt. Organization) को अधिक-से-अधिक दायित्व और अवसर उपलब्ध कराकर विशेषरूप से ग्रामीण विकास के विभिन्न कार्यक्रमों के प्रभावी कार्यान्वयन को सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
भारत में पिछले सत्तर वर्षों में बहुत से परिवर्तन व सुधार होते देखे गए हैं, परन्तु सभी प्रकार के परिवर्तनों को प्रगति नहीं कहा जा सकता इन परिवर्तनों की दिशा क्या है, इसकी जाँच जरूरी है? हम इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर चुके हैं और अब समय आ गया है कि इन प्रमुख समस्याओं की प्रकृति और आकार का विश्लेषण हो इन्हें समझा जाए, ग्रामीण भारत के सम्बन्ध में अलग से चर्चा करना आवश्यक क्यों है और सम्पूर्ण भारत के सम्बन्ध में एक साथ क्यों नहीं? इसका सरल व सहज उत्तर है आखिर जब जीएसटी के लिए मध्य रात्रि को संसद का विशेष सत्र बुलाया जा सकता है, तो फिर कृषि संकट को सुलझाने के लिए ऐसा क्यों नहीं किया जा सकता? यह अलग देश तो नहीं हैं, परन्तु यह भारत का वह भाग है, जहाँ भारत की 75 प्रतिशत जनसंख्या, छह लाख गाँवों में निवास करती है, जहाँ देश की 91 प्रतिशत गरीबी, 90 प्रतिशत बेरोजगारी और इससे भी अधिक अनुपात में अशिक्षा, कुपोषण व पिछड़ापन है, देश की बारहवीं पंचवर्षीय विकास योजनाओं के बाद भी देश के 65 प्रतिशत ग्रामों में चिकित्सा के लिए अस्पताल नहीं है, 55 प्रतिशत में 5 किलोमीटर के क्षेत्र में पशुओं की चिकित्सा की व्यवस्था नहीं है, 62 प्रतिशत में कृषि उपज का विक्रय नहीं हैं और कृषि उपज को संग्रह करके सुरक्षा से रखने की व्यवस्था का तो अभी पूर्ण विकास भी नहीं हुआ है।
उपर्युक्त के आधार पर कहा जा सकता है कि भारतीय कृषक अपनी समस्त सफलताओं व विफलताओं के बावजूद भविष्य में और अधिक योग्य बनने व चुनौतियों का सामना करने का वादा करती है, परन्तु इसके लिए सक्रियता, प्रशासनिक कुशलता व सतर्कता की आवश्यकता है, तभी हम कृषि के निर्यातोन्मुखी, विकासोन्मुखी तथा बाजारोन्मुखी होने की कल्पना को पूरा कर पाएंगे और भारत का प्रत्येक कृषक व उसका परिवार महाकवि घाघ के इस कथन पर यकीन कर पाएगा-
‘‘उत्तम खेती, मध्यम बान।
निकृष्ट चाकरी, भीख निदान।।’’
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